पुरुष और स्त्री शरीर के तंत्र भिन्न होते हैं। पुरुष तंत्र में बीज का निर्माण होता है। जठराग्नि में आहूत अन्न से सप्तधातु बनते हैं। अन्तिम धातु रेतस् बीज का संग्राहक तथा बीज समूह बनते हैं। इस द्रव्य में शुक्राणु प्रचुर मात्रा में रहते हैं। इन शुक्राणुओं के रेत (वीर्य) में बीज रहते हैं। इन्हें पुंभ्रूण कहते हैं। इन्हीं को स्त्री के अग्नि कुण्ड में आहूत किया जाता है।
जहां रज की प्रचुरता से स्त्री सन्तान होने के संकेत आते हैं, वहां स्त्री भ्रूण स्त्री के रक्त में ही समाहित हो जाते हैं। मन्थन प्रक्रिया में रक्त से अग्नि प्रज्ज्वलित होता है। इस अग्नि का गमन गर्भाशय में होता है। इसमें उत्पन्न डिम्ब का योग शुक्राणु (किसी एक का) से होता है। दोनों के रेत/रज में पुंभ्रूण (वृषा) तथा स्त्री भ्रूण (योषा) रहते हैं। वृषा का वर्षण ही गर्भाधान का कारण बनता है। मातरिश्वा वायु दोनों का संबंध बनाने वाला माध्यम होता है।
जीव जब नीचे आता है तब उसका स्वरूप सोम आधारित होता है। विरल से तरल होता हुआ घन रूप लेता जाता है। स्वभाव से भी सोम नीचे की ओर ही प्रवाहित होता है। सबसे अधिक घन रूप पंच महाभूत रूप पृथ्वी का होता है। वही लक्ष्मी है, विष्णु के चरण में- ब्रह्माण्ड के अध: स्तर पर रहती है। जल से निर्मित है, अत: विष्णु पत्नी है। हमारे स्थूल शरीर का निर्माण भी इसी आधार पर पृथ्वी रूप (मिट्टी) बनता है। पुन: ऊपर की ओर नहीं जा सकता। यहीं, अन्त में, अग्नि को समर्पित कर दिया जाता है।
इसके विपरीत आत्मा शाश्वत संस्था है। अग्नि प्राण रूप है। इसे ऊपर जाना है। अत: जीव (प्राण) के जाने का ऊध्र्व मार्ग भी मां के शरीर में ही तैयार होता है। यह मार्ग पुत्र/पुत्री दोनों के शरीरों की आवश्यकता है। वंशवृद्धि के लिए प्राण का अधोगमन केवल पुरुष की आवश्यकता है।
अग्नि सदा ऊपर उठता है। जैसे-जैसे अग्नि घन से तरल होता है, अन्तरिक्ष में बहता है। विरल होकर आदित्यों के बीच से गुजरता हुआ सूर्य में समा जाता है। यही अग्नि की स्वत: स्फूर्त अन्तिम पहुंच है जबकि पहुंचना स्वयंभू से आगे है-परात्पर तक, जहां ब्रह्म और माया अलग प्रतीत हो जाते हैं। यहीं माया को पुन: ब्रह्म में लीन होना है। ब्रह्म अद्वय है। यही पुरुष बीज के रेत में सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त रहता है।
आत्मा भी प्राण रूप है। मन-प्राण-वाक् रूप है, षोडश कल है। इसमें मूलत: कारण शरीर और सूक्ष्म शरीर विचरण करते हैं। क्षर शरीर बदलता जाता है। कारण शरीर में संचित कर्म रहते हैं। यह आत्मा जब शरीर छोड़ता है, तब भी कहा जाता है कि – ‘प्राण निकल गए’।
मूल में प्राण तो एक ही है- ब्रह्म। शेष उसी के विवर्त होते हैं। एक प्राण रूप पिता को सन्तान से बांधे रखता है। पिता के प्राण तो बीज रूप में पुत्र से सदा जुड़े ही रहते हैं। पुत्र में ही निहित रहते हैं। पुत्री में न रहकर पिता में ही प्रतिष्ठित रहते हैं। शास्त्र कहते हैं कि स्त्री का रक्षक पीहर में पिता तथा ससुराल में वर होता है।
यही कारण है कि कन्यादान में पिता कन्या के प्राणों का दान वर को करता है। यही प्राकृतिक यज्ञ की निरन्तरता का आधार बनता है। सौम्या स्त्री को आग्नेय वर के प्राणों में आहूत ही रहना है। बिना कन्यादान के स्त्री ससुराल के बन्धनों से स्वतंत्र भी रहेगी और पीहर पक्ष से अलग भी नहीं होगी।
प्राण अदृश्य है, आत्मा अदृश्य है, ब्रह्म अदृश्य है। अत: प्रजनन की सारी प्रक्रियाएं भी अदृश्य हैं। गर्भाशय ही वह प्रयोगशाला है, जहां ये सारी क्रियाएं घटित होती हैं। साथ ही स्थूल शरीर का भी निर्माण होता है। स्थूल शरीर अन्नमय कोश है। इसके भीतर प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय तथा आनन्दमय कोशों का भी निर्माण आत्मा के चारों ओर होता है।
इन कोशों के बीच आदान-प्रदान के सेतु तथा विभिन्न स्पन्दनों-गतियों का तंत्र भी तैयार होता है। मन में उठने वाले विचारों को ध्वनि रूप देना भी एक स्वतंत्र तंत्र है। इस प्रकार प्रत्येक इन्द्रिय और इन्द्रियमन-सर्वेन्द्रिय मन-बुद्धि-आत्मा के संवाद तंत्र का विकास होता है। ये प्राणों का तंत्र है।
इस संवाद के अभाव में एक पक्षीय विकास होता है जीव की संवेदनाओं का। मां का मन स्थूल मन है, जीव का मन सूक्ष्म है। मां को भी इन्द्रिय मन के भीतर सर्वेन्द्रिय मन में जाना होता है। बुद्धि को संयुक्त करना पड़ता है। यह भी एक तरह का ध्यान ही है।
जीव की सारी इच्छाएं कारण शरीर में होती हैं। मां की इच्छाएं दोनों शरीरों (कारण तथा स्थूल शरीर) में रहती हैं। स्थूल शरीर की इच्छाएं जीव तक नहीं पहुंचती। अवचेतन मन ही सम्बन्ध बनाता है। अत: अधिकांशत: मां के साथ का संवाद स्वप्न के माध्यम से ही हो पाता है।
मां जाग्रत अवस्था में कितना याद रख पाती है, कितने स्वप्नों के अर्थ समझ पाती है, उसी पर अगला संवाद स्वरूप लेता है। गर्भकाल में मां को अन्तर्मुखी बनकर रहना भी अनिवार्य है। यही उसकी साधना और निर्माण का काल है।
जीव के गर्भाशय में प्रवेश के साथ माता के स्वभाव, व्यवहार और स्वप्न-सुषुप्ति में बड़ा परिवर्तन आता है जिसके आधार पर माता भीतर की गतिविधियों अथवा परिवर्तनों को समझ पाती है। यदि मां बाहरी विषयों में व्यस्त रहती है तो जीव के साथ कोई संवाद संभव नहीं है।
अर्थात् मां ने मन में किसी इच्छा विशेष का बीजारोपण ही नहीं किया। मां माली है। कामना के बीज बोती है, उनका पोषण करती है। यही तो संस्कार निर्माण का मार्ग है। जीव की कामनाओं को सत्व गुणों में पिरोना, त्रिगुणातीत भी कर सकती है यदि दीक्षित है तो। यही सिंचाई का काम है। मां ही अपने पंचभूत शरीर से संतान के पंचभूत शरीर की चिनाई करती है। उसका यह कार्य मृत्युपर्यन्त चलता है।
वह प्राणरूप में, पिता की तरह ही सन्तान के शरीर में नित्य प्रवाहित रहती है। मां की सर्वाधिक प्रसन्नता प्रकृति भाव में होती है जहां उसका मातृत्व-स्त्रैणभाव हिलोरें लेता है। वह पुरुष की पूरक रूप में कार्य कर रही है। बीज को ग्रहण करके उसे पुष्पित-पल्लवित कर रही है जो आगे जाकर उसके पुरुष का प्रतिनिधि बनेगा। खानदान के संस्कारों से सुशोभित होगा। मेरे जीवन को अमृत से भर देगा।
मैं उस रसमय ब्रह्म को गोद में खिलाऊंगी, लोरियां सुनाऊंगी। माता के विचार, मानस संवाद ही जीव के मन में संवेदना भरते हैं। मानवीय मन का निर्माण करते हैं। सारे प्राण मन का ही अनुसरण करते हैं। मन में उठने वाली इच्छा ही प्रकृति है। मन के केन्द्र में अव्यय पुरुष प्रतिष्ठित है। पुरुष और प्रकृति ही मिलकर स्थूल जीवन का संचालन करते हैं।
क्रमश:
‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ श्रृंखला में प्रकाशित अन्य लेख पढ़ने के लिए क्लिक करें नीचे दिए लिंक्स पर –