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वाक् : शब्द भी-अर्थ भी

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: सृष्टि दो प्रकार की होती है। एक अर्थरूप भूत सृष्टि और दूसरी शब्द रूप वाक् सृष्टि। दोनों का ही आधार ‘अक्षर’ है। इसको परब्रह्म कहते हैं। इसका आलम्बन अव्यय पुरुष होता है। अव्यय और अक्षर नित्य संस्थाएं हैं। अव्यय की पांच कलाओं-आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण और वाक् में से प्राण और वाक् ही अक्षर कहलाते हैं… ‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ श्रृंखला में पढ़ें पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख-

Dec 31, 2022 / 10:19 am

Gulab Kothari

वाक् : शब्द भी-अर्थ भी

Gulab Kothari Article शरीर ही ब्रह्माण्ड: सृष्टि दो प्रकार की होती है। एक अर्थरूप भूत सृष्टि और दूसरी शब्द रूप वाक् सृष्टि। दोनों का ही आधार ‘अक्षर’ है। इसको परब्रह्म कहते हैं। इसका आलम्बन अव्यय पुरुष होता है। अव्यय और अक्षर नित्य संस्थाएं हैं। अव्यय की पांच कलाओं-आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण और वाक् में से प्राण और वाक् ही अक्षर कहलाते हैं। अक्षर की पांच कलाओं-ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, अग्नि और सोम में से अग्नि और सोम के कारण क्षर का निर्माण होता है। अक्षर का ऊध्र्व भाग अमृत और अधोभाग मत्र्य (मरणधर्मा) कहलाता है। क्षर से ही मत्र्य सृष्टि (विश्व) का निर्माण होता है। अक्षर इस के पीछे कारण है। अक्षर ही शब्द सृष्टि का भी कारण है। उच्चारण स्थानों, आभ्यान्तर व बाह्य प्रयत्नों और स्वर तथा व्यंजनों के संयोग से शब्द की अभिव्यक्ति होती है। कहा भी है-
चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुब्र्राह्मणा ये मनीषिण:।
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति। (ऋग्वेद-1-164-45)
अर्थात्-वाणी के चार पद होते हैं, जिन्हें मनीषी जानते हैं। इनमें तीन गुप्त रहते हैं तथा चौथा तुरीय वाचा मनुष्य बोलता है।


शब्द वाक् के तीन स्वरूप-व्यवहारगत दिखाई पड़ते हैं। वैखरी-बाहर बोलने वाला, उपांशु-मुख में रमण करने वाला और मानस-भीतर चलता रहने वाला। उपांशु में वाक् का वह स्वरूप होता है जिसमें शब्द, भाषा, विचार, पढऩा, सुनना आदि सम्मिलित होता है। यह वाक् बाहर नहीं, भीतर सुनाई देती है। अन्य को सुनाई नहीं देती है।

उपांशु मन का क्षेत्र है। यहां प्रत्येक ध्वनि, स्मृति, कल्पना आदि का संग्रह आत्मा के साथ चलता है। यही इच्छाओं का धरातल है। बन्धन और मुक्ति का केन्द्र है। ये इच्छाएं ही शरीर में अभिव्यक्त होती हैं। हर विचार के साथ उसी का द्वैत भाव भी उठता रहता है। यह भ्रमित करने का कार्य करता है। भय, क्रोध, लोभ आदि नकारात्मक भाव भी यहीं विचारों से जुड़ जाते हैं।

द्वैत अथवा विरोधी भाव विचारों में उद्वेलन का मुख्य कारण हैं। स्मृति की भूमिका भी इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होती है। शब्द ‘संयोग’ और ‘विभाग’ से एक जगह उत्पन्न होकर चारों ओर फैलता है। जब वह कान से टकराता है तब हमें शब्द की प्रतीति होती है।

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जीवन का नित्य संचालन मध्यमा से होता है। बिना विचार के जीवन नहीं चलता। बिना आदान-प्रदान के ठहराव आ जाएगा। अब तो लिखना-पढऩा भी जुड़ गया। उपासना, जप, प्रार्थना, भक्ति, संगीत सभी कुछ शब्दों के संसार का अंग हैं। हम कह सकते हैं कि मन और शब्द अविनाभाव हैं। मन को व्यक्त होने के लिए शरीर तक पहुंचना पड़ता है। यह प्राणों की क्रिया है। मन के विचार शरीर तक पहुंचकर या तो वैखरी में प्रकट होते हैं, अथवा क्रिया रूप होकर अर्थ वाक् बन जाते हैं।

जहां क्रिया है, वहां शब्द भी है। क्रिया तथा शब्द की गति के साथ-साथ भावना/अनुभव भी साथ चलते हैं। अर्थात क्रिया, भाव तथा शब्द अभेद हैं। इनमें से किसी एक में भी यदि परिवर्तन हो सके तो शेष दोनों भी बदल जाएंगे। ध्वनि का उच्चारण व्यक्ति के भाव का तथा भाव क्रिया का परिवर्तन कर देते हंै। इसी प्रकार भाव द्वारा क्रिया का परिवर्तन भक्ति योग में किया जाता है।

श्वास के ग्रहणकाल में ‘अ’ ध्वनि तथा निष्क्रमण काल में ‘ह्’ ध्वनि का अस्तित्व रहता है। बोध रूपी अनुस्वार से मिलकर अहम् बनता है। क्रिया एवं विचारों से बाहर निकलना ही ध्यान मार्ग को प्रशस्त करना है। निश्चित है कि इसके साथ स्वत: ही शब्द-सृष्टि भी पीछे छूट जाएगी। मन के पार जाना पड़ेगा, जिसकी चंचलता को रोक पाना सहज नहीं है।

सभी ध्वनियों एवं श्वसन क्रिया को शान्त करना पड़ता है। तब जाकर व्यक्ति भीतर की ओर मुंह करता है। सहज नहीं है। वैखरी शरीर अथवा अन्नमय कोश का अंग दिखाई पड़ती है। मध्यमा मन का धरातल है। दोनों ही मूल में बहिर्मुखी हैं। व्यक्ति को बाहरी विषयों से बांधे रहते हैं। इनका सम्बन्ध सूक्ष्म से भी रहता है, किन्तु अहंकार सूक्ष्म को पकडऩे नहीं देता।

उदाहरण के लिए जब हम भोजन करने बैठते हैं, तब शरीर कहता है कि कौन-सी वस्तु या कौन-सा व्यंजन शरीर की आवश्यकता नहीं है। कितने लोग इस आवाज को सुनकर उस व्यंजन को थाली से बाहर निकाल देते हैं? जब भी किसी अनजान व्यक्ति के पास बैठते हैं, तब शरीर के स्पन्दन व्यक्ति के अच्छे/बुरे होने की जानकारी देते हैं। क्या हम सुन पाते हैं?

कहीं दूर बैठा व्यक्ति हमें याद करता है अथवा कष्ट के क्षणों में आवाज लगाता है, तब क्या हमारे मन तक वह आवाज पहुंच जाती है? नहीं! क्योंकि इसके लिए आवश्यक है कि हम स्वयं को निर्विचार रखने का, साक्षी भाव बनाए रखने का, शरीर को अनावश्यक क्रियाओं से मुक्त रखने का अभ्यास बनाए रखें। जैसे ही शरीर शिथिल होगा, श्वास मन्द होगा और सारी क्रियाएं भी मन्द हो जाएंगी, तब चेतना अथवा बोध का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा।

भारत में साक्षी भाव एवं एकाग्रता के अभ्यास के लिए त्राटक* का प्रयोग कराया जाता है। एकाग्रता अन्तत: विलीन हो जाती है। भ्रू-मध्य पर ध्यान का अभ्यास भी व्यक्ति को इड़ा-पिंगला से निकालकर सुषुम्ना में प्रवेश करा देता है। एकाग्रता समय तथा अभ्यास के साथ गहन होती जाती है। तब इस केन्द्र पर चित्र उभरते हैं। शब्द और ध्वनि पीछे छूट जाते हैं। शरीर-मन तो छूट ही चुका है।

स्वयं का बोध, यथार्थ दृष्टि का प्रादुर्भाव होता है। व्यक्ति स्वयं को आवरण मुक्त पाता है। मानस-जाप के कारण विज्ञानमय कोश का मार्ग खुल जाता है। शुद्ध चेतना ही ईश्वर का अंश है। सम्पूर्ण प्रकृति व्यक्ति के भ्रू-मध्य में स्पष्ट चित्रित हो जाती है। शब्द और चित्र साक्षात् हो उठते हैं। ज्ञान के सहारे व्यक्ति त्रिगुण से बाहर हो कर आनन्द में लीन हो जाता है। यह सारा चित्रमय संसार पश्यन्ति का क्षेत्र है। इच्छा के साथ विषय की उपलब्धता प्रकट हो जाती है। और यह सब वाक् के सहारे सम्भव हो पाता है।

व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य पुरुषार्थ होता है। अर्थ एवं काम उसके मूल अध्यवसाय हैं। किन्तु इनका आधार यदि धर्म है, तभी व्यक्ति सफलता के शिखर को छू सकता है। व्यक्ति के आचरण का सूक्ष्म धरातल या कारण उसका धर्म ही होता है। वही प्राण रूप होकर उसके चिन्तन-मनन में अभिव्यक्त होता है। जीवन के प्रति उसको जागरूक रखता है।

बिना धर्म के न तो जागरण (चेतना का) सम्भव है और न ही स्वयं का स्वरूप-ज्ञान सम्भव है। शब्द और अर्थ (पदार्थ) में भेद नहीं होता। यह बात स्थूल दृष्टि से भले ही समझ में न आए, किन्तु जैसे-जैसे व्यक्ति स्वयं का आकलन करता जाता है, उसे स्वयं के बारे में अनेक रहस्यों का ज्ञान होता जाता है।

सबसे पहले उसे शरीर को जानना है। भीतर को समझने का तथा भीतर प्रवेश का मार्ग शरीर ही है। आत्मा ब्रह्म है, माया शरीर है। आत्मा की चेतना के कारण शरीर जड़ होते हुए भी चैतन्य जान पड़ता है। सृष्टि में माया का स्वरूप स्पन्दनात्मक है। संकुचन-प्रसरण है। यही सृष्टि सम्प्रेषण का मूल आधार भी है।

समझने की बात यही है कि जिस धरातल पर स्पन्दन हैं, वहां शब्द नहीं होते। स्पन्दनों का, प्राणों का, सम्प्रेषण का आधार हमारे श्वास-प्रश्वास होते हैं। यदि कोई ज्ञान हमारी इन्द्रियों की पकड़ से बाहर है तो वह हमारे मन तक नहीं पहुंच सकता। श्वास-प्रश्वास वायु के कारण नहीं होते। वायु तो हर रिक्त स्थान में रहता ही है।

इसका कारण गोपीनाथ कविराज के शब्दों में सहस्रार है। इनके स्पन्दन ही अहम् कहलाते हैं। इसकी मात्रा के अनुरूप हमारे ज्ञान एवं भाव में बदलाव आता है। इस स्पन्दनात्मक सत्ता का आधार निष्क्रिय सत्ता को कहा है। यही मूल अहम् है। क्रियात्मक देह के केन्द्र में निष्क्रिय आत्मा है।

सबसे पहले उसे शरीर को जानना है। भीतर को समझने का तथा भीतर प्रवेश का मार्ग शरीर ही है। आत्मा ब्रह्म है, माया शरीर है। आत्मा की चेतना के कारण शरीर जड़ होते हुए भी चैतन्य जान पड़ता है। सृष्टि में माया का स्वरूप स्पन्दनात्मक है। संकुचन-प्रसरण है। यही सृष्टि सम्प्रेषण का मूल आधार भी है।

समझने की बात यही है कि जिस धरातल पर स्पन्दन हैं, वहां शब्द नहीं होते। स्पन्दनों का, प्राणों का, सम्प्रेषण का आधार हमारे श्वास-प्रश्वास होते हैं। यदि कोई ज्ञान हमारी इन्द्रियों की पकड़ से बाहर है तो वह हमारे मन तक नहीं पहुंच सकता। श्वास-प्रश्वास वायु के कारण नहीं होते। वायु तो हर रिक्त स्थान में रहता ही है।

इसका कारण गोपीनाथ कविराज के शब्दों में सहस्रार है। इनके स्पन्दन ही अहम् कहलाते हैं। इसकी मात्रा के अनुरूप हमारे ज्ञान एवं भाव में बदलाव आता है। इस स्पन्दनात्मक सत्ता का आधार निष्क्रिय सत्ता को कहा है। यही मूल अहम् है। क्रियात्मक देह के केन्द्र में निष्क्रिय आत्मा है।
क्रमश:

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