कावेरी जल विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय ने अपना अन्तिम फैसला सुना दिया। इस फैसले से तमिलनाडु को मिलने वाले पानी की मात्रा में थोड़ी कमी आई है जबकि कर्नाटक का हिस्सा उतना ही बढ़ा है। लाजिमी तौर पर कर्नाटक खुश हुआ है और तमिलनाडु वालों के चेहरे पर मायूसी है। लेकिन क्या यह मायूसी होनी चाहिए? आखिर न्यायालय ने नदी जल विवाद न्यायाधिकरण के दस साल पुराने फैसले में कोई परिवर्तन किया है तो वह बदलाव उसने बेंगलूरु की पेयजल जरूरतों के लिए किया है। यद्यपि बेंगलूरु की औद्योगिक इकाईयों की बढ़ी हुई पानी की जरूरतों को उसने दोयम नम्बर पर रखा है।
यह किसी से छिपा नहीं है कि बेंगलूरु हो या चैन्नई, मुम्बई हो या कोलकाता अथवा हैदराबाद या जयपुर , सभी कहने को किसी एक राज्य की सीमा में हों पर उनमें देश के दस-दस राज्यों के लोग रह रहे हैं। मुम्बई, कोलकाता और बेंगलूरु को तो अब ‘मिनी भारत’ ही कहा जाने लगा है। वैसे तो कहीं कोई विवाद होने ही नहीं चाहिए और पीने के पानी पर तो कोई झगड़ा होना ही नहीं चाहिए। राज्यों के नाम पर ज्यादातर विवाद उन राज्यों की सरकारों और राजनीतिक दलों की ओर से खड़े किए जाते हैं जिनका वहां की आम जनता से तब तक कोई सम्बंध नहीं होता, जब तक कि उसे भडक़ाया-उकसाया नहीं जाए।
यह भी जरूरी है कि ऐसा कोई भी विवाद जैसे ही खड़ा हो, उसके समाधान के तुरन्त और ठोस उपाय हों। आज की तारीख में गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, नर्मदा, रावी-व्यास और महादयी जैसी अनेकों नदी जल विवाद हैं जिन्होंने देश के एक दर्जन से ज्यादा राज्यों की नींद खराब कर रखी है। बेहतर हो, इन विवादों के त्वरित समाधान का कोई स्थाई तंत्र विकसित किया जाए।