सृष्टि में तीन पुरुष हैं-अव्यय पुरुष, अक्षर पुरुष और क्षर पुरुष। क्षर पुरुष वर्तमान है, तब अक्षर पुरुष भविष्य का निर्माता है। अव्यय पुरुष मूल में भूतकाल है। प्रतिसृष्टि क्रम में अक्षर पुरुष की भविष्य दृष्टि अव्यय पुरुष की ओर मुड़ जाती है। वर्तमान अन्तर्मुखी हो जाता है। यह प्रकृति का स्वरूप भी है। अव्यय पुरुष सत्य है, अक्षर कर्तारूप रजस् है तथा क्षर पुरुष तमलोक है।
हमारे अध्यात्म में भी तीन शरीर रहते हैं। ये तीनों ही हमारा भूत-भविष्य-वर्तमान हैं। स्थूल शरीर और इन्द्रियां वर्तमान हैं और आधिभौतिक विश्व से जुड़ी रहती हैं। अविद्या के आधार पर कार्य चलता है-बाहरी विस्तार क्रम होता है। हमारा कारण शरीर हमारा भूतकाल है। इसमें हमारे जन्म-जन्मान्तरों के कर्मों का संग्रह रहता है।
इस जन्म में कौन से कर्म प्रारब्ध बनेंगे, यह ज्ञान कारण शरीर में रहता है। मूल में यही हमारा आत्मा कहलाता है। यह शरीर के साथ नष्ट नहीं होता, बल्कि सूक्ष्म शरीर के साथ अन्यत्र चला जाता है। पुन: नए शरीर को प्राप्त करके उसकी भावी यात्रा तय करता है। भविष्य तय करता है।
हमारे अध्यात्म में भी तीन शरीर रहते हैं। ये तीनों ही हमारा भूत-भविष्य-वर्तमान हैं। स्थूल शरीर और इन्द्रियां वर्तमान हैं और आधिभौतिक विश्व से जुड़ी रहती हैं। अविद्या के आधार पर कार्य चलता है-बाहरी विस्तार क्रम होता है। हमारा कारण शरीर हमारा भूतकाल है। इसमें हमारे जन्म-जन्मान्तरों के कर्मों का संग्रह रहता है।
इस जन्म में कौन से कर्म प्रारब्ध बनेंगे, यह ज्ञान कारण शरीर में रहता है। मूल में यही हमारा आत्मा कहलाता है। यह शरीर के साथ नष्ट नहीं होता, बल्कि सूक्ष्म शरीर के साथ अन्यत्र चला जाता है। पुन: नए शरीर को प्राप्त करके उसकी भावी यात्रा तय करता है। भविष्य तय करता है।
अक्षर पुरुष या प्राण शरीर आधिदैविक स्वरूप होता है। यह अव्यय और क्षर के मध्य का सेतु होता है। गतिमान तत्त्व-रजस् है। स्थूल और कारण शरीर में गति नहीं है। जैसे ऋक् और साम गतिशून्य हैं। यजु: ही गति तत्त्व है-पुरुष है और सृष्टि का नियन्ता है। सृष्टि में यह एक ही पुरुष है। अत: सृष्टि पुरुष प्रधान कहलाती है।
प्राण को ही देवता कहा जाता है। अक्षर पुरुष में ही हमारा हृदय होता है। ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र प्राण मिलकर ही हृदय का स्वरूप बनते हैं। यही क्षर शरीर का नियंत्रण करते हैं। शरीर (स्थूल) में कर्ता भाव नहीं होता। स्थूल शरीर तो पंचभूत का निर्माण है। अत: जड़ ही है। हृदय केन्द्र में स्थित पुरुष के मन में जो इच्छा पैदा होती है, उसे पूरी करने का निर्णय ही स्थूल शरीर की क्रियाओं का आधार होता है। इस इच्छा को ही पुरुष की माया कहा जाता है।
इच्छा के बिना कर्म नहीं होता। ज्ञान के बिना इच्छा पैदा नहीं होती। यहां ज्ञान ब्रह्म है, इच्छा माया है। इच्छापूर्ति की क्रिया का आधार हृदय के तीनों प्राण और उनकी शक्तियां बनती हैं। इनकी शक्तियां ही महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली रूप हैं। ये ही प्रकृति (त्रिगुण) की सत्व-रज-तम रूप अभिव्यक्तियां होती हैं। इनका समरूप ही प्रलय अवस्था है। इस प्रकार अक्षर या प्राण शरीर ही गतिविधियों का कारण बनता है। वही कर्म का स्वरूप तय करता है और कर्म को दिशा भी देता है।
प्राण को ही देवता कहा जाता है। अक्षर पुरुष में ही हमारा हृदय होता है। ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र प्राण मिलकर ही हृदय का स्वरूप बनते हैं। यही क्षर शरीर का नियंत्रण करते हैं। शरीर (स्थूल) में कर्ता भाव नहीं होता। स्थूल शरीर तो पंचभूत का निर्माण है। अत: जड़ ही है। हृदय केन्द्र में स्थित पुरुष के मन में जो इच्छा पैदा होती है, उसे पूरी करने का निर्णय ही स्थूल शरीर की क्रियाओं का आधार होता है। इस इच्छा को ही पुरुष की माया कहा जाता है।
इच्छा के बिना कर्म नहीं होता। ज्ञान के बिना इच्छा पैदा नहीं होती। यहां ज्ञान ब्रह्म है, इच्छा माया है। इच्छापूर्ति की क्रिया का आधार हृदय के तीनों प्राण और उनकी शक्तियां बनती हैं। इनकी शक्तियां ही महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली रूप हैं। ये ही प्रकृति (त्रिगुण) की सत्व-रज-तम रूप अभिव्यक्तियां होती हैं। इनका समरूप ही प्रलय अवस्था है। इस प्रकार अक्षर या प्राण शरीर ही गतिविधियों का कारण बनता है। वही कर्म का स्वरूप तय करता है और कर्म को दिशा भी देता है।
यहां एक और सिद्धान्त काम करता है जो हमारे ध्यान में रहना चाहिए। इच्छा मन में ही उठती है। जब पुरुष एक ही है, तो मन भी एक ही है। यदि सम्पूर्ण सृष्टि में पुरुष (ईश्वर) एक ही है, तब सम्पूर्ण सृष्टि के मूल में मन भी एक ही है। उसी को निश्चित रूप से अव्यय मन ही कहा जाएगा।
आपके-हमारे, सभी जड़-चेतन सृष्टि के केन्द्र में यही मन है। इसीलिए तो हम एक-दूसरे को देखकर प्रतिक्रिया कर देते हैं-बिना बोले ही। हमारा मन पहचानता है एक-दूसरे को, पिछले जन्मों से। यह सम्बन्ध और पहचान कारण शरीर मेे संग्रहित रहते है। वे ही हमको भूतकाल से भविष्य की ओर ले जाती है।
शरीरों के अनुसार हमारे मन के स्वरूप भी तीन तरह के हो जाते हैं। कारण (अव्यय) शरीर का मन श्वोवसीयस मन कहलाता है। अक्षर सृष्टि (शरीर) का महन्मन/अतीन्द्रिय मन कहलाता है। स्थूल शरीर में इन्द्रियों के साथ बाहर जाने वाला इन्द्रियमन तथा बाहर से ज्ञान लेकर बुद्धि तक पहुंचाने वाला हमारा सर्वेन्द्रिय मन है। इन्द्रिय मन इच्छा के साथ बाहर जाता है। सर्वेन्द्रिय मन जानकारियों से तुष्टि करता है। यही वर्तमान तृष्णा रूप में इच्छाओं की पुनरावृत्ति कराता है। भविष्य का निर्माण करता है। ये सभी मन, मूल मन के प्रतिबिम्ब मात्र हैं।
यह भी पढ़े – शरीर ही ब्रह्माण्ड: हर कर्म की व्याप्ति त्रिकाल में
आपके-हमारे, सभी जड़-चेतन सृष्टि के केन्द्र में यही मन है। इसीलिए तो हम एक-दूसरे को देखकर प्रतिक्रिया कर देते हैं-बिना बोले ही। हमारा मन पहचानता है एक-दूसरे को, पिछले जन्मों से। यह सम्बन्ध और पहचान कारण शरीर मेे संग्रहित रहते है। वे ही हमको भूतकाल से भविष्य की ओर ले जाती है।
शरीरों के अनुसार हमारे मन के स्वरूप भी तीन तरह के हो जाते हैं। कारण (अव्यय) शरीर का मन श्वोवसीयस मन कहलाता है। अक्षर सृष्टि (शरीर) का महन्मन/अतीन्द्रिय मन कहलाता है। स्थूल शरीर में इन्द्रियों के साथ बाहर जाने वाला इन्द्रियमन तथा बाहर से ज्ञान लेकर बुद्धि तक पहुंचाने वाला हमारा सर्वेन्द्रिय मन है। इन्द्रिय मन इच्छा के साथ बाहर जाता है। सर्वेन्द्रिय मन जानकारियों से तुष्टि करता है। यही वर्तमान तृष्णा रूप में इच्छाओं की पुनरावृत्ति कराता है। भविष्य का निर्माण करता है। ये सभी मन, मूल मन के प्रतिबिम्ब मात्र हैं।
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मूल मन की इच्छा कारण शरीर से उठती है, पिछले कर्मों के फलों के आधार पर उठती है। कोई प्राणी इस इच्छा को दबा नहीं सकता। ये इच्छाएं सभी 84 लाख योनियों को भोग योनियों की संज्ञा देती हैं। मानव मन में ही उठने वाली जीव इच्छा कर्मरूप में योग द्वारा, निष्काम कर्मयोग अथवा वैराग्य बुद्धियोग के साधन से मुक्ति का मार्ग भी ले सकती है।
जीवन वर्तमान है। एक ओर ईश्वरीय इच्छा से भविष्य की ओर बढ़ता है। वहीं दूसरी ओर माया के जाल में जीव का मन भ्रमित होता है। यह भ्रमित मन नई-नई आधिभौतिक इच्छाओं का नित नया जाल बुनता रहता है। प्राकृतिक/प्रारब्ध कर्मों का भान भी नहीं रहता। इन्हीं कर्मों के फल-त्रिगुण के प्रभाव से चौरासी लाख योनियों में घुमाते हैं।
ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।। (गीता 18.61)
अर्थात्- शरीर रूप यंत्र में आरुढ़ हुए सभी प्राणियों को ईश्वर अपनी माया से भ्रमण कराता हुआ सबके हृदय में
स्थित है।
यह भी पढ़े – शरीर ही ब्रह्माण्ड : सूर्य जैसा हो यज्ञ-तप-दान
जीवन वर्तमान है। एक ओर ईश्वरीय इच्छा से भविष्य की ओर बढ़ता है। वहीं दूसरी ओर माया के जाल में जीव का मन भ्रमित होता है। यह भ्रमित मन नई-नई आधिभौतिक इच्छाओं का नित नया जाल बुनता रहता है। प्राकृतिक/प्रारब्ध कर्मों का भान भी नहीं रहता। इन्हीं कर्मों के फल-त्रिगुण के प्रभाव से चौरासी लाख योनियों में घुमाते हैं।
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भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।। (गीता 18.61)
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महाभारत के युद्ध में जब भीष्म शरशैय्या पर थे तब उन्होंने कृष्ण से पूछा-हे केशव! मुझे याद नहीं कि मैंने कभी कोई पाप किया है। तब मुझे किस लिए यह शैय्या मिली। प्रत्युत्तर में कृष्ण ने कहा कि यह आपके पूर्वजन्म के पाप का फल है जिसमें आपने करकैंटा जीव को बेर की झाड़ी में डाल दिया था जिससे उसका शरीर कांटों से बिन्ध गया था। उसी के परिणामस्वरूप यह बाण शैय्या आपको मिली है।
इतने जन्मों तक इसका फल नहीं भोगना पड़ा क्योंकि आप धर्म के मार्ग पर चल रहे थे किन्तु द्यूतसभा में द्रोपदी के अपमान के समय आपके मौन रहने के कारण पुण्यों का क्षरण हो जाने पर यह भूतकाल का कर्मफल सामने आया है। भीष्म को इच्छामृत्यु का वरदान था, उन्होंने उत्तरायण देहत्याग हेतु सर्वोत्तम काल माना।
यहां भीष्म के इस घटनाक्रम को हम भूत, वर्तमान तथा भविष्य तीनों कालों के संदर्भ में देख सकते हैं। करकैंटा की घटना भीष्म का भूतकाल है, वहां किए गए जिस कर्म का फल शरशैय्या पर भोगना पड़ रहा है वह उनका वर्तमान है तथा इच्छा से उत्तरायण में शुक्लगमन चुनना उनका भविष्य है।
निष्कर्ष यह निकला कि हम सभी प्राणी त्रिकाल रूप में ही जीते हैं। सृष्टि चक्र की तरह हमारा शरीर भी त्रिकाल के सिद्धान्त पर तीनों शरीरों के साथ जीता रहता है। हम केन्द्र में सभी ब्रह्म हैं, किन्तु स्वयं अपनी ही माया को समझने में असमर्थ होते हैं। प्रकृति ने तो लय-प्रलय दोनों हमारे हाथ में देकर ही ब्रह्म रूप में – स्थूल देह में प्रकट किया है। क्रमश:
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इतने जन्मों तक इसका फल नहीं भोगना पड़ा क्योंकि आप धर्म के मार्ग पर चल रहे थे किन्तु द्यूतसभा में द्रोपदी के अपमान के समय आपके मौन रहने के कारण पुण्यों का क्षरण हो जाने पर यह भूतकाल का कर्मफल सामने आया है। भीष्म को इच्छामृत्यु का वरदान था, उन्होंने उत्तरायण देहत्याग हेतु सर्वोत्तम काल माना।
यहां भीष्म के इस घटनाक्रम को हम भूत, वर्तमान तथा भविष्य तीनों कालों के संदर्भ में देख सकते हैं। करकैंटा की घटना भीष्म का भूतकाल है, वहां किए गए जिस कर्म का फल शरशैय्या पर भोगना पड़ रहा है वह उनका वर्तमान है तथा इच्छा से उत्तरायण में शुक्लगमन चुनना उनका भविष्य है।
निष्कर्ष यह निकला कि हम सभी प्राणी त्रिकाल रूप में ही जीते हैं। सृष्टि चक्र की तरह हमारा शरीर भी त्रिकाल के सिद्धान्त पर तीनों शरीरों के साथ जीता रहता है। हम केन्द्र में सभी ब्रह्म हैं, किन्तु स्वयं अपनी ही माया को समझने में असमर्थ होते हैं। प्रकृति ने तो लय-प्रलय दोनों हमारे हाथ में देकर ही ब्रह्म रूप में – स्थूल देह में प्रकट किया है। क्रमश:
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