एक दिन सैर के वक्त मैंने दो अलग-अलग बिताई शामों की तुलना की। एक तरफ था महंगा रेस्त्रां, साधारण खाना और भारी-भरकम बिल तो दूसरी तरफ था घर पर पुराने दोस्तों के साथ हंसी-ठिठोली, उनके लिए अपने हाथों से खाना पकाना और खाने के बाद पुराने हिंदी गाने। अर्थशास्त्र का विद्यार्थी रहने के नाते मैंने सोचा कि अर्थशास्त्र इन दोनों शामों की तुलना कैसे करेगा। मापकों के अनुसार, जिस दिन मैंने देश की अर्थव्यवस्था में अधिक योगदान दिया, उस दिन मेरा अनुभव निराशाजनक रहा। अर्थशास्त्रियों के लिए किसी देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) कुल उत्पादन का माप है। केवल अर्थशास्त्री ही नहीं, नीति-निर्माता, व्यापारी, राजनेता व विश्वविद्यालय भी यही कहते हैं और पाठ्यपुस्तक परिभाषा है, ‘एक वर्ष में किसी देश में उत्पादित सभी वस्तुओं और सेवाओं का कुल मूल्य।’ ‘मूल्य’ वास्तविक हो सकता है, नाममात्र भी।
पाठ्यपुस्तकों में एक परंपरागत उदाहरण है कि अगर कोई आदमी अपनी नौकरानी से विवाह कर लेता है तो देश की जीडीपी गिर जाएगी। ऐसी हजारों कहानियां बनाई जा सकती हैं। मेरी दादी को मेरे लिए स्वेटर बनाने में और वह प्रेम पगा उपहार मिलने पर मुझे जो आनंद मिलता था, आज के विशेषज्ञों की आर्थिक गणना में उसके लिए कोई जगह नहीं है। आज के विशेषज्ञ मानव कल्याण का एकमात्र सूचक जीडीपी को मानते हैं। वे आइंस्टाइन के इस कथन को भूल जाते हैं द्ग ‘हर वह चीज जिसे गिना जा सकता है, महत्त्वपूर्ण नहीं होती और हर महत्त्वपूर्ण चीज को गिना नहीं जा सकता।’ आइए, जीडीपी के तीन अन्य पहलुओं पर विचार करें। 1937 में जब साइमन कुजनेट्स ने पहली बार अमरीकी कांग्रेस में राष्ट्रीय उत्पादन के मापक के रूप में जीडीपी की अवधारणा प्रस्तुत की तो इसका उद्देश्य युद्धकाल में विभिन्न देशों की सैन्य शक्तियों की तुलना का सरल तरीका सुझाना था। 1945 के बाद, शीत युद्ध के दौरान जीडीपी का यह पक्ष वैचारिक रूप से शक्तिशाली हो गया और पूंजीवादी एवं साम्यवादी विचारक अपनी प्रणालियों को श्रेष्ठतर साबित करने के लिए जीडीपी की अनगढ़ तुलना करने लगे। 1944 के ब्रेटन वुड्स सम्मेलन के बाद विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के साथ सामने आया ‘विकास’ का विचार। दो ध्रुवों वाली दुनिया के आक्रामक माहौल में हर सरकार ने ‘विकास’ की जरूरत महसूस की, एक ऐसी बनावटी जरूरत जो पिछली तीन पीढिय़ों से जस की तस है। 1950 के दशक में ‘विकास’ के विचार के साथ ‘कल्याण अर्थशास्त्र’ का उदय हुआ, जिसमें केनेथ एरो और अमत्र्य सेन जैसे विद्वानों का योगदान रहा। इसके बाद उनके अनुयायी, नीति निर्माता और सरकारें जीडीपी को ही मानव कल्याण का सूचक मानने लगे। आज भी यही स्थिति है। विचारणीय है कि जो लोग राष्ट्र को ‘महान’ बनाना चाहते हैं, क्या उन्हें दादियों और पोते-पोतियों की खुशियों की कोई परवाह है। यदि मानव संबंधों का पूरी तरह से व्यावसायीकरण कर दिया जाए, तो यह एक अद्वितीय आर्थिक चमत्कार होगा। पर इससे समाज (या डेटिंग ऐप्स की जीत के बाद बचे हुए समाज का हिस्सा) यदि नष्ट न भी हुआ तो पराजित जरूर हो जाएगा। आर्थिक मानवविज्ञानी कार्ल पोलानी ने 1944 में अपनी पुस्तक ‘द ग्रेट ट्रांसफॉर्मेशन’ में भविष्यवाणी की थी कि बाजार की विजय अंतत: ‘समाज के सार का विनाश’ करेगी। अब वर्चुअल दुनिया का तेजी से बढ़ता प्रभाव और अमीर देशों में परिवारों व समुदायों की टूटन इसके ठोस सबूत हैं।
सोचने का वक्त है, आखिर क्यों मानव अस्तित्व गंभीर पारिस्थितिक संकट की ओर बढ़ रहा है, सीमित संसाधन समाप्त हो रहे हैं? आज हवा तो स्वच्छ है ही नहीं, जलवायु परिवर्तन या परमाणु हथियारों का डर भी सताता रहता है। ऐसे गंभीर हालात के दौर में जीडीपी को खुशी और कल्याण का मापदंड कैसे माना जा सकता है? संभवत: यह एक ऐसी ‘स्मार्ट दुनिया’ की अनिवार्य परिणिति है, जो केवल ‘स्मार्ट लोगों’ के बीच प्रतिस्पर्धा को ही महत्त्व देती है।
(द बिलियन प्रेस)