‘दुर्भाग्य से हमारे देश में पति के पास पत्नी के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम जैसा कानून नहीं है,’ मद्रास हाई कोर्ट ने घरेलू हिंसा से जुड़े एक मामले में हालिया यह टिप्पणी दी थी। क्या पुरुष घरेलू हिंसा का शिकार हो सकते हैं? बहुत से लोगों के लिए यह विचार ही अविश्वसनीय है और ऐसा होना स्वाभाविक भी है क्योंकि पितृसत्तात्मक व्यवस्था में पुरुष की छवि कठोर और आक्रामक होती है, पर क्या यह अधूरा सत्य नहीं है।
पूर्वाग्रहों से ग्रसित समाज सदैव स्त्री के साथ कोमलता, समर्पण और त्याग के भाव जोड़कर देखता है लेकिन मात्र शारीरिक भेद, भावनाओं और व्यक्तित्व विभेद का आधार कैसे हो सकता है? जे. लार्बर ने ‘द सोशल कंस्ट्रक्शन ऑफ जेंडर’ मैं लैंगिक विभेद और पूर्वाग्रहों की व्याख्या करते हुए लिखा, ‘पूर्वाग्रह एक ऐसे व्यवहार का स्वरूप है जो समाज के किसी एक वर्ग के लिए आक्रामक होता है।’ जेंडर के प्रति विभिन्न रूढिय़ों और जेंडर आधारित भेदभाव किसी भी समाज के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। समस्या का मूल कारण पुरुषों के प्रति बरते जाने वाला वह कठोर भाव है जो सदैव उन्हें शोषणकर्ता के रूप में देखता है।
इसमें किंचित संदेह नहीं कि दुनिया भर में महिलाएं जीवन के हर स्तर पर संघर्ष कर रही हैं और अधिकाधिक संख्या में घरेलू हिंसा का शिकार भी हो रही हैं परंतु इसका यह तात्पर्य भी तो नहीं होना चाहिए कि सिर्फ वे ही इस पीड़ा को भोग रही हैं। आज तक कोई भी अध्ययन इस तथ्य की पुष्टि नहीं कर पाया है कि पुरुष और स्त्री का शारीरिक भेद उनके भीतर पनप रही भावनाओं में भी अंतर करता है। वास्तविकता तो यह है कि ईष्र्या, द्वेष, घृणा, प्रेम जैसे मानवीय मनोभाव स्त्री और पुरुष में समान रूप से प्रवाहित होते हैं तो सिर्फ पुरुष ही शोषणकर्ता कैसे हो सकता है? भारतीय संविधान की मूल प्रस्थापना जिस आधारभूमि पर खड़ी है वह लिंग, जाति और धर्म के आधार पर किसी भी प्रकार का विभेद स्वीकार नहीं करती, फिर क्यों घरेलू हिंसा से सुरक्षा अधिनियम पुरुष को सुरक्षा नहीं देता?
विकसित देशों में लिंगनिरपेक्ष कानून वहां के पुरुषों को न केवल महिलाओं की तरह घरेलू हिंसा से संरक्षण देता है, बल्कि यह भी स्वीकारता है कि पुरुष प्रताडि़त होते हैं। इस स्वीकारोक्ति के चलते वहां निरंतर इस विषय पर शोध होते आए हैं। ‘पुरुष घरेलू हिंसा के शिकार नहीं हो सकते’ इस अवधारणा पर जोर देने वाले अमूमन तर्क देते हैं कि पुरुष स्त्री से शारीरिक रूप से बलिष्ठ होते हैं तो कैसे उन पर महिलाएं आघात कर सकतीं हैं? ‘व्हेन वाइफ बीट देयर हसबैंड नो वन वांट्स टु बिलीव इट’ शीर्षक से प्रकाशित लेख में कैथी यंग ने चर्चा करते हुए 200 से अधिक अध्ययनों का जिक्रकिया जिसमें पुष्टि हो चुकी है कि ‘हिंसक संबंधों में महिलाओं के आक्रामक होने की संभावना पुरुषों के समान है।’
उंगलियों पर गिने जाने वाले कुछ शोधों में से एक ‘इंडियन जनरल ऑफ कम्युनिटी मेडिसिन’ में 2019 में प्रकाशित शोध उद्घाटित करता है कि हरियाणा के ग्रामीण क्षेत्रों में 21-49 वर्ष की आयु के 1000 विवाहित पुरुषों में से 52.4 प्रतिशत ने जेंडर आधारित हिंसा का अनुभव किया। अब क्या यह समय नहीं आ गया कि लैंगिक समानता के वास्तविक अर्थ को भारत की न्याय व्यवस्था स्थापित करे क्योंकि एक वर्ग के अधिकारों का संरक्षण दूसरों के अधिकारों का हनन कदापि नहीं होना चाहिए। भारत कभी भी हिंसा के किसी रूप का समर्थन नहीं करता, चाहे वह घर में हो या समाज में। चौरा चौरी में भारतीयों ने जब क्रुद्ध होकर अंग्रेजों पर हिंसक हमला किया तो गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था और उसके पीछे मकसद यह आदर्श स्थापित करना था कि सभी के जीवन और सम्मान की सुरक्षा भारत की संस्कृति है, तो हमारी न्याय प्रणाली उस आदर्श को विस्मृत कैसे कर सकती है?