scriptपशु : मानव से अधिक मर्यादित | Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand Animals vs Humans 2 July 2022 | Patrika News
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पशु : मानव से अधिक मर्यादित

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: पशु मूक होते हुए भी मर्यादा एवं गंभीरता से बाहर नहीं जाता। समय के साथ आक्रामकता बढ़ाने के बजाए स्वयं को, परिवार को नए रूप में सुरक्षित रखना सीख लिया… पशु स्वभाव की व्याख्या समझने के लिए ‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ श्रृंखला में पढ़िए पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख-

Jul 03, 2022 / 11:18 pm

Gulab Kothari

शरीर ही ब्रह्माण्ड: मानव योनि में पशु भाव

शरीर ही ब्रह्माण्ड: मानव योनि में पशु भाव

Gulab Kothari Article : अफ्रीका के सेरेनगेटी अभयारण्य में जाकर एक बार तो आप भूल जाते हो कि आप मानव बस्ती से हो। जैसे एलियंस का अपना विश्व है, पशु-पक्षी-जलचरों का भी स्वतंत्र विश्व है। कर्मयोगी मानव सिक्के का एक पहलू है, तो अन्य जीव सिक्के का दूसरा पहलू। है तो सिक्के का हिस्सा। इसके बिना ब्रह्माण्ड का स्वरूप अधूरा ही होगा। हमको इस सृष्टि को भी मानव का ही प्राकृत-व्याकृत स्वरूप मानकर समझना होगा। मनोरंजन का विषय तो हो ही नहीं सकता, जैसा कि आज जंगल सफारी में शेर को देखकर आनन्दित होते हैं। क्या शेर देखने के लिए जीवन का इतना बड़ा कालखण्ड और धन खर्च करना मनोरंजन के निमित्त माना जाएगा! अज्ञानता की श्रेणी में आएगा अथवा जीवन के दुरूपयोग की श्रेणी में होगा। मनोरंजन भी एक प्रकार का भोग मात्र ही है। जैसे बिना किसी थकान के विश्राम भी विषतुल्य कहा गया है, वैसे ही सफारी भी एक सरकारी व्यापार बन गया है। जीवन की वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं है। जंगल में सभी प्रकार के जानवर रहते हैं, किन्तु पर्यटकों को तो शेर देखना है। वाह!
आज भी किसी शहर से राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री गुजरते हैं, तो जनता जिज्ञासा के साथ, आतुर होकर देखती है। कभी यही बात राजा की सवारी पर लागू होती थी। बाकी किसी की कोई पूछ नहीं। प्रश्न उठता है कि क्या कोई पुण्यवान राजा ही योगभ्रष्ट होकर शेर बनता है?

क्या कोई पुण्यवान ब्राह्मण-साधक ही शरीर त्यागकर गाय बनता है? गाय को दिव्य पशु कहा जाता है, जिसके शरीर में सभी 33 देवताओं का निवास माना गया है? शेर निश्चित ही क्षत्रिय राजा है। प्रजा का रक्षक है। आज तो सरकारें भक्षक होती जा रही हैं। वे क्षत्रिय नहीं हैं।

क्षत्रिय का धर्म प्रजा का कल्याणकारी होना, शत्रुओं से स्वधर्मानुकूल युद्ध करना, परिस्थितियों के अनुकूल।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।। (गीता 3.35)
अच्छे आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से अपना गुणरहित धर्म ही उत्तम है। अपने धर्म में मरना कल्याणकारी है। दूसरे के धर्म में मरना भयावह है। क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्म रूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप का भागी नहीं बनता। 18/47

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शेर को हमने राजा कहा, क्षत्रिय माना। वर्णों के बारे में गीता में विस्तार है।
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणै:।। (गीता 18.41)

– सभी वर्णों के कर्म स्वभाव (प्रकृति) से उत्पन्न गुणों के द्वारा विभक्त किए गए हैं। सभी प्राणियों में अहंकृति-प्रकृति और आकृति समान होती है। तब क्या शेर अपनी प्रकृति को बदल सकता है अथवा आकृति को बदल सकता है? नहीं बदल सकता। ये सारा प्रकृति के नियंत्रण में होता है। हम भी नहीं बदल सकते अपनी अहंकृति और आकृति।
क्षात्र धर्म क्या है- शेर भी जानता है, मानता है।

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।। (गीता 18.43)
अर्थात्-शूरवीरता, तेज, धैर्य, चातुर्य, युद्ध से न भागना, दान देना, स्वामीभाव- ये क्षत्रिय के स्वाभाविक लक्षण है। शेर प्रजा का पालक भी है। बिना भूख के किसी भी जीव को आहत नहीं करता। राजा रजोगुणी होता है। राज रूप रजोगुण कामना और आसक्ति से उत्पन्न होता है। वह जीवात्मा को कर्मों के और उनके फलों के सम्बन्ध से बांधता है। (गीता 14/7)

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रजोगुण के बढऩे पर मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाली योनियों में उत्पन्न होता है (गीता 14/15)। मनुष्य योनि भी इसी श्रेणी में है। क्योंकि राजस कर्मों का फल दु:ख ही होता है (गीता 14/16)। क्योंकि रजोगुण लोभ का भी कारक है। दूसरे राज्य को जीत लेने का लोभ।

राजस जीव यक्ष/राक्षसों को पूजते हैं। (गीता 7/5) आहार भी अपनी इच्छा के अनुसार ही करते हैं। फलों को दृष्टि में रखकर ही कर्म करते हैं। अपने क्षेत्र के प्रति, मर्यादा के प्रति अति जागरूक होते हैं। सेरेनगेटी में इतना बड़ा पशु समुदाय है, लाखों-लाख पशु है। बड़ी संख्या वाले पशु-विल्ड बीस्ट, जेब्रा, कुछ हिरण जैसे पशु सम्वत्सर (ऋतु चक्र) के साथ पलायन करते रहते हैं।

ये पर्यटकों का प्रधान आकर्षण है। वार्षिक चक्र है। इस पलायन में न शेर पलायन करते हैं, और न ही अन्य हिंसक पशु। आश्चर्य यह है कि इनके साथ ही इनका भोजन बनने वाले जानवर-हिरण इत्यादि भी पलायन नहीं करते। भोक्ता और भोग्य। हालांकि स्वयं शेर भी मनुष्य की तरह भोग योनि ही है। मनुष्य में कर्म की प्रधानता भी रहती है, जो शेर में नहीं रहती।

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पशु को गीता के ज्ञान से क्या? किन्तु सृष्टि में सबका अपना अपना महत्व है। कुछ भी अनावश्यक या व्यर्थ नहीं है। शेर तो वैसे भी दुर्गा का वाहन है (शेरावाली कहते हैं)। सिंहनाद और सिंहावलोकन दोनों ही इसकी पहचान हैं। मर्यादित-संयमी प्राणी है सिंह। गीता में कर्म सिद्धि के पांच हेतु कहे हैं-अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टाएं और देव (प्रकृति)।

मूल में तो सिंह अधिष्ठान पर आधारित योनि ही है। शक्ति का वाहन है। यही इसकी पहचान है। असुरों से युद्ध में शक्ति का सहायक है। मनुष्य भी जब किसी अपराधी या समाज कंटक से संघर्ष करता है, शक्ति का आह्वान करता है, तो सिंह गर्जना के साथ ही लड़ता है।

सूक्ष्म में तो शेर भी षोडशी रूप आत्मा ही है। हमारी तरह ही। व्यवहार में हमसे बहुत आगे है। पशु मूक होते हुए भी मर्यादा एवं गंभीरता से बाहर नहीं जाता। समय के साथ आक्रामकता बढ़ाने के बजाए स्वयं को, परिवार को नए रूप में सुरक्षित रखना सीख लिया।

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सेरेनगेटी में शेरों को पेड़ों पर विश्राम करते देखने का पहला अनुभव था। परिवार के साथ। अर्थात् कहीं तीन, कहीं पांच एक साथ, एक ही पेड़ पर। अनुशासन पूर्ण प्राकृतिक। निश्चय ही भोगकाल पूर्ण करके पुन: किसी कुलीन-समृद्ध परिवार में जन्म लेंगे।

इसके ठीक विपरीत आज के अधिकांश सत्ताधारी भ्रष्ट, अमर्यादित, आक्रामक व मूल्यविहीन हैं। इनको सेरेनगेटी जैसे अभयारण्यों में उगना होगा। सेेरेनगेटी का कोई पशु-पक्षी प्रकृति के नियमों के बाहर नहीं जीता। निश्चित रूप से उच्च योनियों में जाने लायक हैं।

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गरुड़ पुराण का एक अंश यहां उद्धृत करना उचित होगा। अध्याय 225 में वर्णन मिलता है- ”जीव नरक भोग करके पाप योनियों में जन्म लेता है। याचक कृमि योनि में, गुरु-सम्पत्ति की कामना करने वाला श्वान, मित्र का अपमान करने वाला गधे की योनि में।

माता-पिता को कष्ट पहुंचाने वाला कछुए की योनि में, स्वामी से छल करने वाला वानर की योनि में जाता है। विश्वासघाती मत्स्य योनि में, अनाज की चोरी करने वाला चूहे की योनि में, परस्त्री का अपहरण करने वाला भेडिय़े की योनि में जाता है।’

बहुत लम्बी सूची है। उतने ही भ्रष्ट, उतने ही वनक्षेत्र। कलियुग अलग है। मर्यादा में कारागार की सी अनुभूति होती है। तृष्णा और ईष्र्या चिन्तन पर हावी है। स्वर्ग की चाह नहीं है। आत्मा की चर्चा नहीं है। शरीर का भोग स्वर्ग का पर्याय है। एक तथ्य यह भी है कि एक जैसा कृत्य करने वाले अगले जन्म में सब एक ही योनि में साथ हो जाएं शायद!
क्रमश:
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