औरंगजेब के शासन काल में वृहतर समाज पर अत्याचारों व जबरन धर्मातंरण की पराकाष्ठा होने लगी। उसने मथुरा, काशी, गुजरात, उडीसा, बंगाल, राजस्थान, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश आदि में मंदिरों को तुडवाना व बहुसंख्यक समाज पर अतिरिक्त कर (जजिया) लगा दिया। उसने अपने अधिकारियों को हुक्म दिया कि उनके माथे से तिलक मिटा दिये जाये और उनके जनेऊ उतारकर जबरन धर्मान्तरण कर दिया जाये। ऐसी परिस्थितियों में 500 कश्मीरी पंडितों का जत्था गुरू तेग बहादुर जी के पास आनन्दपुर साहिब पंजाब पहुँचा व शासक के जुल्म से बचाने का आग्रह किया। तब गुरू जी ने उस दल से कहा कि जाओ और बादशाह के सिपहसलारों से कहो कि पहले गुरू तेग बहादुर को धर्मान्तरण कबूल करने के लिये मनायें फिर हम सब मुस्लिम धर्म कबूल कर लेंगे। गुरू जी निर्दोष व मासूम लोगों को निष्ठुरता व जुल्म से बचाने के लिये अपने शिष्य भाई मतीदास, सतीदास और भाई दयाला जी के साथ आनन्दपुर साहिब छोड पटियाला, धमतान, जींद, रोहतक, आगरा के रास्ते दिल्ली के लिये रवाना हो गये।
औरंगजेब दिल्ली से बाहर गया हुआ था। उसके वजीरों ने गुरू जी को बादशाह के हुक्म अनुसार इस्लाम धर्म कबूल करने के लिये कहा। 12 मार्गशीर्ष 1732 तद्नुसार वर्तमान 6 दिसम्बर का दिन था। जब हर कोशिश के बावजूद गुरूजी नहीं माने तो उन्हें डराने व झुकाने के लिये भाई मतीदास जी को लकड़ी के घेरे में खड़ा कर एक बड़े आरे से चिरवाया गया। भाई दयाला जी को उबलते पानी की देग में डाल दिया गया। फिर सतीदास जी को रूई में लपेटकर आग लगा दी गयी।
बादशाह के आदेश से गुरू जी को तंग पिंजरे में कैद कर दिया गया व उनके सामने तीन शर्तें रखी गयी। पहली कोई करामात करिश्मा दिखाइये या दूसरी इस्लाम कबूल कीजिये या फिर मृत्यु के लिये तैयार हो जाइये। गुरू जी के इन शर्ताें को मानने से इंकार करने पर शाही फरमान आया कि चांदनी चौक में लोगों के सामने इन्हें मार डाला जाये। 1675 में आज ही के दिन गुरू जी ने प्रातःकाल स्नान किया व जपुजी साहब का पाठ किया। बड़ी संख्या में लोगों की भीड़ एकत्रित हो गयी। आसमान पर बादल और काली घटायें छायी हुई थी, तेज हवायें चल रही थी, जल्लाद आया और तलवार से गुरू जी का सिर धड़ से अलग कर दिया गया।
गुरूजी के शहीद होते ही हाहाकार मच गया ’’यह तो जुल्म है इतने बड़े संत का क्यों कत्ल कर दिया गया है, यह शासन अब ज्यादा चलने वाला नहीं’’। प्रकृति ने ऐसा रूप धारण किया कि आंधी तूफान के कारण मुगल सिपाहियों को कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। चारों ओर भगदड़ मच गयी। इस भागदौड़ में गुरू जी का एक श्रद्धालु ’’भाई जैता’’ आगे बढे, फुर्ती से गुरू जी का सीस उठाया, श्रद्धा से अपने कपड़ों में लपेट लिया और अपने दो साथियों ’’भाई नानू’’ और ’’भाई ऊद्धा को साथ लिया तथा छिपते-छिपाते पाँच दिन की यात्रा पश्चयात कीरतपुर ’’पंजाब’’ जा पहुंचे। जैता जी ने बोझिल मन से गुरू जी के सीस को उनके सुपुत्र गोविन्द राय जी के आगे रखा। गोविन्द राय जी ने भाई जैता जी के साहसिक कार्य को सरहाते हुये कहा ’’रंगरेटे गुरू के बेटे’’। भाई जैता जी एक पिछड़ी जाति ’रंगरेटा’ समाज के थे।
गुरू तेग बहादुर जी के सीस का बड़े सत्कार के साथ आनन्दपुर साहिब में संस्कार किया गया जहां पर वर्तमान में बहुत ही सुन्दर गुरूद्वारा सुशोभित है। उधर दिल्ली में गुरू जी के एक और श्रद्धालु षिष्य ’’ लखी शाह बंजारा ’’ व उसका बेटा ’’ नगाहिया’’, रूई और दूसरे सामान की कई बैलगाडियां लेकर चांदनी चैक पहुँचें और भीड़ को चीरते हुये आगे आये, बड़ी फुर्ती से गुरू जी के धड़ को उठाया, रूई के ढेर में छिपाया तथा गाडियों को हाॅक कर अपनी बस्ती रायसीना ले गये। इस दृष्य को उस वक्त के एक गायक केसौ भट्ट ने इस तरह वर्णन किया हैः
चलो चलाई हो रही, गड़ गड़ बरसे मेघ लखी नगाहिया ले गये, तू खड़ा तमाषा देख दूसरी तरफ मुगल सिपाही परेशान थे कि गुरू जी का सीस और धड़ कहां गायब हो गया। लखी शाह गुरू जी के धड़ को सत्कार से अपने घर जो वर्तमान रायसीना हिल पर स्थित था, ले गया और अंतिम संस्कार के लिये अरदास ’प्रार्थना’ के पश्चात उसने अपने घर को ही आग लगा दी। मुगल फौज और लोगों ने यही समझा कि लखी शाह के घर को ही आग लग गयी है।
इस तरह ईश्वर ने ’’भाई जैता’’ और ’’भाई लखी शाह’’ के साहसिक कार्य द्वारा गुरू जी के शरीर का अपमान होने से बचा लिया। जहाँ लखी शाह ने अपने घर को आग लगाकर गुरू जी के धड़ का अंतिम संस्कार किया था वहाॅ अब गुरूद्वारा रकाबगंज सुसोभित है जो राष्ट्रपति भवन, संसद भवन और केन्द्रिय सचिवालय के समीप स्थित है।
जिस तरह चादर हमें सर्दी गर्मी से बचाती है व हमारी रक्षा करती है उसी तरह गुरू तेग बहादुर जी ने हिन्दु धर्म, तिलक, जनेऊ व हिन्दुस्तान की रक्षा की इसलिये उन्हें ’’ हिन्द की चादर ’’ कहा जाता है।
निस्संदेह गुरू तेग बहादुर के धार्मिक स्वाधीनता के लिये दिये गये बलिदान ने औरंगजेब की धार्मिक नीति के विरूद्ध प्रतिरोध को और अधिक मजबूत किया और साथ ही साथ विकासशील सिख समाज के विकास को चरम सीमा की ओर अग्रसर किया। सनातन धर्म को मानने वाले इस बलिदान को अपने धर्म के लिये किया गया बलिदान मानने लगे और सम्पूर्ण पंजाब एवं उत्तर भारत में एक ज्वाला सी धधक उठी। सन् 1666 में जन्में गुरू गोविन्द सिंह जी ने 1675 में अपने पिता के हुये इस बलिदान का समाचार जब आनन्दपुर साहिब में सुना तो उन्होंने अनुभव किया कि सिख पंथ को मानने वालों ने बेशक बलिदान देकर मानवता के कोमल गुणों यथा विनम्रता, प्रेम, अहिंसा के पालन का एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है परन्तु अब समय आ गया है जब एक कुशल कारीगर की समय पर लगाई गयी हथौड़े की चोट के भांति समाज को मानवता के इन्हीं गुणों की सुरक्षा करने के लिये नये मोड़ पर ले जाया जाये।
गुरू जी की शहादत ने मुगल साम्राज्य की नींव हिला दी जो अन्ततोगत्वा उसके पतन का प्रमुख कारण बनी। कालान्तर में 1783 में तीस हजार सिख सिपाहियों की फौज वर्तमान में तीस हजारी कोर्ट जिसका नाम इसी वजह से यह पड़ा, के स्थान से रवाना हुई व सरदार बघेल सिंह, सरदार जस्सा सिंह आहुलवालिया के नेतृत्व में मुगल फौज को हराकर दिल्ली के लाल किले पर केसरिया खालसा ध्वज फहराया।
लेखक- जसबीर सिंह पूर्व अध्यक्ष राजस्थान अल्पसंख्यक आयोग व राष्ट्रीय महामंत्री राष्ट्रीय जागरण सुरक्षा मंच