इंडिया गठबंधन बनने के सवा साल के भीतर ही बिखरता और खत्म होता नजर आ रहा है। जिस दिन से यह गठबंधन बना, तभी से इसमें गहरे मतभेद दिखाई देते रहे। मुद्दों और नीतियों पर गहरा बिखराव लगातार देखने को मिला। जितने दल, उतनी बातें। अब न मुद्दे एक रहे, न मंच। कभी ईवीएम पर अलग-अलग राय, तो कभी संभल पर। कभी अडानी पर घमासान, तो कभी सीटों के तालमेल को लेकर विवाद। कभी गठबंधन के नेतृत्व पर असहमति, तो कभी विचारों में विरोधाभास। कभी नेता बदलने की मांग उठती, तो कभी संसद में हर दल अपनी-अपनी डफली और अपना-अपना राग अलापता।
इन गहरे मतभेदों और असहमति से भरे इंडिया गठबंधन ने हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान ही गिरावट दिखानी शुरू कर दी थी। अब दिल्ली विधानसभा चुनाव में यह पूरी तरह बिखर चुका है। गठबंधन के नेता अब खुलकर स्वीकार कर रहे हैं कि यह गठबंधन सिर्फ लोकसभा चुनाव के लिए था, जो अब खत्म हो चुका है।
इन दिनों बिहार और दिल्ली में सियासी तापमान, कड़ाके की ठंड के बावजूद, गर्म है। दिल्ली में 5 फरवरी को मतदान होना है, और साल के अंत तक बिहार में भी नई सरकार की तस्वीर साफ हो जाएगी। लेकिन इन चुनावों से पहले ही दिल्ली और बिहार की तीखी बयानबाजी और राजनीतिक सरगर्मियों के चलते इंडिया गठबंधन टूटने की कगार पर पहुंच गया है। दिल्ली चुनाव में ‘आप’ और कांग्रेस के बीच बढ़ती दूरी और सहयोगी दलों के रुख ने गठबंधन की टूट को तय कर दिया है।
वैसे, गठबंधन की नाव कांग्रेस की हरियाणा और महाराष्ट्र में हार के बाद ही हिचकोले खाने लगी थी, लेकिन दिल्ली चुनाव ने इसे लगभग डुबो ही दिया। कांग्रेस के हाथ का साथ छोड़कर, गठबंधन के सभी दल केजरीवाल के झाड़ू के पीछे खड़े हो गए हैं। ममता बनर्जी की तृणमूल, अखिलेश यादव की सपा, उद्धव ठाकरे की शिवसेना, और अन्य दल कांग्रेस से दूरी बनाकर केजरीवाल के साथ खड़े हो गए हैं।
राजनीति में कोई स्थाई दोस्त या दुश्मन नहीं होता और यह गठबंधन भी बनते-बिगड़ते रिश्तों का उदाहरण बन गया है। लगातार चुनावी असफलताओं से उत्पन्न बेचैनी गठबंधन पर भारी पड़ती रही। एक-दूसरे के खिलाफ असंतोष, दोषारोपण और बयानबाजी ने विपक्ष की एकता को कमजोर कर दिया।
लोकसभा चुनाव के दौरान इंडिया गठबंधन ने अपने लक्ष्य में आंशिक सफलता पाई थी। उसने जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र और झारखंड में मिलकर विधानसभा चुनाव लड़े, लेकिन हरियाणा में कांग्रेस ने ‘आप’ के साथ चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया। अब यही काम ‘आप’ ने दिल्ली में किया, क्योंकि वह राजधानी को अपना गढ़ मानती है। कांग्रेस भी दिल्ली में अपनी राजनीतिक जमीन छोड़ने को तैयार नहीं, क्योंकि उसने यहां लंबे समय तक शासन किया है।
इंडिया गठबंधन की असफलता का बड़ा कारण यह है कि इसके घटक दलों के बीच नीति और नीयत में एकजुटता नहीं है। इसके अलावा, गठबंधन के पास कोई स्पष्ट साझा उद्देश्य भी नहीं है। यही कारण है कि यह गठबंधन राजनीतिक मजबूरियों और विरोधाभासों के कारण टूट गया। भारतीय राजनीति में विपक्षी एकता के प्रयास पहले भी हुए हैं, लेकिन वे कभी भी लंबे समय तक सफल नहीं रहे। किसी भी गठबंधन की सफलता के लिए साझा उद्देश्य, स्पष्ट नीति, और मजबूत नेतृत्व जरूरी होता है। इंडिया गठबंधन इन सभी कसौटियों पर खरा नहीं उतर सका। अब भाजपा नेताओं का कहना है कि यह गठबंधन सिर्फ मोदी के डर से बना था और उसका यही हश्र होना था। राजनीति में गठबंधन बनते और बिगड़ते रहते हैं, लेकिन इंडिया गठबंधन की असफलता ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भविष्य में ऐसे किसी भी गठबंधन को जनता का विश्वास जीतने में मुश्किल होगी।