विश्व में उदय होती विभिन्न शक्तियों के लिए ही नहीं, बल्कि भारत के लिए भी हमेशा से ही हिंद-प्रशांत क्षेत्र का अपनी खास भौगोलिक अवस्थिति के कारण विशेष महत्त्व रहा है। इस क्षेत्र से होने वाले समुद्री व्यापार के कारण हाल के वर्षों में यह एक कूटनीतिक एवं सामरिक संघर्ष का मंच बन गया है। चीन विशेषकर भारत के आस-पड़ोस के देशों यथा श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार व थाईलैंड आदि देशों को इंफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर भारी ऋण जाल तथा सैन्य साजो-सामान से सुसज्जित कर रहा है। यहां तक कि पनडुब्बी और युद्धपोत उपलब्ध करवा कर इस क्षेत्र को सैन्य उपनिवेशवाद की ओर धकेल रहा है। चूंकि चीन आसियान देशों का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है, चीन अपने इस प्रभाव से तथा ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति से आसियान देशों की एकता के लिए खतरा बना हुआ है। चीन का यह समीकरण आसियान देशों से भारत के संबंधों को प्रभावित भी कर सकता है।
भारत की नीति हमेशा से ही हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अधिक से अधिक शांति एवं सौहार्द की रही है तथा इस क्षेत्र को मुक्त, खुले और समावेशी क्षेत्र के रूप में विकसित होते रहने देने की रही है। इसके विपरीत चीन अपनी चालाकियों से बाज नहीं आ रहा, जिन्हें रोकने के लिए ही अमरीका, भारत, ऑस्ट्रेलिया और जापान स्थायी ढांचा विनिर्माण के वित्त पोषण के लिए कार्य कर रहे हैं।
इस क्षेत्र में पहले अमरीका का दबदबा था परंतु कुछ वर्षों में हुए बदलाव के कारण जिस तरह से चीन द्वारा पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह, श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह, सोलोमन द्वीप से सामरिक समझौता सहित अनेक देशों को ऋण जाल में फंसाने का कुचक्र चलाया जा रहा है, उससे इस बात का डर बढ़ गया है कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन प्रभुत्व स्थापित न कर ले।
हिंद-प्रशांत क्षेत्र से ही दुनिया भर का 70 से 75 प्रतिशत आयात-निर्यात होता है तथा दुनिया के सबसे व्यस्त बंदरगाह भी इसी क्षेत्र के हैं। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में 38 देश शामिल हैं तथा विश्व की 60 प्रतिशत जीडीपी का योगदान इसी क्षेत्र से होता है। यह क्षेत्र पेट्रोलियम उत्पाद को लेकर उपभोक्ता और उत्पादक दोनों के लिए संवेदनशील बना रहता है।
भू-आर्थिक प्रतिस्पर्धा का संकेत देती कुछ ऐसी घटनाएं हैं जिनसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाएं, बढ़ता सैन्य खर्च तथा प्राकृतिक संसाधनों को लेकर गलाकाट प्रतिस्पर्धा विश्व शांति के लिए खतरा बन सकती है।
भू-आर्थिक प्रतिस्पर्धा का संकेत देती कुछ ऐसी घटनाएं हैं जिनसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाएं, बढ़ता सैन्य खर्च तथा प्राकृतिक संसाधनों को लेकर गलाकाट प्रतिस्पर्धा विश्व शांति के लिए खतरा बन सकती है।
भारत इस क्षेत्र में किसी भी एक देश का प्रभुत्व नहीं चाहता तथा विभिन्न समूहों के माध्यम से यह सुनिश्चित करने का प्रयास कर रहा है कि चीन इस क्षेत्र में ‘हावी’ न हो जाए क्योंकि चीन हिंद-प्रशांत देशों के लिए तो खतरा है ही, भारतीय हितों के लिए भी खतरा पैदा कर रहा है। ऑस्ट्रेलिया, भारत, अमरीका, जापान के बीच क्वाड का बहुपक्षीय समझौता हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शक्ति संतुलन तथा चीन पर दबाव बनाए जाने के दृष्टिगत एक प्रमुख गठजोड़ तो है ही। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जापान, पापुआ न्यू गिनी द्वीप, ऑस्ट्रेलिया की यात्रा हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत की सशक्त व दीर्घकालिक भूमिका को स्पष्ट करती है।
भारत अब अपनी 1992 की ‘लुक ईस्ट’ पॉलिसी के स्थान पर चीन के रणनीतिक व सामरिक प्रभाव के प्रतिकार के लिए तैयार है। वह एक शक्ति के रूप में विशाल हिंद-प्रशांत क्षेत्र के साथ आर्थिक, रणनीतिक और सांस्कृतिक संबंधों को बढ़ावा देने के लिए कूटनीतिक पहल कर ‘लुक ईस्ट’ पॉलिसी के परिष्कृत रूप ‘एक्ट ईस्ट’ पॉलिसी की तरफ कदम बढ़ा चुका है।
अमरीका के राष्ट्रपति जो बाइडन को भी प्रधानमंत्री मोदी के साथ पापुआ न्यू गिनी आना था परंतु अमरीका में गंभीर आर्थिक संकट होने से बाइडन ने यह यात्रा रद्द कर दी, जिसका भारत को एक सीधा लाभ यह भी मान सकते हैं कि पापुआ न्यू गिनी में ‘फोकस’ भारत पर ही रहा। यह लाभ इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि चीन से मुकाबला करने के लिए यह टापू भले ही छोटा हो, मगर रणनीतिक रूप से बहुत महत्त्वपूर्ण है। हालांकि क्वाड का आयोजन ही अपने आप में चीन की घातक महत्त्वाकांक्षाओं को काबू करने का प्रयास है पर अचानक क्वाड का रद्द होना चीन के हौसले बुलंद ही करेगा। इस बीच भारत के लिए जरूरी है कि जो भी कुछ बेहतर प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा से निकल कर आ सके, उसका प्रयोग कर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपनी स्थिति और बेहतर की जाए।
(ऑस्ट्रेलिया से पत्रिका के लिए विशेष)
(ऑस्ट्रेलिया से पत्रिका के लिए विशेष)