रस से बल की ओर जाना सिसृक्षा (सृष्टि करने की इच्छा) कही जाती है। बल से रस की ओर प्रवृत्ति ही मुमुक्षा (मोक्ष की इच्छा) कहलाती है। अश्वत्थ का आधा भाग ब्रह्माश्वत्थ तथा आधा भाग कर्माश्वत्थ कहलाता है। ब्रह्म कर्म च मे दिव्यं – इस सिद्धान्त के अनुसार अव्यय के ये ही दो दिव्य रूप हैं।
इनमें अव्यय की आनन्द-विज्ञान और मन रूप तीन कलाएं विद्याभाग अर्थात् ब्रह्म है, मुमुक्षा रूप हैं। मन-प्राण-वाक् ये तीन कलाएं अविद्या भाग अर्थात् कर्म है, सिसृक्षा रूप हैं। ये ही आत्मा रूप में सम्पूर्ण चराचर में अवस्थित हैं। इसी कारण कृष्ण कह रहे हैं कि इस संसार में जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही सनातन अंश है परन्तु वह प्रकृति में स्थित मन और पांचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है-
ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:।
मन:षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।। गीता 15.7
इसी बात को गीता में अर्जुन को समझाते हुए कृष्ण कहते हैं कि संसार वृक्ष के गुणों से बढ़ी हुई तथा विषयरूप कोपलों वाली शाखाएं नीचे, मध्य में और ऊपर सब जगह फैली हुई है। मनुष्य लोक में कर्मों के अनुसार बांधने वाले मूल भी नीचे और ऊपर व्याप्त हो रहे है।
इस संसार वृक्ष का न आदि है, न अन्त है। अत: इस दृढ़मूल वृक्ष को असंगतारूप रूप शस्त्र से काटकर परमात्मा की शरण में जाना चाहिए ताकि संसार में लौटकर न आना पड़े।
इसके जानने के पांच प्रकार हैं-श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका। इसके छ: स्वभाव हैं-पैदा होना, रहना, बढऩा, बदलना, घटना, और नष्ट हो जाना। इस वृक्ष की छाल हैं सात धातुएं-रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, और शुक्र। आठ शाखाएं हैं-पांच महाभूत, मन, बुद्धि, और अहंकार।
इसमें मुख आदि नौ द्वार हैं। प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनञ्जय-ये दस प्राण ही इसके दस पत्ते हैं। इस संसाररूप वृक्ष पर दो पक्षी हैं-जीव और ईश्वर।
यह संसारवृक्ष अनादि और प्रवाहरूप से नित्य है। इसका स्वरूप ही है-कर्म की परम्परा तथा इस वृक्ष के फल-फूल हैं-मोक्ष और भोग। यह विशाल वृक्ष सूर्यमण्डल तक फैला हुआ है।
‘अध: स्विदासीदुपरिस्विदासीत् ‘ (ऋग्वेद मं. 10.129.5) इस सिद्धान्त के अनुसार अश्वत्थ वृक्ष की अनेक टहनियां हैं। टहनी को वैदिक परिभाषा में ‘बल्शाÓ कहते हैं। एक अव्यय पुरुष में कुल सहस्र बल्शाएं मानी जाती हैं। सहस्र शब्द अनन्त के लिए प्रयोग होता है।
बल्शा या शाखा के दो रूप हैं-एक पिण्डगत तथा दूसरा ब्रह्माण्डगत। शरीर, मन, बुद्धि, महान् और अव्यक्त ये पिण्डगत पांच पर्व हैं। दूसरे ब्रह्माण्डगत पर्व स्वयंभू, परमेष्ठी, सूर्य, चन्द्रमा तथा पृथ्वी हंै। इन्हीं पंचपर्वों को क्रमश: अव्यक्त आत्मा, महान् आत्मा, विज्ञान आत्मा, प्रज्ञान आत्मा और भूतात्मा कहा जाता है।
हमारे अध्यात्म में स्थूल, सूक्ष्म और कारण—ये तीन प्रकार के शरीर कहे गए हंै। इनमें कारण शरीर आयुमय, सूक्ष्म शरीर इन्द्रियरूप तथा स्थूल शरीर रस-रक्त-मांसादि धातुरूप है। इन तीनों शरीरों का निर्माण क्रमश: आदित्यमय द्युलोक, वायुमय अन्तरिक्ष तथा अग्निमय पृथ्वी से होता है। मनुष्य शरीर के पंचकोशों में अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोश हैं।
संहिता दृष्टि से मनुष्य घन, तरल, विरल और वैद्युत पदार्थों का संघात मात्र नहीं है। न उसे केवल इच्छाओं, भावनाओं, विचारों एवं क्रियाओं की पेटी कहना पर्याप्त है। कुछ लोग इसे हाड़-मांस की मशीन या सामाजिक पशु मानते हैं। ये सब उसके अन्नमय, प्राणमय और मनोमय कोश के आगे नहीं जाती।
इन अव्यक्त और व्यक्त स्तर को जोडऩे वाला विज्ञानमय कोश है। यही बुद्धि तत्त्व है। इन पांचों कोशों के भीतर रहकर इनको संचालित करने वाला अव्यक्त तत्त्व वही अव्यय पुरुष है। यह मानव में जीवात्म रूप में विद्यमान रहता है। विषय तथा भोगों से सम्बद्ध होकर सकाम कर्म करता है। इसके परिणामस्वरूप ही जीवात्मा पर कर्मों के फल चढ़ जाते हैं।
मानव, जन्म से मृत्युपर्यन्त जो भी कर्म करता है, उन कर्मों का संचय आत्मा में हो जाता है। इस आत्मा के पांच कोशों की सहायता से मानव कर्म करता है तथा इनके फलों को संग्रहित कर मृत्यु पश्चात् अपनी अगली यात्रा पर निकल जाता है।
क्रमश:
इनमें अव्यय की आनन्द-विज्ञान और मन रूप तीन कलाएं विद्याभाग अर्थात् ब्रह्म है, मुमुक्षा रूप हैं। मन-प्राण-वाक् ये तीन कलाएं अविद्या भाग अर्थात् कर्म है, सिसृक्षा रूप हैं। ये ही आत्मा रूप में सम्पूर्ण चराचर में अवस्थित हैं। इसी कारण कृष्ण कह रहे हैं कि इस संसार में जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही सनातन अंश है परन्तु वह प्रकृति में स्थित मन और पांचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है-
ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:।
मन:षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।। गीता 15.7
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ब्रह्माण्ड : एक संहिता
जीव ईश्वर का अंश होने के कारण ब्रह्म और कर्म दोनों भावों से समन्वित रहता है। जीव की आत्मगति का सम्बन्ध इसी कर्माश्वत्थ से है। यदि जीव विद्याभाग को बढ़ाकर अपने कर्माश्वत्थ को छिन्न-भिन्न कर देता है तो जीव ब्रह्म के साथ एकीभाव को प्राप्त होता हुआ विमुक्त हो जाता है।इसी बात को गीता में अर्जुन को समझाते हुए कृष्ण कहते हैं कि संसार वृक्ष के गुणों से बढ़ी हुई तथा विषयरूप कोपलों वाली शाखाएं नीचे, मध्य में और ऊपर सब जगह फैली हुई है। मनुष्य लोक में कर्मों के अनुसार बांधने वाले मूल भी नीचे और ऊपर व्याप्त हो रहे है।
इस संसार वृक्ष का न आदि है, न अन्त है। अत: इस दृढ़मूल वृक्ष को असंगतारूप रूप शस्त्र से काटकर परमात्मा की शरण में जाना चाहिए ताकि संसार में लौटकर न आना पड़े।
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कर्मों से बंधी पशुयोनियां
श्रीमद्भागवत पुराण में अश्वत्थ का निरूपण करते हुए वेदव्यास कहते हैं कि यह संसार एक सनातन वृक्ष है। इस वृक्ष का आश्रय प्रकृति है। इसके दो फल हैं-सुख और दु:ख। इसकी तीन जड़े हैं-सत्, रज और तम। चार रस है-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।इसके जानने के पांच प्रकार हैं-श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका। इसके छ: स्वभाव हैं-पैदा होना, रहना, बढऩा, बदलना, घटना, और नष्ट हो जाना। इस वृक्ष की छाल हैं सात धातुएं-रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, और शुक्र। आठ शाखाएं हैं-पांच महाभूत, मन, बुद्धि, और अहंकार।
इसमें मुख आदि नौ द्वार हैं। प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनञ्जय-ये दस प्राण ही इसके दस पत्ते हैं। इस संसाररूप वृक्ष पर दो पक्षी हैं-जीव और ईश्वर।
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अग्नि और सोम ही पशु के पोषक
जैसे धागों के ताने-बाने में वस्त्र ओतप्रोत रहता है, वैसे ही यह सारा विश्व परमात्मा में ओतप्रोत है। जैसे सूत के बिना वस्त्र का अस्तित्व नहीं है, किन्तु सूत वस्त्र के बिना भी रह सकता है, वैसे ही इस जगत् के न रहने पर भी परमात्मा रहता है, किन्तु यह जगत् परमात्मस्वरूप ही है-परमात्मा के बिना इसका कोई अस्तित्व नहीं है।यह संसारवृक्ष अनादि और प्रवाहरूप से नित्य है। इसका स्वरूप ही है-कर्म की परम्परा तथा इस वृक्ष के फल-फूल हैं-मोक्ष और भोग। यह विशाल वृक्ष सूर्यमण्डल तक फैला हुआ है।
‘अध: स्विदासीदुपरिस्विदासीत् ‘ (ऋग्वेद मं. 10.129.5) इस सिद्धान्त के अनुसार अश्वत्थ वृक्ष की अनेक टहनियां हैं। टहनी को वैदिक परिभाषा में ‘बल्शाÓ कहते हैं। एक अव्यय पुरुष में कुल सहस्र बल्शाएं मानी जाती हैं। सहस्र शब्द अनन्त के लिए प्रयोग होता है।
बल्शा या शाखा के दो रूप हैं-एक पिण्डगत तथा दूसरा ब्रह्माण्डगत। शरीर, मन, बुद्धि, महान् और अव्यक्त ये पिण्डगत पांच पर्व हैं। दूसरे ब्रह्माण्डगत पर्व स्वयंभू, परमेष्ठी, सूर्य, चन्द्रमा तथा पृथ्वी हंै। इन्हीं पंचपर्वों को क्रमश: अव्यक्त आत्मा, महान् आत्मा, विज्ञान आत्मा, प्रज्ञान आत्मा और भूतात्मा कहा जाता है।
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पशु : अग्नि भी, अन्न भी
यही पांच आत्माएं पिण्ड सृष्टि के विकास की विशेष अवस्थाएं हैं। जो क्रमश: सूक्ष्म से स्थूल भाव में बदलती है। अत: पंचपर्वां, विश्वविद्या या अश्वत्थ विद्या की परिकल्पना में निर्विशेष, परात्पर अव्यय, अक्षर व क्षर इन पांच पर्वों से विश्व का विकास हो रहा है। इनमें अव्यय पर, अक्षर परावर और क्षर अवर कहा जाता है। इन तीनों की समष्टि ही विश्व है।हमारे अध्यात्म में स्थूल, सूक्ष्म और कारण—ये तीन प्रकार के शरीर कहे गए हंै। इनमें कारण शरीर आयुमय, सूक्ष्म शरीर इन्द्रियरूप तथा स्थूल शरीर रस-रक्त-मांसादि धातुरूप है। इन तीनों शरीरों का निर्माण क्रमश: आदित्यमय द्युलोक, वायुमय अन्तरिक्ष तथा अग्निमय पृथ्वी से होता है। मनुष्य शरीर के पंचकोशों में अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोश हैं।
संहिता दृष्टि से मनुष्य घन, तरल, विरल और वैद्युत पदार्थों का संघात मात्र नहीं है। न उसे केवल इच्छाओं, भावनाओं, विचारों एवं क्रियाओं की पेटी कहना पर्याप्त है। कुछ लोग इसे हाड़-मांस की मशीन या सामाजिक पशु मानते हैं। ये सब उसके अन्नमय, प्राणमय और मनोमय कोश के आगे नहीं जाती।
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पंच पशु : मानव सबसे विकसित
इनकी अनेकता को अपने में केन्द्रीभूत करने वाला चौथा कोश ‘विज्ञानमय कोश’ है। इन कोश-चतुष्टय को संहित करने वाला आनन्दमय कोश कहलाता है। प्राणमय, मनोमय एवं अन्नमय कोश व्यक्त हैं। आनन्दमय कोश अव्यक्त है।इन अव्यक्त और व्यक्त स्तर को जोडऩे वाला विज्ञानमय कोश है। यही बुद्धि तत्त्व है। इन पांचों कोशों के भीतर रहकर इनको संचालित करने वाला अव्यक्त तत्त्व वही अव्यय पुरुष है। यह मानव में जीवात्म रूप में विद्यमान रहता है। विषय तथा भोगों से सम्बद्ध होकर सकाम कर्म करता है। इसके परिणामस्वरूप ही जीवात्मा पर कर्मों के फल चढ़ जाते हैं।
मानव, जन्म से मृत्युपर्यन्त जो भी कर्म करता है, उन कर्मों का संचय आत्मा में हो जाता है। इस आत्मा के पांच कोशों की सहायता से मानव कर्म करता है तथा इनके फलों को संग्रहित कर मृत्यु पश्चात् अपनी अगली यात्रा पर निकल जाता है।
क्रमश:
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