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शरीर ही ब्रह्माण्ड : आसक्त मन बाहर भागता है

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: गीता में कर्म सिद्धि के पांच हेतु कहे हैं- अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टाएं और देव (प्रकृति)। मूल में तो सिंह अधिष्ठान पर आधारित योनि ही है। शक्ति का वाहन है। यही इसकी पहचान है। असुरों से युद्ध में शक्ति का सहायक है… ‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ श्रृंखला में पढ़िए पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख-

Jul 16, 2022 / 01:29 pm

Gulab Kothari

शरीर ही ब्रह्माण्ड : आसक्त मन बाहर भागता है

Gulab Kothari Article : जीवन कर्म प्रधान है। क्रिया ही कर्म का स्वरूप ले लेती है। क्रिया में मन-इन्द्रियां-बुद्धि तीनों का समन्वय होता है। तीनों के अपने प्रकृति-गुण-धर्म होते हैं। आत्मसिद्ध शाश्वत मानव धर्म होता है। आज आत्मरूप धर्म तथा प्रकृति सिद्ध धर्म दोनों ही छूट गए। मानव की मौलिकता विस्मृत हो गई। मानव में ईश्वरीय अंश भी है और अविद्या अलग से उपलब्ध है, जो ईश्वर को भी प्राप्त नहीं है। वह अहंकारवश, स्वच्छन्दता के कारण अविद्या-अस्मिता-राग-द्वेष-अभिनिवेश की ओर आकृष्ट होता है। आत्मा से वंचित ये कर्म ही पशुभाव की प्रेरणा बनते हैं। इन्द्रियों के प्रत्येक विषय के साथ राग-द्वेष रहते हैं। विषयों का इन्द्रियों में हवन होना ही यज्ञ है। अर्थात्-प्रत्येक कर्म यज्ञ स्वरूप है। इन्द्रियों का मन में लीन हो जाना भी यज्ञ है। इन्द्रियों का संयम रूप अग्नि में हवन करना यज्ञ है।
प्रश्न यह उठता है कि क्या आत्मा के योग के अभाव में यज्ञ हो सकता है? क्योंकि आत्मा ही यज्ञ का नियन्ता है। मन को संयमित आत्मा ही कर सकता है। यज्ञ भी मूल में तो ब्रह्म ही है- (गीता 4/24) । फल भी ब्रह्म ही है। योगीजन तो परमात्म रूप अग्नि में आत्म-यज्ञ का ही हवन करते हैं- (4/25) ।

प्राणों पर नियंत्रण भी आत्मयुक्त मन ही कर पाता है। चूंकि यह सुविधा पशु-पक्षियों को उपलब्ध नहीं है, अत: वे यज्ञ का आयोजन/प्रयोजन नहीं कर सकते। कृष्ण कहते हैं कि यज्ञ न करने वाले इहलोक/परलोक में भी सुख कैसे पा सकते हैं- (4/31) । ये सारे प्रयत्न, यज्ञकर्म केवल मानव ही कर पाता है जबकि मानव का जन्म भी कर्मफल भोगने के लिए ही होता है।

केवल शरीर-मन-बुद्धि से मानव पशु ही है- भोग योनि ही है। इन तीन के अतिरिक्त जो चौथा तत्त्व है, वह अव्यक्त है। इन चारों की सम्यक् अवस्था ही मानव है। बिना आत्मा के युक्त हुए कोई भी कर्म मानवता का प्रतिनिधि नहीं बनता। जड़-चेतन दोनों में आत्मा रहता है। जड़ पदार्थों में इन्द्रियां नहीं होतीं।

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पशु : मानव से अधिक मर्यादित

सुसूक्ष्म तत्त्व विज्ञान ही तात्त्विक विज्ञान है। मानव ही वहां तक पहुंच सकता है। इन्द्रियों का विकास ही चेतना का सू चक है। जड़ का अर्थ है-बाह्य, भौतिक शरीर भाव। चेतना भाव है समनस्क इन्द्रिय भाव। इन्द्र प्राण इन्द्रियों की तथा चन्द्रमा मन की प्रतिष्ठा है।

मन इन्द्रियों का संचालक है। मन के कारण समनस्क जीव चार प्रकार के कृमि, कीट, पक्षी-पशु होते हैं। पृथ्वी तत्त्व मात्र से जड़-मिट्टी-पत्थर आदि पैदा होते हैं। कई प्राणी वर्ग मन-बुद्धि-शरीर की दृष्टि से मानव से भी श्रेष्ठ होते हैं।

जहां कर्म की बात आती है, वहां समनस्क प्राणी से ही अर्थ रहता है। जो क्रिया के साथ इन्द्रियों का उपयोग कर सके। चूंकि कर्म का कारण इच्छा होता है, अत: प्राणियों के दो भाग दिखाई पड़ते हैं। पहले वर्ग के प्राणी प्रकृति प्रदत्त इच्छा से प्रेरित होकर ही कर्म करते हैं।

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खाना-सोना-चलना जैसे जीवनयापन के प्राकृतिक कर्म कर पाते हैं। कुछ पशु-पक्षी विशेष मन-बुद्धि को प्राप्त रहते हैं। इनमें क्रमश: चान्द्र-सौर प्राण अधिक रहता है।
गीता का एक श्लोक बहुत कुछ कह रहा है-
ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् संजायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते।। (गीता 2.62)

– विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुषों की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से विषयों की कामना तथा कामना से क्र्रोध उत्पन्न होता है।
क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।। (गीता 2.63)

– क्रोध से मूढ़ता, मूढ़ता से स्मृतिभ्रम, स्मृतिभ्रम से बुद्धि का नाश होकर पुरुष नष्टप्राय: हो जाता है। साथ ही आगे कह रहे हैं कि उपरोक्त कारण ही नरक योनियों में (पशु-पक्षी आदि में) जाने को बाध्य करते हैं-
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:।
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।। (गीता 16.21)

– काम-क्रोध-लोभ तीनों नरक (भोग योनियों) के द्वार हैं। अधोगति में ले जाते हैं। इन्हें त्याग देना चाहिए।
कर्म क्षेत्र में काम को ही प्रधान कहा है। कामना के कई रूप-अनन्त होते हैं। इनमें शरीर सुख पाशविक वृत्ति होने से भोग की कामना को बलवान कहा जाता है। कामना के कारण ही मन गतिमान होता है। कामना पूर्ति में आया हुआ अवरोध ही क्रोध का कारण बनता है। अत: चेतावनी भी देते हैं-
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम।। (गीता 3.41)

– पहले इन्द्रियों को वश में करके, इस ज्ञान-विज्ञान को नष्ट करने वाले महापापी काम को बलपूर्वक मार डाल।
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उपरोक्त सभी उपदेश पुरुष के संदर्भ में कहे गए हैं, किन्तु इनको आत्मा रूप पुरुष पर ही लागू करके समझना उचित होगा। शरीर के साथ आत्मा नहीं बदलता। काम के वश में, कामुक स्वभाव एवं काम सुख की अन्तिम इच्छा के कारण यदि पुरुष (आत्मा) शरीर का त्याग करता है, तो वह कामुकता प्रधान योनियों में ही प्रवेश करेगा।

उस योनि में उसके काम-क्रोध को प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है। दो कामुक सिंह, गैण्डा, हिरण आदि एक मादा पर अधिकार प्राप्त करने के लिए कैसे मरने-मारने को तैयार हो जाते हैं। इस प्रकार के द्वन्द्व पर्यटकों का विशेष आकर्षण होते हैं।

आत्मा के गुण शरीर आधारित नहीं होते। चंचल मन में बुद्धि भी अस्थिर, भावहीन होती है। तब शान्ति और सुख दोनों नहीं मिलते। (गीता 2/66)। और यह भी सत्य है कि मनुष्य प्रकृति के अधीन ही कर्म करने को बाध्य रहता है। (3/5)

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कामासक्त आत्मा का सम्बन्ध सदा एक से अधिक शरीरों से होता है। सभी शरीर अधोगति को तो प्राप्त होते हैं, किन्तु एक ही योनि में पैदा हों यह आवश्यक नहीं है। यदि होते हैं, तो समक्ष देखते ही पहचान भी जाएंगे और युग्म भी बना सकते हैं। आज इस प्रकार के युग्म अन्य योनियों के साथ मानव बनाने लगा है।

इन अर्थों में पशु मानव से अधिक मर्यादित है। वह स्वेच्छा से निर्णय भी नहीं ले सकता। पशुओं के कामभोग पर प्राकृतिक मर्यादाएं भी लागू रहती हैं। उनकी काम प्रवृत्ति प्रकृतिजनित होती है। कुछ अपवाद भी हैं। बिना प्रवृत्ति के पशु उधर आकर्षित ही नहीं होता। उद्दण्ड और मनचले हो सकते हैं।

प्रकृति की व्यवस्था के आगे नतमस्तक होना पड़ता है। कोई भी प्राणी न अपनी मर्जी से सोता-जागता है और न ही खाता है। यहां तक कि गिद्ध पक्षी को शरीर का कौनसा अंग खाना है, वह उसी को खाता है। एक बड़े पशु को खाने वाले कई विशिष्ट गिद्ध होते हैं।

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शक्तिमान मानव अपने बल से सब कुछ खा जाना चाहता है। भले ही शेष भूख से मर जाएं। लगता तो यह है कि यदि मनुष्य भी स्वयं को भोगयोनि में मानकर जीने लगे, तो सब स्वत: व्यवस्थित हो जाएगा। आज की सारी त्रासदी-अपराध-दु:साहस, स्वच्छन्द मानव के अहंकार की ही देन है, जिससे पशु-पक्षी भी त्राहि-त्राहि कर रहे हैं।

ऐसे प्राणी ही वन्यप्राणी होते हैं और पुन: भिन्न-भिन्न योनियों से गुजरते हुए मानव योनि में प्रकट होते हैं। मातृगर्भ में प्रवेश पूर्व प्रत्येक जीव जानता है कि क्यों वह इसी माता के गर्भ में जाना चाहता है। प्रसव के बाद वह सब कुछ भूल जाता है। सभ्यता के साथ बहता रहता है, संस्कृति की छाप छूट जाती है।

यही मानव का पशु भाव है। सारे कर्म स्वत: चलते हैं। गीता का ध्येय वाक्य ”कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ इनके लिए अर्थहीन हो जाता है। राग-द्वेष ही इनके जीवन का प्रवाह तय करता है। बहने वाली कोई वस्तु ऊपर नहीं जाती।
क्रमश:

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