आज्य (घृत) तेजो द्रव्य होने से आग्नेय है। दधि सौम्य होने से योषा है। प्रकृति यज्ञ में दधि-घृत-मधु-अमृत समुद्र हैं। पृषदाज्य अन्न है। दूध से दही तथा घी बनता है। अत: यह दही तथा घी दूध की परिपाक अवस्था हैं। सामान्यत: दूधिया कच्चा अन्न मानव के उपभोग के योग्य नहीं माना जाता। खेत में पकने के बाद ही वह खाने योग्य बनता है। आटे में जो कणात्मक घन भाग है वही दधि भाग होता है। यह मानव के मांस-अस्थि आदि घन भावों का उपकारक बनता है। आटे को गूंथने में जो स्नेहन भाग होता है अथवा लोच होता है। वही घृत का अंश है। दधि भाग पार्थिव द्रव्य और घृत भाग आन्तरिक्ष्य द्रव्य है।
पृषदाज्य रूप अन्न के भोग से रस-मांस आदि धातुएं बनती हैं। अन्न ऊर्क रस बनता है और प्राण रूप हो जाता है। अत: पृषदाज्य प्राण रूप है-प्राणो हि पृषदाज्यम्। अन्नं हि पृषदाज्यम्। अन्नं हि प्राण:। पृषदाज्य के सम्बन्ध से अध्वर्यु (यज्ञकर्ता पुरोहित) दिव्यात्मा के पशुओं में प्राण का ही आधान करता है।
पार्थिव प्राण के ३३ विभाग हैं और चतुर्थ लोक तक स्थित हैं। ये प्राण सौम्य त्रिलोकी में ३३वें स्तोम (विष्णु) तक जाते हैं। अर्थात् पृथ्वी का अपना प्राण ही ३३ अहर्गण रूप में विस्तारित होता है। इसी प्रकार शरीर में भी गुदा से नाभि तक पृथ्वीलोक, नाभि से हृदय तक अन्तरिक्ष, हृदय से कण्ठ तक द्युलोक, कण्ठ से ब्रह्म रंध्र तक चतुर्थ आपोलोक है। पार्थिव अग्नि जैसे ३३ प्राणों की स्थिति आपलोक तक हैं, उसी प्रकार शरीर में पार्थिव गुद-प्राण सब प्राणों का मूल है-प्राणो वै गुद:। गुद प्राण ही पुच्छ प्रतिष्ठा है। इसका केन्द्र मूलाधार चक्र, गुद-स्थानीय होता है। गुद प्राण स्वरूप है। पशु का पशुत्व इसी गुद-प्राण पर ही आधारित है। जब तक प्राण का प्राणन् चलता है, तभी तक पशु जीवन है। अत: गुद-प्राण ही पशु है।
यज्ञ में अग्नि-सोमीय पशु (आहार/भोग्य) का गुद सर्वश्रेष्ठ माना गया है। पृथ्वी के प्राण पशु प्राण हैं। अत: सभी पार्थिव प्राणी पशु कहलाते हैं। जो भोग्य है, वह भी पशु है। सर्वमिदं अन्नं सर्वमिदं अन्नाद:।
अग्नि-सोम (ष्टोम) याग में ११ प्रयाज, ११ अनुयाज, ११ उपयाज होते हैं। जो प्राण आत्मा की गति में अनुगत (सहायक) होकर आत्मा का अन्न बनते हैं, उन्हें प्रयाज कहते हैं। जो प्राण शरीरआत्मा की गति में सहायक होकर शरीरआत्मा का अन्न बनते हैं, उन्हें अनुयाज कहते हैं। जो प्राण शरीर की गति में अनुगत होकर शरीर के अन्न बनते हैं, वे उपयाज कहलाते हैं।
अनुयाज पशु का हृदय से ऊपर का भाग है, अत: अध्वर्यु पहले पृषदाज्य से अनुयाज करता है। उपयाज पशु का हृदय से गुदा तक नीचे का भाग है। ऋत्विग यहां उपयाज करके प्राणों का आधान करता है। इस प्रकार उदान और प्राण दोनों का आधान हो जाता है। अनुयाज को अध्वर्यु करता है एवं उपयाज को प्रतिप्रस्थाता (यजमान) सम्पन्न करता है। अनुयाज में पृषदाज्य द्वारा प्रजनन क्रिया का सम्पादन होता है। उपयाज से दिव्यात्मा का उत्पादन होता है। प्रजनन क्रिया के बाद ही योषाएं प्रजा उत्पन्न करती हैं।
प्रजोत्पत्ति में सात उपयाजों की आवश्यकता होती है। गर्भाधान से प्रसव होने तक सात व्यापार ही उपयाज कहलाते हैं। इनमें प्रथम व्यापार रेत सेचन है। यह रेतस् सोम है, आप: है। हमारे अन्न से ही अन्तिम धातु शुक्र का निर्माण होता है। आप: ही मैथुनी सृष्टि का उपक्रम है। अप् तत्त्व ही समुद्र है, वही शुक्र है। अप् ही पांचवी आहुति में प्रजारूप धारण करता है। अत: समुद्र रूप से योनि में ‘समुद्रं गच्छ स्वाहा’ मंत्र के उच्चारण के साथ सिंचन करता है। गर्भ का आधान तभी संभव है जब गर्भाशय रिक्त हो, खाली स्थान में हीं सिंचन संभव है। अत: पुरुष ‘अन्तरिक्षं गच्छ स्वाहा’ के उच्चारण के साथ दिव्य आत्मा रूप प्रजोत्पत्ति हेतु रेत को गर्भ में प्रतिष्ठित करता है।
रेत गर्भाशय में नौ मास में पुष्ट हो जाता है। सभी अवयवों से पूर्ण होकर प्रजा स्वरूप धारण करता है तब उसे गर्भ से बाहर निकालने वाला प्रेरक वायु सविता कहलाता है- सविता वै देवानां प्रसविता। अत: ‘देवं सवितारं गच्छ स्वाहा’ मंत्र के साथ तीसरी आहुति प्रदान करता है। गर्भ काल में शिशु का श्वास-प्रश्वास आदि व्यापार माता पर आश्रित रहता है। बाहर आने पर सारा व्यापार स्वतंत्र हो जाता है। सूर्य से आने वाला श्वास ‘मित्र’ है, प्राण है। बाहर जाने वाला प्रश्वास ‘वरुण’ है, उदान है। वेद में मित्र को सूर्य तथा वरुण को असुर कहा गया है। उत्पन्न शिशु में प्राण-उदान अथवा श्वास-प्रश्वास का आधान करने के लिए ‘मित्रावरुणौ गच्छ स्वाहा’ मंत्र से आहुति देता है।
गर्भकाल में शिशु को दिन-रात का अग्नि-सोम प्राप्त नहीं होता। बाहर आने पर दोनों स्वतंत्र रूप से प्राप्त होते हैं। अग्नि में सोमाहुति से संवत्सर यज्ञ से प्रजा उत्पन्न होती है। इसी से स्थिति एवं पुष्टि होती है। इस प्रजा को अहोरात्र का रस प्राप्त होता है। वैधयज्ञ से उत्पन्न होने वाले देवात्मा में अहोरात्र रस का आधान करने के लिए ‘अहोरात्रे गच्छ स्वाहा’ से यजन किया जाता है।
गर्भकाल में शिशु माता के गर्भ (छन्द) से छन्दित (आवरित) रहता है, अत: परछन्दा है। गर्भ में उसकी भूख आदि की पूर्ति मां के द्वारा ही होती है। बाहर आते ही स्वच्छन्दा हो जाता है। अब उसकी भूख, प्यास आदि की पूर्ति हेतु उसे छन्द सम्पत्ति की आवश्यकता होती है। अत: ‘छन्दांसि गच्छ स्वाहाÓ मंत्र से आहुति देता हुआ शिशु को छन्द सम्पत्ति से युक्त करता है। यह छठी आहुति है। सीमा या छन्द दो प्रकार का होता है-शब्द छन्द और अर्थ छन्द। शब्द छन्द अक्षर-संस्था पर आधारित है। अर्थ छन्द भी शब्द छन्द जितने ही तत्त्वों का होता है। गायत्री छन्द में आठ अक्षर होते हैं। अर्थरूप पृथ्वी गायत्री कहलाती हैं। उसमें भी आठ अवयव होते हैं-अप्, फेन, मृत्, सिकता, शर्करा, अश्मा, अयस्, हिरण्य। आठ वसुओं के कारण अग्नि को गायत्र छन्द कहा जाता है। इसी प्रकार उष्णिक्, अनुष्टुप, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप् और जगती भी शब्द-अर्थ रूप छन्द ही हैं।
बाहर आकर शिशु पृथ्वी और आकाश के मध्य आ जाता है। पृथ्वी और आकाश के आकर्षण से युक्त होने पर मनुष्य अपनी स्व स्थिति बनाए रखने में समर्थ होता है। पार्थिव आकर्षण के कारण वह आकाश में नहीं उड़ता और आकाशीय आकर्षण से युक्त होने से वह जमीन से बिलकुल नहीं चिपकता। अत: शिशु को द्यावापृथ्वी रूप सम्पत्ति प्राप्त हो, इस अभिलाषा से ‘द्यावापृथिवी गच्छ स्वाहाÓ मंत्र द्वारा सप्तम उपयाज करता हुआ द्यावापृथिवी से परिग्रहीत कर लेता है।
इस प्रकार प्राकृतिक यज्ञ में जिस प्रकार सात उपयाज होते हैं। उसी प्रकार नवीन आत्मा को उत्पन्न करने के लिए भी सात ही उपयाज आवश्यक माने गए हैं। आगे वंश लोप न हो इसके लिए चार अत्युपयाज भी किए जाते हैं। ताकि प्रजोत्पत्ति का यह चक्र निरन्तर चलता रहे ।
क्रमश: