कृष्ण की गीता में आत्मा के दो भाग हैं-ब्रह्म और कर्म। ब्रह्म अकर्ता है, वहीं माया रूप कर्ता है। माया ही प्रकृति रूप है। जीव परा प्रकृति है, शरीर अपरा प्रकृति है। शरीर क्षरणधर्मा है।
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुन: पुन:।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।। (गीता 9.8)
अर्थात्-अपनी प्रकृति को अंगीकार करके स्वभाव के बल से परतन्त्र हुए इस सम्पूर्ण भूत समुदाय को, उसके कर्मों के अनुसार, बार-बार रचता हूं।
इसका एक अर्थ यह भी हुआ कि वहां जो भी पशु-पक्षी-गिद्ध आदि जीवनयापन कर रहे हैं, वे भी कभी मानवयोनि में रहे होंगे। अपने-अपने कर्मों के फल भोगने के लिए वहां उत्पन्न हुए। प्रकृति के अतिरिक्त वहां अन्य कोई शासन-अनुशासन नहीं है। सिंह आज भी वहां राजा है। सारे हिंसक पशु उसके मंत्रिमण्डल में हैं। प्रत्येक मंत्री का अपना-अपना भोजन (पशु) है। शेष सभी पशु औषधि-वनस्पतियों के आधार पर जी रहे हैं।
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुन: पुन:।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।। (गीता 9.8)
अर्थात्-अपनी प्रकृति को अंगीकार करके स्वभाव के बल से परतन्त्र हुए इस सम्पूर्ण भूत समुदाय को, उसके कर्मों के अनुसार, बार-बार रचता हूं।
इसका एक अर्थ यह भी हुआ कि वहां जो भी पशु-पक्षी-गिद्ध आदि जीवनयापन कर रहे हैं, वे भी कभी मानवयोनि में रहे होंगे। अपने-अपने कर्मों के फल भोगने के लिए वहां उत्पन्न हुए। प्रकृति के अतिरिक्त वहां अन्य कोई शासन-अनुशासन नहीं है। सिंह आज भी वहां राजा है। सारे हिंसक पशु उसके मंत्रिमण्डल में हैं। प्रत्येक मंत्री का अपना-अपना भोजन (पशु) है। शेष सभी पशु औषधि-वनस्पतियों के आधार पर जी रहे हैं।
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अभयारण्य में 20 लाख से अधिक जंगली मवेशी (वाइल्ड बीस्ट) हैं। पन्द्रह लाख से ज्यादा जेब्रा हैं। हिरण लाखों में हैं। ये तीनों साथ रहते हैं। गाइड के अनुसार घास के ऊपरी हिस्से को जंगली मवेशी, बीच के भाग को जेब्रा तथा नीचे के भाग को हिरण खाता है। शेष जड़ को जंगली सूअर (वाइल्ड बोर) खाता है। हाथी, हिप्पोपोटामस, गैण्डा आदि जानवर भी घास खाते हैं। केवल काला गैण्डा बूटियों (श्रब) का सेवन करता है।राजस्थान में जैसे ऊंट-भेडें आदि गर्मी के समय अपने क्षेत्र (रेगिस्तान) से पलायन कर जाते हैं, कोटा, भीलवाड़ा, मालवा के जलीय क्षेत्रों में चले जाते हैं, वैसे ही वहां भी तीनों मुख्य पशु समय-समय पर पलायन करते रहते हैं। चूंकि पलायन लाखों-लाख पशुओं का क्रमबद्ध ढंग से होता है, बिना किसी मानव नियन्त्रण के।
अत: इस लुभावने दृश्य को देखने के लिए इस दौरान विश्वभर से सर्वाधिक पर्यटक आते हैं। कुछ पशु कम दूरी का पलायन करते हैं, कुछ लम्बी दूरी का। यही इनका प्रजनन काल होता हैं। इसी काल में चूंकि सम्पूर्ण आबादी एक बड़े समूह में रहती है, अत: पूर्ण अवधि पर एक साथ इनका प्रजनन भी होता है।
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अनेक पशुओं का सामूहिक प्रजनन देख सकते हैं। कुछ पशुओं के प्रजनन क्षेत्र भी तय रहते हैं-बच्चों की सुरक्षा एवं घास की किस्म के अनुसार। नर-मादा-बीज आदि का व्यवहार तो मनुष्यों जैसा ही होगा। सूर्य-चन्द्रमा की भूमिका भी वैसी ही होगी। इनका पलायनचक्र ही संवत्सर का निर्धारक काल होगा। कैसा प्रकृति का शासन है! जीव आता है, भोगता है, चला जाता है।हम कहते हैं कि ‘जैसा खावे अन्न-वैसा होवे मन’। यहां कृषिविहीन क्षेत्र होने से बोये हुए अन्न का नितांत अभाव है। यही तो प्रकृति की जादूगरी है। अन्न खाने से मन चंचल होगा, कामना पैदा होगी, कर्म करने की आवश्यकता महसूस होगी। नए कर्म और कर्म फल पैदा होंगे।
चूंकि पशुओं की शुद्ध भोगयोनि है, इनमें नए कर्म करने का विकल्प ही नहीं है। अत: न अन्न होगा, न मन में कामना जाग्रत होगी। पशु या तो भोक्ता है, या फिर भोग्य बन जाता है। भोग्य रूप में वह या तो हिंसक पशुओं का भोजन बनता है, या फिर मांसाहारी मानव का।
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हिंसक पशु-मानव आसुरी भाव प्रधान होते हैं।एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धय:।
प्रभवन्त्युग्रकर्माण: क्षयाय जगतोऽहिता:।। (गीता 16.9)
अर्थात्-इस मिथ्या ज्ञान के सहारे-नास्तिकता का बोध-जिनका स्वभाव नष्ट हो गया है, बुद्धि मन्द है, सबका अपकार करने वाले हैं, क्रूर, जगत के नाश करने में ही समर्थ होते हैं।
साथ ही घोषणा करते हैं-
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्।। (गीता 16.20)
– हे अर्जुन! वे मूढ़ मुझको न प्राप्त होकर जन्म-जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं। उससे भी नीच गति को प्राप्त होते हैं। इसी को भोग योनि कहते हैं।
भोग योनि मूल रूप से प्रकृति आधारित होती है। ईश्वर-इच्छा कर्म फलानुसार जीव के मन में पैदा होती है। जीव की स्वयं की कोई इच्छा पैदा नहीं होती। उसी के अनुरूप भोक्ता-भोग्य की देह प्राप्त होती है, आयु एवं क्षेत्र प्राप्त होता है। ज्ञानाभाव के कारण ब्राह्मण वर्ण की अल्पता स्पष्ट दिखाई देती है।
भोग्य पशु अन्न हैं, वनस्पति/औषधियां अन्न हैं। न कोई वैश्य- न पशुपालक या कृषक। राजा या प्रजा- बस। सृष्टि का अद्भुत नजारा। पशु विश्राम करता है, सोता नहीं है। अनेक पशु-प्राणी अंधेरे में देख सकते हैं।
हिंसक पशुओं के भोग्य पशु भी नियत रहते हैं।
यहां बाघ नहीं हैं। शेर-चीता-तेन्दुआ आदि अपने-अपने भोग्य पदार्थों का ही शिकार करते हैं। एक-दूसरे के पशुओं का नहीं। जिराफ-हाथी-हिप्पोपोटामस, जेब्रा-हिरण-जंगली मवेशी (बीस्ट) आदि घास, पत्ते आदि खाते है।
अभयारण्य के मुख्य केन्द्र के चारों ओर मानव का आदिवासी रूप है। वह भी (क्षेत्र) लगभग 14,000 वर्ग किमी का ही है। केन्द्रीय क्षेत्र का आकार भी इतना ही है। बाहरी क्षेत्र में पक्के मकान वर्जित है। कृषि फसल उगाना भी वर्जित है। सभ्यता शून्य समुदाय रहता है। पशुपालन करता है। इस समुदाय को मसाई कहते हैं।
इनकी मान्यता है कि इनका समुदाय तीन श्रेणियों में बंटा हैं-कृषक, शिकारी और पशु पालक। तीन ही श्रेणियां पशुओं की हैं। यहां की बकरियों के भी तीन ही रंग हैं। सफेद-काला-भूरा। ये ही हमारे त्रिगुणों का रंग है। कृषक समाज फसलें नहीं बोता। पेड़-पौधों तक सीमित रहता है।
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अब सोचिए, कैसे जीते हैं, ये मसाई! कोई अन्न का दाना नहीं। शुद्ध आदिमानव का जीवन जी रहे हैं। पशुपालन ही इनकी आर्थिक रीढ़ है। पशु बेचकर पेट भरते हैं। एक मसाई ग्राम मालंजा के वासियों, झोंपड़ों एवं दस्तकारों के सामान को देखा। वहां जानकारी मिली कि ये लोग अनाज नहीं खाते ।कृषि निषेध क्षेत्र है। झोंपड़े भी भीतर 7-8 फुट ऊंचे तथा औसत 60-70 वर्ग फुट के थे। गोलाकार, एक लाइन में बने थे। मांसाहारी थे ही। गायें पालते हैं, दूध पीते हैं। शक्ति (निरोधक क्षमता) के लिए भी गाय पर निर्भर है। न अन्न-न मन। हां, झोंपड़े में एक चूल्हा, एक पलंग, दीवार में छोटे सामान रखने का स्थान, एक रस्सी बंधी है।
दरवाजा बहुत छोटा और संकरा। बहुविवाह, बहुसन्तान का क्षेत्र है। वर्षा पर निर्भरता भी हमारे जैसी है। सरकार पर निर्भरता भी हमारे जैसी है। सूखा पडऩे पर सरकार से नहीं, पर्वत देवता से मांगते हैं, नदी देवता है। सन्तान के लिए वृक्ष देवता है। हां, गांव का मुखिया सरकार के सम्पर्क में आने लगा है। उसका स्तर भिन्न है।
सम्पूर्ण क्षेत्र में ब्रह्म का सुप्त भाव, प्राकृतिक जीवनयापन का स्वरूप ही प्रतिष्ठित है। पशु साम्राज्य में भी कोई योग की चर्चा नहीं । गीता के कर्म-ज्ञान-बुद्धि योग क्या उनके लिए लागू नहीं होंगे? क्या कोई अर्जुन वहां पैदा नहीं होगा? क्या माया किसी के मन में कुछ पाने की, कुछ करने भी ‘जीवेच्छा’ पैदा नहीं करेगी? कृष्ण तो वहां भी सबके हृदय में रहते हैं न!
ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।। (गीता 18.61)
अर्थात्-ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय में रहता है। उनको कर्मों के अनुसार अपनी माया से भ्रमण कराता है।
यही दक्षिणायन का क्षेत्र भी है, जिस काल में भीष्म पितामह मरना नहीं चाहते थे।
हालांकि इस क्षेत्र के बाहर पूरा देश है। सरकार है, तंत्र है, समाज है, तंजानिया है। यहां तक केवल पर्यटक पहुंचता है, सरकारी जंगलात विभाग का काफिला पहुंचता है। न ईसाई पहुंचता है, न मुसलमान। सरकार के ये ही दो पाये हैं। कृष्ण बहुत याद आते हैं।
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वर्षा के जल से ब्रह्म पृथ्वी पर उतरता है। अन्न शरीरों की जठराग्नि में आहूत होता है। कौन सी योनियों में ब्रह्म प्रविष्ट होता है कर्मानुसार। कितने मानव यहां पशुरूप धारण करने को आते हैं। जब ये पुन: मानव शरीर धारण करेंगे, तो पशुओं जैसा ही व्यवहार करेंगे।
कौन मां आज इनको गर्भ में संस्कारित करेगी? यहां से मुक्त हुई आत्मा सम्पूर्ण विश्व की मानव योनि को आज पाशविक समाज में बदल रही है। मानव आत्मा को पाशविक स्वरूप में रूपान्तरित करने का बड़ा कारखाना है सेरेनगेटी!
क्रमश: