यह सौर प्राण सावित्राग्निमय है। इसमें परमेष्ठी के सोम की निरन्तर आहुति होती है। इस आहुति से सूर्य (सौर प्राणाग्नि) निरन्तर प्रकाशित रहता है। सोम-अग्नि का समन्वित रूप ही सूर्य का प्रकाश है, यही ईश्वर (प्रजापति) का तप है। यह तप रूप सौर प्राण ही प्रवर्ग्य (उच्छिष्ट या छोड़ा हुआ अंश) रूप में पृथ्वी-बुध-मंगल-बृहस्पति आदि अपने उपग्रहों के पोषण हेतु निरन्तर क्षीण हो रहा है। उधर परमेष्ठी से सूर्य में सोम भी निरन्तर आहूत हो रहा है। इससे अपनी प्रजाओं (ग्रह आदि) में प्रवर्ग्य रूप में अपना प्राण समर्पित करने पर भी सूर्य अपनी मात्रा में लेशमात्र भी क्षीण नहीं होता। यही सौर प्राण का तप कर्म है। अत: अपने प्राण को निरन्तर अन्य उपयोग में खर्च करना ही तप है।
सौर प्राण सम्बन्धी तीसरा कर्म है-दानकर्म। सौर सम्वत्सर में से निरन्तर कुछ भाग छिटकता रहता है। यही अलग हुआ भाग उच्छिष्ट कहलाता है। सम्पूर्ण जगत उच्छिष्ट ही है। छिटका हुआ सौर भाग सत्व से युक्त होकर दान कोटि में प्रविष्ट हो जाता है। इस दान भाग से सूर्य अपना अधिकार हटा लेता है। जिस पदार्थ का इस दान भाग से सम्बन्ध होता है वह इसी की वस्तु बन जाता है। यह दानवृत्ति यज्ञ मर्यादित है। पृथ्वी-मंगल-बुध आदि की उत्पत्ति सूर्य के दान कर्म के ही फल हैं।
सूर्य मन-प्राण-वाङ्मय (आत्मा) बनता हुआ ज्ञान-क्रिया-अर्थमय है। ज्ञानमय मन की प्रधानता यज्ञकर्म के साथ है। तप:कर्म क्रियामय प्राण प्रधान है। दानकर्म अर्थमय वाक् प्रधान है। सूर्य के ये तीनों निष्काम कर्म ही हैं, अ-बन्धन हैं। अध्यात्म में यज्ञ-तप-दान तीनों सूर्य से ही आते हैं।
जिसके आत्मा में जन्म से ही सूर्य द्वारा यज्ञ-तप-दान-कर्मों की बीजरूप से उपस्थिति रहती है, वही इन तीनों कर्मों के अनुष्ठान में सफल होता है। यदि इन तीनों का निष्काम बुद्धि से अनुष्ठान किया जाता है तो ये तीनों आत्मविकास के कारण बन जाते हैं। इस स्थिति में ये तीनों कर्म ईश्वर की श्रेणी में आ जाते हैं। निवृत्ति भाव प्रधानता वाले इन कर्मों के विषय में कृष्ण कहते हैं कि यज्ञ, दान तथा तप अवश्य करना चाहिए, क्योंकि ये कर्म मनुष्यों को पवित्र करने वाले होते हैं। इन कर्मों का अनुष्ठान भी आसक्ति और फलों का परित्याग करके ही करना चाहिए-
यज्ञदानतप:कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चौव पावनानि मनीषिणाम्।। गीता 18.5
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्।।
गीता 18.6
यज्ञ के सम्बन्ध में श्रुति में मिलता है-‘यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म।’ कर्म रूप इस यज्ञशब्द का व्यापक प्रयोग पाया जाता है। भगवद्गीता चतुर्थ अध्याय में तेरह प्रकार के यज्ञों का उल्लेख किया गया है, जैसे-ब्रह्मार्पण यज्ञ, दैव यज्ञ, ब्रह्माग्नि यज्ञ, संयमाग्नि यज्ञ, ज्ञान यज्ञ, प्राणायाम यज्ञ और प्राण यज्ञ। ये सब निष्काम होने के कारण बन्धनकारक नहीं होते।
सम्पूर्ण प्रजा की उत्पत्ति यज्ञ से होती है। यज्ञप्रक्रिया से ही वस्तु का उद्भव होता है, उस यज्ञ के निरन्तर चलते रहने पर वस्तु अपने स्वरूप में स्थित रहती है। प्रत्येक वस्तु का कुछ अंश प्रतिक्षण क्षीण होता रहता है। यह विशकलन (खण्ड-खण्ड करने वाला) अग्नि का धर्म है। बाहर से सोम आकर अग्नि रूप में परिणत होकर उस क्षीणता की पूर्ति करता है। बाल्यकाल में क्षीणता कम और सोम की अधिकता होने से शरीर आदि का तेजी से विकास होता है। युवावस्था में सोम की अधिकता व क्षीणता समान होने से स्थिरता प्रतीत होती है। बाद में क्षीणता अधिक और अधिका कम होने पर वृद्धावस्था में क्रमश: क्षीणता बढ़ती जाती है। अन्त में यज्ञ समाप्त होने से शरीर का नाश हो जाता है। इस प्रकार वस्तु का उत्पादन और रक्षण यज्ञ-प्रक्रिया पर ही निर्भर है।
आदान और विसर्ग ही कर्म का स्वरूप है। अपने में से कुछ अंश का त्याग और अन्य पदार्थ से अपने लिए आवश्यक अंश का ग्रहण करना कर्म है। यह प्रक्रिया (आदान और प्रदान) बराबर होती रहती है। इस प्रक्रिया में अपने अंश को पहले बाहर निकालना पड़ता है। जिससे बाहर से आने वाले अतिशय का आकर्षण हो सके। आकृष्ट अंश का ग्रहण करना तथा अतिशय अंश को ग्रहण करना दोनों तप है। जिस प्रकार अग्नि में तप्त करके स्वर्ण की शुद्धि की जाती है इसी प्रकार यम, नियम आदि से अध्यात्म का शोधन होता है। ताकि आत्मा में जिन विरोधी पदार्थों का समावेश हो गया है, उन्हें हटाकर आत्मानुकूल संस्कारों के लिए शुद्ध क्षेत्र तैयार हो।
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उपयुक्त पात्र को अपनी इच्छित वस्तु देना दान कहलाता है। सामान्य दान तीन प्रकार का कहा गया है। जिसमें दान करने वाला उस पदार्थ से अपना अधिकार हटा लेता है। जिस व्यक्ति को दान देता है उसका अधिकार स्थापित करता है वह प्रथम प्रकार है। उसे दान ही कहते हैं। परन्तु जहां दाता देय वस्तु में से अपना अधिकार नहीं हटाता, स्वयं भी उसके उपभोग का अधिकार बनाए रखता है और साथ ही उसमें दूसरों के अधिकार भी स्थापित करता है वह उत्सर्ग कहलाता है। जैसे कुआं, बावड़ी आदि में उसका भी हक रहता है और अन्य व्यक्ति भी समानरूप से उसका उपभोग कर सकते हैं। यह कूपोत्सर्ग है। तीसरा प्रकार त्याग कहलाता है। इसमें दाता देयपदार्थ से अपना सम्बन्ध हटा लेता है, स्वयम् उसके उपभोग का अधिकारी नहीं रह जाता और सामान्यरूप से सभी के उपभोग के लिए छोड़ देता है, वह त्याग है। जैसे बाग धर्मशाला, पाठशाला आदि बनवा कर सर्वसाधारण के उपभोग के लिए दे दे। इन सबसे आत्मा का उत्कर्ष होता है, आत्मशुद्धि होती है।
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मनुष्य ईश्वर-प्रजापति का अंश है। हम अंश हैं, ईश्वर अंशी है। फलत: उसके स्वरूप में जो शक्तियां हैं वे अंशरूप से हम में भी अवश्य हैं। इनकी मात्रा अवश्य ही बहुत कम है। ईश्वर प्रजापति में ज्ञान और कर्म दोनों पूर्ण समृद्ध हैं, वीर्ययुक्त हैं, विकसित हैं। परन्तु योगमाया के प्रभाव से अविद्या प्रधान जीव में दोनों ही अपूर्ण हैं, अविकसित हैं। किन्तु यदि अध्यात्म संस्था में जन्म से ही यह ईश्वरीय सौर प्राण प्रबल रहता है, तो उसके प्रभाव से जीव संस्था के यज्ञ-तप-दान तीनों अन्तरात्मा में विकसित रहते हैं। इन कर्मों को करता हुआ जीव पुन: अपने अंशी में समाहित हो जाता है।
क्रमश:
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