गीता जैसे ग्रन्थ पढऩे पर लगता है कि जीवन में और भी बहुत कुछ है जानने को, चिन्तन करने को, पाने को। साथ ही प्रकृति का एक नियम यह भी है कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। जगत में सब पाना चाहते हैं, खोना कोई नहीं चाहता। पाना आकर्षण का क्षेत्र है, खोना विकर्षण का। पाना लोभ है, मोह है, तृष्णा है, बन्धन है। यहां तक कि पाने के लिए किया गया कर्म भी निषेध है। कृष्ण ने ‘मा फलेषु कदाचन ‘ कहा है। संग्रह को परिग्रह कहा है सभी धर्मों ने। अपरिग्रह को धर्मरूप बताया है। गीता परिग्रह के स्वरूप के साथ-साथ उसके त्याग की बात भी करती है। तीस जगह त्याग शब्द आया है गीता में। इससे इस शब्द की महत्ता का अनुमान होता है।
त्याग और ग्रहण के स्वरूप भी भिन्न-भिन्न होते हैं। एक तो स्वेच्छा से ग्रहण या त्याग होता है। किसी उद्देश्य का कामना के आधार पर भी ग्रहण या त्याग होता है। भय भी एक बड़ा कारण है। त्याग के बदले कुछ पाना भी कारण हो सकता है। झूठी प्रतिष्ठा व दिखावा भी त्याग को प्रेरित करते हैं। त्याग वस्तु का, आचरण के कुछ अवांछनीय अंशों का, समय का, सेवा रूप, ज्ञानरूप, आत्मा के अंश दान (कन्यादान) आदि कई रूपों में हो सकता है।
गीता के त्याग के स्वरूप एवं मन्तव्य को भी समझ लेना चाहिए। कृष्ण कहते हैं-
तुम योग में प्रतिष्ठित होकर, आसक्ति (संग) त्यागकर कर्म करो। समत्व ही योग का स्वरूप है। (2 /47 )। कर्मफल त्याग कर तृप्त करने वाला पुरुष कर्म में प्रवृत्त रहता हुआ भी कुछ नहीं करता। (4 /20 )। अनासक्त कर्म करने वाला कर्म की तरह निर्लेप रहता है। (5 /10 ) समस्त कामनाओं को त्याग करके मन से इन्द्रियों का संयम करना चाहिए। (6 /24 ) ध्यान से कर्मफल त्याग श्रेष्ठ है। इसी से शान्ति-मोक्ष प्राप्त होता है। (12 /12 ) काम-क्रोध-लोभ नरक के द्वार हैं। तीनों का त्याग कर देना चाहिए। (16 /21 ) काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास माना है, सर्वकर्मत्याग ही त्याग है। (18 /1 ) त्याग भी सात्विक-राजस-तामस तीन प्रकार का होता है। (18 /4 ) प्रकृति द्वारा नियत, स्वरूप रक्षक, प्राकृतिक कर्तव्यकर्म का त्याग असंभव है। (18 /6 ) कर्तव्य भावना से, आसक्ति-फलकामना का परित्याग करता हुआ जो मनुष्य नियत कर्म में प्रवृत्त रहता है, यह सात्विक त्याग है। (18 /9 )। इसका फल यह होता है कि त्यागी के लिए न तो अकुशल कर्म द्वेष का कारण बनता है, न ही कुशल कर्म राग का कारण बनता है। देहधारी के लिए सर्वकर्म परित्याग असंभव है। अत: त्यागी वही है जिसने कर्मफलों का परित्याग कर दिया है। (18 /11 )। अनासक्ति रूप वैराग्य को आधार बना, अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध पर परिग्रह का त्यागकर ममत्व से बचा रह। ऐसा करता हुआ निश्चयेन तू परमपद प्राप्त कर लेगा। (18 /30 -33 )
गीता में त्याग शब्द सर्वत्र काम-आसक्ति-फल के परित्याग के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। इसी का नाम वैराग्य बुद्धि योग दिया है। यही पुरुष का प्रधान पुरुषार्थ है। ज्ञानयोग भी त्याग प्रधान है। वैराग्य योग भी त्याग प्रधान है। ज्ञानी कर्मत्याग को त्याग कहते हैं। बैरागी आसक्ति त्याग को त्याग कहते हैं। कर्म और भक्ति में कर्म का अनुशय* तारतम्य से आत्मा पर आसक्त रहता है। अत: कर्मानुगत कर्म और भक्ति कभी मुक्ति का कारण नहीं बन सकते। ‘त्यागेनैकेऽमृतत्त्वमानशु:’ कर्मात्मक कर्म-भक्ति योग की पूर्ण निवृत्ति ही विशुद्ध ज्ञानोदय का कारण बन सकती है। सर्वविध कर्मत्याग से विकसित होने वाला ज्ञान ही मुक्ति का प्रवर्तक होता है।
मुक्ति आत्मा की होती है, शरीर की नहीं। शरीर तो आयु पूर्ण करके पंचतत्व में लीन हो जाता है। आत्मा शेष रहता है। माया के अनेक बन्धनों में बंधा रहता है। इसी की मुक्ति के लिए तो वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम की व्यवस्था की है। त्याग की पाठशाला भी यही है, अभ्यास भी यहीं है और मुक्त होकर शान्ति में प्रतिष्ठित भी यही होता है। उपरोक्त त्याग की परिभाषाओं में कर्म-फल और अनासक्ति भाव को प्रधानता दी गई है। त्याग का आध्यात्मिक स्वरूप क्या है, आत्मा के बंधन कैसे मुक्त होते हैं तथा नए कर्मों के प्रति दृष्टिकोण को कैसे आत्म-केन्द्रित करें?
त्याग मूलरूप से आत्मा का ही विषय है। अभ्यास की दृष्टि से दर्शन का स्वरूप प्रत्यक्ष किया है। आत्मा कहां बसता है? कुछ व्यक्ति परिवार को भी आत्मा कह देते हैं। जबकि शास्त्र कहते हैं कि ‘यावद् वित्तं तावद् आत्मा’ -वित्त कहते हैं सम्पत्ति को, यश को। सम्पत्ति का त्याग कठिनता से होता है। आपसे कोई अनजान व्यक्ति आर्थिक सहायता मांगने आता है, आपके मन में कितने प्रश्न उठेंगे? क्या आप उसकी बात को सत्य मान लेंगे अथवा प्रमाण मांगेंगे? अथवा देने से ही मना कर देंगे? यहां कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न भी उठते हैं, जैसे उसको आपके पास किसने भेजा और क्यों? आपके पास धन भेजा, आपकी आवश्यकता से भी अधिक भेजा, क्यों? क्या अर्जन (आय) के साथ वृत्ति (बांटना) नहीं जुड़ी रहती? क्या आपको और उस व्यक्ति को अलग-अलग ईश्वर ने बनाया है? क्या इस धन का स्वामी भी वही ईश्वर नहीं है? क्या आप दोनों का आत्मा भिन्न है? इतने परिश्रम से कमाया धन इसे क्यों दूं? और भी कई प्रश्न उठेंगे मन में।
एक क्षण के लिए आप यह भी सोचें कि आप उसे मदद दे रहे हैं। उसके चेहरे पर मुस्कान झलकने लगी। इसमें कहीं आपको अपनी छवि दिखाई पड़ेगी। क्यों? जो दिया वह आपके ही आत्मा का अंश था। उस पर आपका अधिकार था। आपने अपना अधिकार हटाकर उसके आत्मा में स्थापित कर दिया । अब इस धन पर उसका अधिकार हो गया। आपने अपने आत्मा के एक अंग को उसके आत्मा का अंग बना दिया जो आपके आत्मा में नहीं लौटेगा। अत: त्याग का अर्थ वस्तु अथवा धन का दान नहीं है। दोनों आत्माओं का एक हो जाना है। अब उसका सुख आपका सुख बन गया है। आपके आत्मा का विकास है यह। मूल में सेवा का भी अर्थ यही है। इसी में वसुधैव कुटुम्बकम् की अवधारणा भी अन्तर्निहित है।
शास्त्र हमें सिखाते हैं कि किसी को दु:ख नहीं देना। क्या आपके त्याग से वह दु:ख से मुक्त नहीं होता अथवा नहीं देने से दु:खी नहीं होगा? क्या यह इतनी स्थूल बात है-त्याग करना? कृष्ण को तीस बार बोलना पड़ा। त्याग में लक्ष्य लेने वाले को बनाना चाहिए अथवा करने वाले को? यदि हम दान देने वाले को त्याग के सुख का भागी मानते हैं, तब प्रश्न तो यह होना चाहिए कि यदि मैं त्याग करता हूं तो मुझे क्या मिला। किसी को सुख न देना भी उसे दु:खी कर सकता है। क्या हमें किसी को सुखी करने का प्रयास नहीं करना चाहिए? हम किसी को सुख पहुंचा भी सकते हैं और नहीं भी पहुंचा सकते, किन्तु यह बात सत्य है कि हमें कोई सुख-दु:ख नहीं पहुंचा सकता। सुख मेरे आत्मा से जुड़ा है, अति सूक्ष्म है। मेरे अलावा वहां कोई नहीं पहुंच सकता। अत: मैं चाहूं तो ही सुखी हो सकता हूं, कोई और नहीं कर सकता। चाहे तो भी नहीं पहुंचा सकता। अत: मेरा लक्ष्य सुख देना नहीं, सुख लेना होना चाहिए- त्याग में।
ऐसी स्थिति में लेने वाला आपके चिन्तन से बाहर हो जाएगा। दूसरा पहलू यह भी है कि नहीं देने से वह दु:खी होकर जाएगा, तो आप हिंसक हो जाएंगे। मूल में सुख ही घटकर दु:ख हो जाता है, दु:ख ही घटकर सुख हो जाता है। कभी-कभी सुख भी दु:ख का कारण बन जाता है। अत: हमारा चिन्तन सुख-दु:ख के पूर्वाग्रह से बाहर रहना चाहिए। आत्मा में ही त्याग का आनन्द फलीभूत होता है। स्वयं के लिए स्वयं का किया गया त्याग ही आनन्द का चरम है। स्वयं का विस्तार है।
क्रमश:
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*अनुशय: – दुष्कर्मों का परिणाम या फल जो कि उनके साथ जुड़ा रहता है और पुनर्जन्म से अस्थायी मुक्ति का उपभोग करा के फिर जीव को शरीर में प्रविष्ट कराता है।