आज इंटरनेट पर सब कुछ सुलभ है, यदि कुछ दुर्लभ है तो वह है- विद्यार्थी के समग्र व्यक्तित्व विकास की संभावना। इंटरनेट पर क्या उसके लिए उपयोगी है, क्या अनुपयोगी है? इतना विवेक विद्यार्थी के अंदर अपने इनोवेटिव मेथड से एक कत्र्तव्यनिष्ठ और सदाचारी शिक्षक ही जागृत कर सकता है। शिक्षक भावप्रवण हो, उचित प्रशिक्षण प्राप्त कर्मठ व्यक्ति हो जिसकी प्रतिबद्धता अपने व्यवसाय, बच्चों, समाज एवं देश के प्रति समर्पित हो।
डॉ. विनोद यादव
शिक्षाविद और इतिहासकार
जिस तरह से सामाजिक बदलाव एक निरंतर प्रक्रिया है, उसी तरह शैक्षिक परिवर्तन भी एक सतत प्रक्रिया है। असल में, शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का सबसे सफल माध्यम होती है। उसमें वांछित बदलाव किए बिना समृद्ध, सशक्त एवं आत्मनिर्भर भारत की कल्पना भी नहीं की जा सकती। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देश की समृद्धि का आधार है। भारत युवाओं का देश है। मान्यता यह भी है कि नवयुवक देश के कर्णधार होते हैं। युवाओं के व्यक्तित्व एवं समग्र विकास के लिए बौद्धिक प्रखरता व नैतिक चेतना बेहद जरूरी है। मार्टिन लूथर किंग जूनियर अपने प्रसिद्ध लेख ‘द पर्पज ऑफ एजुकेशन’ में लिखते हैं, ‘नैतिकता के अभाव में बुद्धि से श्रेष्ठ व्यक्ति सबसे खतरनाक अपराधी बन सकता है।’
आमतौर पर कोई भी समाज या देश तरक्की के रास्ते पर तभी आगे बढ़ता है, जब वहां की शिक्षा गुणवत्ता से परिपूर्ण हो और नवयुवकों का आचरण अच्छा हो। कंप्यूटर-क्रांति और इंफोर्मेशन टेक्नोलॉजी के युग में केवल गणित, विज्ञान पढ़ाना या कंप्यूटर का उपयोग सिखाना ही शिक्षक का दायित्व नहीं है। शिक्षकों का उत्तरदायित्व है कि वे विद्यार्थियों को देश के आमजनों के दु:खों के प्रति, महिलाओं के सम्मान के प्रति संवेदनशील बनाएं। दरअसल, यह एक चिंतनीय विषय है कि शिक्षा क्या ऐसा कर रही है? क्या यह बच्चों, किशोरों एवं नवयुवकों को अधिक दयालु, संवेदनशील और अधिक उदार बनाने में मदद कर रही है। तेजी से बदलते परिवेश में विषय की निपुणता के साथ-साथ अपने रुचिपूर्ण टीचिंग मेथड़ व इनोवेशन स्किल्स के माध्यम से स्टूडेंट्स की रचनाधर्मिता को निखारना शिक्षक का परम कत्र्तव्य है। असल में संचार-क्रांति और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के इस दौर में आज के विद्यार्थियों को हर चीज आसानी से मिल जाती है। प्रौद्योगिकी मनुष्य और उसके सामाजिक परिवेश को बदलती है। प्रौद्योगिकी का हमारे व्यक्तिगत व्यवहार पर पडऩे वाला असर महत्त्वपूर्ण सामाजिक छाप छोड़ सकता है। असल में हम व्यावहारिक बदलाव के ऐसे दौर से गुजर रहे हैं, जो स्थाई और परिवर्तनशील सामाजिक प्रभाव पैदा भी कर सकता है और नहीं भी। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि हम उस प्रौद्योगिकी का कैसे उपयोग करते हैं? स्मार्टफोन और सोशल मीडिया सामाजिक ताने-बाने के लिए बहुत नुकसानदायक साबित हो रहे हैं। 2012 के बाद से वैश्विक स्तर पर स्मार्टफोन का प्रचलन किशोरों में तेजी से बढ़ा है, और इंटरनेट का उपभोग बेतहाशा बढ़ा है तब से किशोरों का मानसिक स्वास्थ्य बुरी तरह से प्रभावित हुआ है।
आंकड़े बताते हैं कि 2012 के बाद से किशोरों और युवाओं में हिंसा, यौन अपराध, आत्महत्या की दर दोगुनी हो गई है। डिजिटल गैजेट्स का दूसरा दुष्प्रभाव किशोरों की एकाग्रता पर पड़ा है। जो विद्यार्थी अधिकतर डिजिटल गैजेट्स पर पढ़ाई करते हैं, वे केवल सतही तौर पर पढ़ते हैं। फंक्शनल मैग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग अध्ययनों से पता चलता है कि डिजिटल गैजेट्स के अभ्यस्त छात्रों में मस्तिष्क के हिस्से पूरी तरीके से विकसित और सक्रिय नहीं हो पाते। जिसकी वजह से युवा पीढ़ी उपयोगी, प्रासंगिक व शोधपरक पाठ्य-सामग्री को पढऩे और समझने की क्षमता खो रही है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से युवा-विद्यार्थी बहुत-सी जानकारी मिनटों में हासिल कर सकते हैं। लेकिन सच यह भी है कि एआइ तकनीक संस्कार प्रदान नहीं कर सकती, बल्कि इंटरनेट तकनीक का दुरुपयोग साइबर क्राइम की वजह बन रहा है।
सर्वविदित है कि गूगल के सहारे युवा पीढ़ी में पनप रहे असामाजिक व्यवहार व भ्रष्ट आचरण पर लगाम नहीं लगाई जा सकती। यानी आत्म-विवेचन, पारस्परिक सहयोग, सौहार्द, बंधुत्व, उदारता, त्याग-भावना आदि मूल्यों की जगह गूगल-गुरु नहीं ले सकता। आज इंटरनेट पर सब कुछ सुलभ है, यदि कुछ दुर्लभ है तो वह है- विद्यार्थी के समग्र व्यक्तित्व विकास की संभावना। इंटरनेट पर क्या उसके लिए उपयोगी है, क्या अनुपयोगी है? इतना विवेक विद्यार्थी के अंदर अपने इनोवेटिव मेथड से एक कत्र्तव्यनिष्ठ और सदाचारी शिक्षक ही जागृत कर सकता है। शिक्षक भावप्रवण हो, उचित प्रशिक्षण प्राप्त कर्मठ व्यक्ति हो जिसकी प्रतिबद्धता अपने व्यवसाय, बच्चों, समाज एवं देश के प्रति समर्पित हो।
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