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वैश्वानर अग्नि है जीवनसत्ता

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: मूलभूत देव तत्त्व से उत्पन्न उष्णता ही तप है। यही उष्णता वैश्वानर रूप में मनुष्य के भीतर कार्य करती है। प्राण को उपांशु और अपान को अन्तर्याम कहते हैं। दोनों के घर्षण से वैश्वानर पैदा होता है। इसके अतिरिक्त पुरुष कुछ नहीं है। विश्व में यह उष्णता सूर्य रूप में, मनुष्य में वैश्वानर रूप में प्रत्यक्ष है… ‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ श्रृंखला में पढ़ें पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख-

Jan 07, 2023 / 07:55 pm

Gulab Kothari

शरीर ही ब्रह्माण्ड : वैश्वानर अग्नि है जीवनसत्ता


Gulab Kothari Article शरीर ही ब्रह्माण्ड:
विश्व में जो मूल, विलक्षण शक्ति तत्त्व है, उसकी संज्ञा अग्नि है। प्राणियों के तीन वर्ग हैं-वृक्ष-वनस्पति, पक्षी-पशु और मनुष्य। तीनों में प्राण अथवा जीवन सत्ता है। ये ही मन-प्राण-वाक् हैं। इसके लोकात्मक प्रतीक पृथ्वी-अन्तरिक्ष-द्यौ हैं। इनका अर्थ स्थान रूप से नहीं, बल्कि चिति तत्त्व के तारतम्य के बोधक धरातल हैं। तीनों के संचालक तत्त्व अग्नि-वायु-आदित्य हैं। ये ही विश्व की एवं मानव देह में प्रज्वलित तीन प्राणाग्नियां हैं-‘एक एवाग्नि बहुधा समिद्ध:।’ अग्नि पृथ्वी की वाक् (पंचभूत) का, वायु अन्तरिक्ष प्राण का तथा मन आदित्य का प्रतीक है। शरीर के जन्म के लिए तीनों लोकों का सम्मिलन आवश्यक है। मन-प्राण-वाक् केन्द्र में एक साथ रहते हैं। ये ही शुचि-पावक-पवमान हैं। इनकी संयुक्त संज्ञा वैश्वानर है। यही पाचन, धातु निर्माण करती है। अग्नि का उत्पादक स्वरूप यज्ञ है। इसमें देव या शक्ति स्थूलभूत (सोम) का भक्षण करती है। इसी स्वरूप से (अग्नि-सोम, योषा-वृषा, द्यावा-पृथ्वी आदि) यज्ञ मण्डल का निर्माण होता है। इसमें वसु-रुद्र-आदित्य तथा दो अश्विनीकुमार के साथ अखण्ड यज्ञ मण्डल बनता है। यही जीवन या प्राण के चक्र का स्वरूप है। अग्नि या प्राण का किसी बिन्दु पर प्रादुर्भाव एक यज्ञ है।

सृष्टि का विराट् धरातल पर जन्म विराट् यज्ञ कहलाता है, जिसमें स्वयं प्रजापति अपनी आहुति डालते हैं। इसे सर्वहुत यज्ञ कहा है (ऋ.10.6.8)। स्वयं प्रजापति अग्नि रूप है। इस अग्नि को मूल निर्मात्री शक्ति या विराट् प्रकृति ही कहा जा सकता है। इसके अदिति और दक्ष दो रूप हैं। प्रत्येक यज्ञ का अधिष्ठाता ‘प्रजापति दक्ष’ कहलाता है। दक्ष की माता अनन्त प्रकृति की संज्ञा प्रकृति है। कार्य-कारण भेद हैं दोनों में।

सृष्टि रचना से पूर्व अदिति की सत्ता सर्वोपरि है। अदिति से जो व्यष्टि रूप यज्ञ होते हैं, उनका अधिपति दक्ष (पुत्र) है। एक ही अग्नि से प्राण-मूल शक्ति तत्त्व तीन प्रकार में विभक्त हुआ, मन-प्राण-वाक् रूप में। इनको अग्नि की तीन माताएं कहा जाता है। अग्नि और रुद्र पर्याय हैं-‘त्वमग्नेरुद्र:’-ऋ. 2.1.6। प्रत्येक प्राणीकेन्द्र बाहर से अन्न लेना चाहता है। यही केन्द्र की अशनाया या बुभुक्षा है।

जहां तक अशनाया व्याप्त हो, उसे केन्द्र की ‘द्यावापृथिवी’-रोदसी लोक कहते हैं। प्रत्येक प्राणी शरीर एक-एक रोदसी है। विश्व के केन्द्र में सूर्य रूपी रुद्र सोमपान के लिए धू-धू करके जल रहा है। मध्य प्राण ही इन्द्र है। इसी के लिए बाहर से अन्न लाया जाता है (विष्णु)। जैसे ही अन्नाद को अन्न प्राप्त होता है, वैसे ही आदान-विसर्ग की क्रिया आरम्भ हो जाती है। यही जीवन का लक्षण है।

सूर्य ही अग्नि का मुख है। पृथ्वी पर अग्नि-वायु-आदित्य तीन ही प्रमुख देव हैं। तीनों कालों में सम्पूर्ण चर-अचर विश्व का जन्म और नाश का कारण एकमात्र सूर्य है। सत्-असत् दोनों की योनि सूर्य है। जितने देव हैं सबको यथास्थान सूर्य ने अपनी रश्मियों में निविष्ट कर रखा है। जो अग्नि सूर्य से द्युलोक में है, उसी की एक-एक किरण (चिंगारी) प्रत्येक शरीर में धधक रही है।
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वेद की दृष्टि से सृष्टि का मूल तपस् है। यह तपस् बृहद् और महान् था। उसी को अभिद्ध तप कहा जाता है। इससे ही सृष्टि के उत्पादक मूल तत्त्व आविर्भाव में आए (ऋ. 10.190.1)। यह स्वयं देव प्रजापति का तप था। यह तप उनके मन का ध्यान और प्राण की क्रिया थी। मूलभूत देव तत्त्व से उत्पन्न उष्णता ही तप है। यही उष्णता वैश्वानर रूप में मनुष्य के भीतर कार्य करती है।

प्राण को उपांशु और अपान को अन्तर्याम कहते हैं। दोनों के घर्षण से वैश्वानर पैदा होता है। इसके अतिरिक्त पुरुष कुछ नहीं है। विश्व में यह उष्णता सूर्य रूप में, मनुष्य में वैश्वानर रूप में प्रत्यक्ष है। वैश्वानर अग्नि अन्न को पचाकर, सप्त धातुओं के निर्माण से शरीर को धारण करती है जठराग्नि रूप में। सृष्टि का मूल नियम है-‘यो असौ पुरुष सोऽहं अस्मि’-‘जो वह पुरुष है, वही मैं हूं’ (ईश. उप.)। सूर्य और शरीरस्थ वैश्वानर में प्राणन् क्रिया के रूप में स्पद्र्धा का सम्बन्ध है। जैसे धौंकनी से अग्नि प्रदीप्त रहती है, वैसे ही सूर्य के संधमन से पुरुष की वैश्वानर अग्नि का संधमन हो रहा है।

सूर्य अग्नि के स्थूल गोले के रूप में दिखाई पड़ता है, किन्तु वह विश्व प्रजापति के विज्ञान चेतना द्वारा अस्तित्त्व में आया है। अत: वैदिक दृष्टि से यह दृश्य सूर्य उस अदृश्य प्रजापति के विज्ञान का प्रतीक है। प्रजापति का मानस चिन्तन अथवा उसका महत् बुद्धि तत्त्व ही विज्ञान रूप सूर्य है। विज्ञान का ही पर्याय ‘संज्ञा’ या ‘चिति तत्त्व’ है, जिसे सूर्य पत्नी कहा जाता है। उसी सूर्य का प्रतिबिम्ब प्रत्येक प्राणी केन्द्र में आ रहा है।
वैदिक भाषा में सूर्य को धूप और भूतों में पडऩे वाले उसके प्रतिबिम्ब को छाया कहते हैं। दिव्य मानसी सृष्टि में जो विज्ञान आतप रूप में है, वही भूतों में छाया कहलाता है। सृष्टि के लिए एक मूल प्राण तत्त्व पंच प्राणों में विभक्त हो रहा है।
‘स एको नाशकात्। स पंचधा आत्मानम् विभज्य उच्यते। य: प्राण:, अपान:, समान:, उदान:, व्यान: इति।’ मैत्रा.उप.2.6

इन पांच प्राण रूपी पांच अग्नियों (प्राण-अपान-समान-उदान-व्यान) का स्वरूप जानने के कारण उन ऋषियों की पंचाग्नि संज्ञा हुई। जो दिव्य अग्नि (स्वग्र्य) या प्राण था, गुह्य-अज्ञेय-रहस्य होने के कारण नचिकेता अग्नि कहलाया। उसी के सृष्टि धरातल पर तीन रूप-मन, प्राण, वाक् हो जाते हैं। इन तीनों अग्नियों को यज्ञ की त्रेताग्नि कहा जाता है।

सृष्टि का विराट् मूल तत्त्व विज्ञान रूपी सूर्य के आतप के समान है। भूत के धरातल पर उस विज्ञान की अभिव्यक्ति छाया है। दिन में सूर्य का तेज ही रात्रि में अग्नि में प्रविष्ट हो जाता है। विराट् परमेष्ठी का संकेत दिन और भूतगत व्यष्टि का संकेत छाया है। यही सूर्य और अग्नि का सम्बन्ध है। तत्वत: दोनों एक होते हुए भी सूर्य अमृत, अग्नि मत्र्य है।
सूर्य सृष्टि के आदि से अन्त तक एक समान रहता है, किन्तु अग्नि का जीवन प्रकट होता और लुप्त होता रहता है। अग्नि के संमिधन की मर्यादा समिधाओं के परिणाम पर निर्भर करती है। सूर्य को परमेष्ठी का सोम निरन्तर प्राप्त होता रहता है। इस सोम समुद्र के मंथन से जो उष्णता उत्पन्न होती है, वही अग्नि है। उसे ही ‘अभिद्ध तप’ कहा गया है। उसी की एक चिन्गारी सूर्य है।

ऐसे कोटि-कोटि सूर्यों का ताप परमेष्ठी के गर्भ में है। मंथनात्मक तप का स्वरूप गति है। गति और आगति के द्वन्द्व से ही मंथन होता है। गति को रजस् या अक्षर भी कहते हैं। क्षोभ ही विश्व का मूल है। यही रुद्र का मन्यु है। विश्व को रजस् या गति का विमान (मापना) कहा गया है। विश्व की समस्त क्रियाएं-गतिविधियां ‘गति’ में समाहित रहती हैं।
सृष्टि और प्रलय की धूप-छांव कालचक्र के ही दो अद्र्धांश हैं। आतप या धूप की संज्ञा शुक्ल रजस् है और छाया की कृष्ण रजस्। शुक्ल और कृष्ण ये ही दो रजस् अक्षर या गति के रूप हैं। इसी से कालचक्र का परिभ्रमण सम्भव होता है।

इस परिभ्रमण से जिस वैश्वानर अग्नि का जन्म होता है, वह अपनी ज्योति के साथ तम को भी लिए हुए है। तम और ज्योति दोनों का विभाग गति में है। स्वयं अग्नि तो ज्योति है, किन्तु जैसे ही भूतों के साथ उसका सम्पर्क होता है, तुरन्त तम या छाया आ जाती है। छाया ही मृत्यु है। तभी चक्र का पूरा रूप बनता है।

क्रमश:
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