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शरीर ही ब्रह्माण्ड: मैं ही विराट्

Gulab Kothari Article Sharir hi Brahmand: ऋक्, साम, यत्, जू:, आप:, वायु, सोम, अग्नि, यम, आदित्य, इन दसों की समष्टि का नाम ही विराट् पुरुष है। इस विराट्पुरुष का जन्म त्रयीवेद स्वरूप पुरुष और आप: रूप स्त्री के सम्बन्ध से ही होता है… शरीर ही ब्रह्माण्ड श्रृंखला में इस बार श्रीकृष्ण के ‘विराट्’ स्वरुप के माध्यम से विराट्पुरुष को समझने के लिए पढ़िए पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख –

Feb 05, 2022 / 09:55 am

Gulab Kothari

शरीर ही ब्रह्माण्ड: मैं ही विराट्

Gulab Kothari Article Sharir hi Brahmand: गीता मेे कृष्ण स्वयं को समस्त चराचर जगत् में अन्तर्लीन कहते हैं। ग्यारहवें अध्याय में अर्जुन को अपने विराट स्वरूप का दर्शन कराते हुए कहते हैं-हे पार्थ! मेरे सैकड़ों हजारों स्वरूपों को तुम देखो, वे रूप अनेक प्रकार के दिव्यरूप हैं। उनमें नानावर्ण हैं। अनेक प्रकार की आकृतियां उनमें हैं। आदित्य, वसु, रुद्र, अश्विनीकुमार, मरुत इत्यादि देवताओं को देखो। और हे भारत! बहुत से ऐसे आश्चर्यों को देखो जो कि तुमने आज तक कभी नहीं देखे होंगे। हे गुडाकेश! आज तुम मेरे शरीर में चर और अचर सहित सारे जगत् को देखो और इसके अतिरिक्त भी तुम अपने मन में जो शंका धारण किए हुए हो उसका उत्तर भी देख लो। तुमने ठीक ही कहा, तुम अपने इन्हीं प्राकृतिक नेत्रों से मेरे ऐश्वर्य रूप को देखने में समर्थ न हो सकोगे। मैं तुम्हें दिव्य चक्षु प्रदान करता हूं, उन चक्षुओं से मेरे ईश्वर सम्बन्धी योग को देखो।
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्वरम्।। गीता 11.8
कृष्ण ने चार बार ‘पश्य’ शब्द की आवृत्ति की है। ऐसा मालूम होता है कि वे अपने उस रूप को अर्जुन को दिखाने के लिए पहले से ही तैयार बैठे हैं। उनमें अपना रूप अर्जुन को दिखलाने का बड़ा उत्साह है कि आज हमें मानो सृष्टि में पहली बार विराट् रूप के दर्शन का एक अधिकारी प्राप्त हुआ है। कृष्ण के इस विराट् रूप को देखने की योग्यता पूर्ण जितेन्द्रिय पुरुष में ही संभव है।

ये दृश्य केवल अर्जुन के ही द्वारा पहली बार देखा गया हो-ऐसी बात नहीं है, वस्तुत: सृष्टि में ऐसा दृश्य किसी ने देखा ही नहीं था। आदित्य, वसु, रुद्र और अश्विनीकुमार, ये चारों सृष्टि के निर्माता तथा परिचालक देव प्राण हैं। स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों शरीरों का प्रत्यक्ष जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं में प्राणि मात्र को हुआ करता है, वैसे ही परब्रह्म के भी तीनों शरीर हैं।

यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् तो उनका स्थूल शरीर है। इस स्थूल जगत् के परिचालक तत्त्वदेवता, ऋषि, पितृ आदि प्रतिक्षण अपने नियत कार्य का संचालन करते हैं। वह सृक्ष्म शरीर है। उनके कार्य में थोड़ी-सी भी असावधानी संभव ही नहीं है, क्योंकि स्वयं परब्रह्म प्रतिक्षण उनके कार्यों के निरीक्षक के रूप में सर्वत्र उपस्थित रहता है।
”भीषाऽस्माद्वात: पवते भीषोदेति सूर्य” इत्यादि मंत्रों में उस परब्रह्म के ही भय से सूर्य का उदय और वायु का संचरण बतलाया गया है। अत: परमात्मा का सूक्ष्मशरीर देव, ऋषि, पितृ आदि से युक्त रहता है। सारा ब्रह्माण्ड उसके एकदेश में संस्थित रहता है।

स्थूल जगत् में जिन घटनाओं का अनुभव हमें होता है, सूक्ष्म जगत् में वे घटनाएं उससे बहुत पहले ही घटित हो जाया करती हैं। सूक्ष्मजगत् के अन्वेषक और ज्ञाता स्थूलजगत में घटित होने वाली बातों को पहले ही जान लेते हैं। स्वप्न सूक्ष्म जगत के अंश होते हैं। अनेक बार स्वप्नों में हमें भावी घटनाओं की पूर्व सूचनाएं मिल जाती हैं। यहां भी कृष्ण ने अपने सूक्ष्मरूप से सर्वत्र अवस्थित शरीर ही अर्जुन को दिखाया है।

सबसे पहले संसार के मूलतत्त्व वेद का ही प्रादुर्भाव होता है। वेद के ऋक्, यजु:, साम ये तीन भेद हैं। इन तीनों में ऋक् और साम आयतन हैं, छन्द हैं, एवं यजु: पुरुष है। ऋक् और साम का इन्द्र से सम्बन्ध है, यजु: का विष्णु से सम्बन्ध है।
आगतिरूप विष्णु एवं गतिरूप इन्द्र की समष्टि का नाम ही ‘ब्रह्मा’ है। इस ब्रह्मामय वेद के यजुर्भाग में जो यत् भाग है, वह वायु है, जू भाग आकाश है, इस जूरूप आकाश में यद्रूप वायु के संचार से सबसे पहले पानी ही उत्पन्न होता है। यही ‘अथर्वा’ नाम का चौथा वेद है।

इस अथर्वा के भृगु और अङ्गिरा दो भाग हैं। भृगु भी घन-तरल तथा विरल अवस्था भेद से आप:, वायु, सोम तीन प्रकार का हो जाता है। अङ्गिरा भी इन्हीं तीन अवस्थाओं के कारण अग्नि, यम, आदित्य तीन रूप धारण कर लेता है। इस प्रकार आपोमय, ऋतरूप अथर्वा के ६ स्वरूप हो जाते हैं। जैसा कि श्रुति कहती है-
आपो भृग्वङ्गिरोरूपमापो भृग्वङ्गिरोमयम्।
अन्तरैते त्रयोवेदा भृगूनङ्गिरस: श्रिता:।। (गोपथ)

इस प्रकार चार वेदों के 10 अवयव हो जाते हैं। ऋक्, साम, यत्, जू:, आप:, वायु, सोम, अग्नि, यम, आदित्य, इन दसों की समष्टि का नाम ही विराट् पुरुष है। इस विराट्पुरुष का जन्म त्रयीवेद स्वरूप पुरुष और आप: रूप स्त्री के सम्बन्ध से ही होता है। यजुर्वेद अग्निमय होने से पुरुष है एवं आप: नाम का अथर्ववेद सौम्य होने से स्त्री है। यह आप: ‘षड्ब्रह्म’ है, यजु: ‘द्विब्रह्म’ है।

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इस द्विब्रह्म में षड्ब्रह्म की आहुति होती है। यजु: रूप अग्नि आधार बनता है, आप: रूप सोम आधेय बनता है। स्थिति-गत्यात्मक यानी ‘चलाचल’ यजु: रूपा योनि में ‘मातरिश्वा’ वायु के द्वारा इसी रेतोरूप षड्ब्रह्म की आहुति होती है। इस आहुति से विराट् बनता है। वेदत्रयी एवं अथर्वा की समष्टि ही विराट् है। इसी विराट् से आगे की सम्पूर्ण सृष्टियां होती हैं।

अग्नि में सोम की आहुति होने का नाम ही यज्ञ है। सबसे पहले यही यज्ञ होता है। अत: इस विराड्यज्ञ के लिए ही ‘विराड् वै यज्ञ:’ यह कहा है। इसी से आगे की सम्पूर्ण प्रजाएं उत्पन्न होती हैं। इस यज्ञ में सोम आहूत हो जाता है, अग्नि ही शेष बचता है। यह अग्नि सम्पूर्ण त्रैलोक्य में 10 अवयवों में परिणत होकर ही व्याप्त रहता है। पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्यौ, तीन ही लोक हैं।

तीनों लोकों में पार्थिव अङ्गिराग्नि एवं सौर दिव्य सावित्राग्नि, ये दोनों अग्नि तो सत्य हैं एवं आन्तरिक्ष्य अग्नि ऋत है। पृथ्वी का पिण्ड अग्निमय है। अत: ‘अग्निर्भूस्थान:’ यह कहा जाता है एवं सूर्य अग्निमय है। ये दो अग्नि तो स्थूल हैं। तीसरा है इन दोनों के बीच में रहने वाला आन्तरिक्ष्य अग्नि। यह अग्नि आठ जाति का है। इस प्रकार कुल १० अग्नि हो जाते हैं।

ये ही तीनों दार्शनिक परिभाषा में अपान, व्यान, प्राण कहलाते हैं। विज्ञान परिभाषा में इनके आङ्गिरस, नाक्षत्रिक, सावित्र नाम हैं एवं यज्ञ परिभाषा में गार्हपत्य, धिष्ण्य, आहवनीय नामों से समन्वित हैं। गार्हपत्य एक है, धिष्ण्य आठ हैं, आहवनीय एक है। इस प्रकार लोकभेद से एक ही अग्नि दशकल हो जाता है। हम अग्नि को विराट् कह सकते हैं। बिना अग्नि के कोई यज्ञ नहीं।

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जितने भी पार्थिव पदार्थ हैं, सब में अग्नि भरा हुआ है। सब ऊष्मा से युक्त रहते हैं। जिस पदार्थ का स्पर्श किया जाता है, वही तापयुक्त मिलता है। जिन पदार्थों का शीतस्पर्श है, वहां भी अग्नि विद्यमान है। केवल मात्रा का तारतम्य है। आपके हाथ की गर्मी की अपेक्षा उसमें गर्मी कम है, अतएव आप उसे ठण्डा पाते हैं।

विज्ञान कहता है कि पानी की जो तरलता है एवं पानी का जो घनीभाव है, दोनों ही अग्नि से सम्बन्ध रखते हैं। अग्नि की नियत मात्रा पानी को पानी बनाए रखती है अर्थात् उसे तरल भाव में परिणत रखती है। अग्नि की ही एक नियत मात्रा उसे बर्फ बना डालती है।

तात्पर्य यही है कि गर्मी सभी पदार्थों में है। यह गर्मी वैश्वानर का धर्म है। अग्नि अन्नाद है। बिना अन्न के इसकी स्थिति ही नहीं हो सकती। चराचर समस्त जगत् में सभी अन्न तथा सभी अन्नाद रूप में हैं फिर भी प्रधानता अग्नि की ही है। स्थिति अग्नि का धर्म है। अत: स्थूल जगत् अग्निमय होने से विराट् कहा जाता है। क्रमश:

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