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‘जॅक्सन हाल्ट’ ने लोक भाषाओं के लिए खोली नई राह

फिल्म बहुत ही सीमित बजट में बनी है, लेकिन फिल्म देखते हुए कहीं भी इसका अहसास नहीं होता। निश्चित रूप से इसका श्रेय फिल्म के कला निर्देशक प्रेमचंद महतो को दिया जाना चाहिए, जिसने स्टेशन मास्टर के उस कमरे को खड़ा किया, जहां पूरी फिल्म चलती है।

May 14, 2023 / 09:37 pm

Patrika Desk

'जॅक्सन हाल्ट' ने लोक भाषाओं के लिए खोली नई राह

‘जॅक्सन हाल्ट’ ने लोक भाषाओं के लिए खोली नई राह

विनोद अनुपम
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त कला समीक्षक

‘जॅ क्सन हाल्ट’ के साथ उत्तर भारत की लोक भाषाओं में पैन इंडियन फिल्म की शुरुआत देखी जा सकती है। नीतू चंद्रा और नितिन चंद्रा भाई बहन की क्रिएटिव जोड़ी ने यह फिल्म बिहार की एक भाषा मैथिली में बनाई है, जिस भाषा में बमुश्किल साल में तीन से चार फिल्में बन पाती हैं। बनती भी हैं, तो पारिवारिक कहानियों के दायरे से बाहर नहीं निकल पातीं। ऐसे में मैथिली में एक थ्रिलर बनाने का निर्णय नितिन के लिए आसान नहीं रहा होगा।
यह फिल्म सिर्फ इसीलिए खास नहीं है कि हिंदी के अलावा उत्तर भारत की किसी भी भाषा में बनने वाली यह पहली थ्रिलर हो सकती है। अमूमन हिंदी में भी एक रात की पृष्ठभूमि पर बनी थ्रिलर को याद करना चाहें तो ‘इत्तेफाक’, ‘कौन’ और ‘इस रात की सुबह नहीं’, ‘एन एच10’ जैसी फिल्में उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं। यह फिल्म इसलिए भी खास है कि इसे ‘क्राउड फंडिंग’ कर बनाया गया है। अभी तक मलयालम में एक फिल्म के पीछे सौ से अधिक लोगों के नाम दिखते थे। मैथिली में इसकी शुरुआत कर उत्तर भारत की तमाम लोक भाषाओं के लिए फिल्म में हस्तक्षेप की नितिन ने एक राह खोली है। यदि हाथ में एक अनूठी बाउंड स्क्रिप्ट हो और अपनी रचनात्मकता पर आप लोगों के मन में विश्वास जगा सकते हों, तो अपनी शर्तों पर अपनी पसंद की फिल्म बनाने में अब संसाधन सीमाएं नहीं बनते।
जॅक्सन हाल्ट में तीन मुख्य पात्र हैं और एक ही लोकेशन। पूरी कहानी बस एक कमरे में चलती है, थोड़ी देर के लिए निकलती भी है तो फिर कमरे में लौट आती है। कुछेक मिनट के लिए बीच-बीच में एकाध पात्र आते भी हैं, तो बस वे समय को आगे बढ़ा कर निकल जाते हैं। कहानी बस एक वाक्य में कही जा सकती है, सुदूर बियावान में रेलवे का जंक्शन हाल्ट है ,जिसका स्टेशन मास्टर वास्तव में एक मनोरोगी सीरियल किलर है, जो अपने एक सहयोगी के साथ अकेले यात्री को देखकर उसकी हत्या कर देता है और लाश वहीं पास में गाड़ देता है। एक रात एक युवा यात्री उनके चंगुल में फंस जाता है। स्टेशन मास्टर को यात्री की हत्या करनी है, यात्री को बच कर भागना है। दर्शकों को पहले ही दृश्य से सब पता रहता है, नितिन कुछ भी सस्पेंस नहीं छोड़ते। इसके बावजूद फिल्म की लिखावट को दाद देनी पड़ती है कि वह बगैर किसी नाटकीयता के दर्शकों को बांधे रखती है, जहां लिखावट कमजोर पड़ती वहां रामबहादुर रेणु जैसे अभिनेता फिल्म को अपने कंधे पर उठा लेते हैं। वास्तव में इस फिल्म में एक टीम की अपना सर्वश्रेष्ठ देने की जिद दिखती है। फिल्म बहुत ही सीमित बजट में बनी है, लेकिन फिल्म देखते हुए कहीं भी इसका अहसास नहीं होता। निश्चित रूप से इसका श्रेय फिल्म के कला निर्देशक प्रेमचंद महतो को दिया जाना चाहिए, जिसने स्टेशन मास्टर के उस कमरे को खड़ा किया, जहां पूरी फिल्म चलती है।
खास यह भी कि फिल्म मैथिली में है, तो नितिन मिथिला भी नहीं छोड़ते। वे कथानक में विद्यापति, बाबा नागार्जुन जैसे लेखकों को भी जोड़ते हैं। साथ ही वे मिथिला के प्रतीक खाद्य तिलकोर के तरुआ का भी संदर्भ लाते हैं, लेकिन इतना भर ही कि वह थ्रिल की तीक्ष्णता कम न करे।
थ्रिलर सुनते ही अब तक कोरियन या हॉलीवुड की ही याद आती थी। अब मैथिली की भी याद आएगी। वास्तव में जॅक्शन हाल्ट मैथिली ही नहीं, पूरे उत्तर भारत में क्षेत्रीय सिनेमा के परिदृश्य को प्रभावित कर सकती है।

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