इस वायु को एमूष वराह कहा गया है। वायु गर्भ में ही दोनों विरुद्ध तत्त्वों के समन्वय से भूपिण्ड पिण्ड, रूप से परिणत हो रहा है। इस प्रकार तीनों के साम्य से ही पृथ्वी अपने स्वरूप में बनी हुई है। अग्नि तत्त्व की वृद्धि ज्वालामुखी के दृश्य उपस्थित कर सकती है। जलीय परमाणुओं की वृद्धि पृथ्वी को वज्र के समान कठोर बनाकर इसे ऊसर बना सकती है। वायु तत्त्व की वृद्धि इसे खण्ड-खण्ड रूप में परिणत कर सकती है।
इन्हीं तीनों पार्थिव धातुओं से औषधि-वनस्पतियों का निर्माण होता है। खायी हुई औषधियां ही शुक्र रूप में परिणत होते हुए पुरुष का उपादान कारण बनती हैं। इस प्रकार पुरुष शरीर में प्राणात्मक (तत्त्वात्मक) सौर अग्नि धातु ही ‘पित्त’ है। प्राणात्मक चान्द्र सोम धातु ही ‘श्लेष्मा’ (कफ) है। प्राणात्मक वायु ही ‘वात’ है। तीनों धातु प्राणात्मक हैं। ये ही तीनों धातु स्थूल शरीर के प्रतिष्ठापक हैं। साथ ही तीनों एक-दूसरे पर आश्रित हैं। तीनों की साम्यावस्था निरोगता है। विषमता रोग का कारण है।
ये वात-पित्त-श्लेष नामक तीन धातु प्राणवायु-प्राणाग्नि-प्राणसोम रूप से शरीर के धारक हैं। पंचभौतिक स्थूल शरीर अन्नमय कोश है। इस अन्नमय कोश की प्रतिष्ठा प्राणमय कोश माना गया है। रस, असृक्, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र इन सातों धातुओं की समष्टि अन्नमय कोश है। सप्तधातु शरीर के स्थूल धातु हैं। त्रिधातु सूक्ष्मतत्त्व हैं। इन सूक्ष्म धातुओं की (प्राणमयकोश की) प्रतिष्ठा मनोमय कोश है, जिसे हम ‘अन्तरात्मा’ (कर्मात्मा) कह सकते हैं।
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एकमात्र इसी आधार पर आयुर्वेद शास्त्र ने चेतना को शरीर का धातु मान लिया। चेतना युक्त अन्न रसमय शरीर ही आयुर्वेद का चिकित्सक है। कारण शरीर से युक्त स्थूल शरीर ही चिकित्सा के योग्य है। स्थूल शारीरिक चिकित्सा करते हुए प्रत्येक दशा में दोनों संस्थाओं की प्राकृतिक स्थिति को ध्यान में रखना अनिवार्य है। स्थूल शरीर की चिकित्सा आयुर्वेद शास्त्र करता है। यही पहली काय चिकित्सा है। वात-पित्त-कफ ही इस चिकित्सा का मूल है.
सूक्ष्म शरीर दूसरी लक्ष्यभूमि है, इसे ही सत्व भी कहा गया है। सत्व, रज, तम, नामक तीन धातु इस शरीर की मूल प्रतिष्ठा माने गए हैं। सत्व लक्षण सूक्ष्म शरीर को महाभारत में सप्तदश राशि से युक्त माना है। पांच ज्ञानेन्द्रियां वर्ग, पांच कर्मेन्द्रिया वर्ग, पांच प्राण, मन (प्रज्ञान), बुद्धि (विज्ञान) इन 17 कलाओं से युक्त तैजस आत्मा ही सत्त्वात्मा है-‘स सप्तदशकेनापि राशिना युज्यते पुन:।’
सत्त्वात्मा की प्रतिष्ठा सत्व-रज-तम युक्त धातु त्रयी है। इस संस्था की स्वरूप रक्षा तीन धातुओं के साम्य पर ही टिकी है। सत्त्वभाग रजोगुण तथा तमोगुण से नित्य प्रभावित रहता है। सत्त्व ज्ञान प्रधान है, रज क्रिया प्रधान है, तम अर्थ प्रधान है। वात के समान ये भी तीनों अविनाभूत हैं। इन तीनों धातुओं की स्वरूपरक्षा काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य इन छह दोषों के समूह पर आधारित है। रजोगुण से काम, क्रोध, लोभ ये तीनों दोष उत्पन्न होते हैं-
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।।
(गीता ३.३७)।
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कारण शरीर तीसरी लक्ष्य भूमि है। इसे ही आत्मा भी कहा गया है। विद्या, काम, कर्म ये तीन धातु इसकी मूल प्रतिष्ठा माने गए हैं। विद्या अव्यक्त के, कर्म यज्ञ के, काम महान के धातु हैं। विद्या-काममय प्राज्ञ ही कारण शरीर है। काम का साम्य ही इस संस्था की शान्ति का उपाय है। स्थूल-सूक्ष्म-संस्थाओं को अपनी प्रतिष्ठा बनाने वाले दोनों से नित्य युक्त इस कारण शरीर की चिकित्सा दर्शनशास्त्र करता है, यही तीसरी आत्म चिकित्सा है। काम साम्य ही इस चिकित्सा की मूल प्रतिष्ठा है।
आत्मा-सत्त्व-शरीर तीनों का परस्पर उपकार्य-उपकारक सम्बन्ध है। स्थूल शरीर गौण है, सूक्ष्म शरीर प्रधान है, कारण शरीर सर्वप्रधान है। जो कर्म, द्रव्य और भोग आदि सूक्ष्म शरीर का उपकार करते दिखते हैं, किन्तु आत्मा के लिए हानिकारक अर्थात् पतन की ओर ले जाने वाले हैं, वे त्याज्य हैं। इस दृष्टि से शास्त्रों में आत्मा ही प्रधान कहा जाता है।
क्रमश:
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