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मातृ देह में पितृ प्राण की भूमिका

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: माता के शरीर में अहंकृति से कारण शरीर, प्रकृति से सूक्ष्म शरीर तथा आकृति से स्थूल शरीर बनता है। सारा स्वचालित रहता है। माता को किसी भी प्रकार के प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं पड़ती… ‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ श्रृंखला में पढ़ें पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख-

Jan 29, 2023 / 08:12 am

Gulab Kothari

शरीर ही ब्रह्माण्ड : मातृ देह में पितृ प्राण की भूमिका

Gulab Kothari Article शरीर ही ब्रह्माण्ड: किसी भी यज्ञ की प्रक्रिया को देखें- उसमें पांच अंग होते हैं। ”पांक्तौ वै यज्ञ:”। हमारा जीवन भी एक यज्ञ है। प्रकृति और पुरुष के मध्य जो यज्ञ बनता है, वही ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का कारण है। यज्ञ ही योग है। इसी प्रकार के योग से जीव पृथ्वी पर पैदा होता है। हमने जीव की यात्रा मार्ग पर विचार किया। अब पुन: यात्रा मार्ग का अवलोकन करना चाहिए। क्योंकि यात्रा मार्ग का निर्माण यज्ञ के द्वारा मूलत: स्त्री शरीर में ही निर्मित होता है। पिता का कार्य बीजारोपण तक सीमित है। आगे दो कार्य माता के शरीर में शुरू हो जाते हैं। एक है- शरीर का निर्माण और दूसरा है शरीर में बीज के यात्रा-मार्ग का निर्माण, जिसे स्वतंत्र रूप से पुत्र के शरीर तक पहुंचना है। इसी बीज को कन्या शरीर में जाने से रोकना भी है। वहां बीज की आवश्यकता नहीं है।

प्रश्न उठ सकता है कि पिता के बीज में ऐसा क्या है जो नए जीवन का आधार बनता है। वैसे तो सिद्धान्त रूप से पिता ही सन्तान बनकर जन्म लेता है-पिता वै जायते पुत्र:। फल बीज को ही संरक्षित रखता है। अत: यह तो तय है कि माता के शरीर में भी पुत्र-पुत्री की निर्माण प्रक्रिया में भेद होता है।

माता के शरीर में मातृ पक्ष का प्रभाव अधिक रहता है तथा पितृ पक्ष बीज का आधार होता है। जीव की आरंभिक अवस्था चूंकि मह:लोक से बनती है, अत: ऋषि और पितर का प्रतिबिम्ब रूप तैयार होता है-अत्रिप्राण के कारण। अत्रि प्राण जल की पारदर्शिता को रोककर उसे दर्पण सदृश बना देता है।

चूंकि सूर्य महद् लोक में ही चन्द्रमा और पृथ्वी के साथ परिक्रमा करता है- परमेष्ठी लोक की, अत: इस जीव (दर्पण) पर तीनों पिण्डों के प्रतिबिम्ब अंकित हो जाते हैं। हृदय में ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र रूप अक्षर प्राण प्रतिष्ठित रहते हैं। ये ही तीनों मन-प्राण-वाक् रूप आत्मा बनते हैं। इन्हीं के वर्ण ब्राह्मण-वैश्य-क्षत्रिय वीर्य रूप में जीव में अभिव्यक्त होते हैं।

सूर्य का प्रतिबिम्ब अहंकृति का निर्माण करता है। चन्द्रमा प्रतिबिम्ब प्रकृति-सत्व,रज, तम का निर्माण करता है। पृथ्वी का प्रतिबिम्ब आकृति (योनि के अनुसार) का आधार बनता है। माता के शरीर में अहंकृति से कारण शरीर, प्रकृति से सूक्ष्म शरीर तथा आकृति से स्थूल शरीर बनता है।

सारा स्वचालित रहता है। माता को किसी भी प्रकार के प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं पड़ती। न ही पिता को बीज के निर्माण को समझना पड़ता है। माता-पिता तो थलचर, जलचर, नभचर सभी प्राणियों में होते हैं। प्रक्रिया भेद नहीं है। अहंकृति मूल है। इसी के अनुरूप प्रकृति-आकृति बन जाती है।

जीवन 84 लाख योनियों का चक्र है। मनुष्य अपने कर्मों से ही इनमें भोग भोगता है। जीव नहीं बदलता, शरीर बदलता जाता है। गीता में स्पष्ट कहा है-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृöाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।। (2.22)
-जैसे हम पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र ग्रहण करते हैं, वैसे ही जीवात्मा पुराना शरीर छोड़कर नया ग्रहण कर लेता है।

इस नई आकृति का निर्माण प्रकृति के द्वारा होता है। हम न आकृति को बदल सकते हैं, न ही अहंकृति को। तपस्या से, अभ्यास से प्रकृति को ही बदल सकते हैं। किसी एक को बदलने से शेष दोनों भी बदल जाती हैं। अत: हमारा गर्भाधान संस्कार इस प्रकृति के परिवर्तन का प्रथम सोपान है। इसमें क्रिया से पूर्व हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि ‘हे प्रभु! हम शुद्ध हृदय से कर्म में प्रवृत्त होने जा रहे हैं।

आप से प्रार्थना है कि निर्मल आत्मा को ही हमारे यहां आने को प्रेरित करें।’ आत्मा यदि निर्मल, सत्वगुण वाली होगी तो उसकी अहंकृति-आकृति भी मोहक ही होगी। मनोरंजन के रूप में प्राप्त आत्मा से हमारा सम्बन्ध बन पाए, यह आवश्यक नहीं है। यदि कर्म नशे की अवस्था में होता है तो संतान मानसिक-शारीरिक रूप से विकृत भी हो सकती है।

महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रार्थना में पति-पत्नी दोनों सम्मिलित होते हैं, अत: यही भाव बीज में भी प्रवेश कर जाते हैं। जीव की आत्मा से इन भावों का योग हो जाता है। बीज में पहले से ही सात पीढिय़ों के अंश रहते हैं। इन कुल 28 अंशों में 6 अंश पिता के रहते हैं।

चन्द्रमा का महिना 28 दिनों का होता है। इन 28 दिनों में 28 सह पिण्ड चन्द्रमा से आकर पुरुष शरीर में एक बीजी पिण्ड तैयार करते हैं। स्त्री शरीर में मासिक स्राव के रूप में अत्रि प्राण के दूषण को बाहर करते हैं। इसके बिना जीव को स्वस्थ वातावरण भी प्राप्त होता है। अत्रि प्राण की बहुलता के कारण ही इस काल में स्त्री को खाने-पीने की सामग्री से दूर रखा जाता था, जैसा कि ग्रहण काल में भी खाद्य सामग्री का उपयोग निषिद्ध होता है। हमारा प्रजनन तंत्र पूर्णतया चन्द्रमा पर आधारित है। यही हमारा पितर लोक है।

प्रकृति भाग चन्द्रमा से आता है। चन्द्रमा ही मन का स्वामी है। जल का स्वामी भी है, जिससे पृथ्वी का निर्माण होता है। अत: चन्द्रमा की भूमिका आकृति निर्माण में भी दिखाई पड़ती है। प्रकृति के अनुरूप ही आकृति बनती है। माता के शरीर में आकृति का नक्शा तैयार ही पहुंचता है। इसी के आधार पर जीव के शरीर की चिनाई होती है। पृथ्वी से बनी आकृति भी मिट्टी होती है। घड़े की तरह। पकने में दस मास लगते हैं, क्योंकि पूरे शरीर का निर्माण खण्ड-खण्ड में होता है। बनता जाता है, पकता जाता है।

पिता का रेत सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है, जिस प्रकार दूध में घृत। अत: प्रत्येक अंग का अंश उसमें समाहित रहता है। स्नायु, हड्डी, मज्जा तथा मन (अन्न) माता से प्राप्त होते हैं। त्वक्, मांस, रुधिर, सर्वमय-सर्वज्ञान पिता से आता है। हड्डी-मज्जा ढांचे की चिनाई का मूल एवं स्थायी आधार है। रक्त-मांसादि प्रवाहमान अंग हैं- परिवर्तनीय हैं।

समझना यही है कि माता शरीर का निर्माण करती है, बीज के मानचित्र के हिसाब से और पुन: अपने हृदय को फल के हृदय के लिए मार्ग देती हैं। हृदय (ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र प्राण) में जो ब्रह्मा प्राण है, वही प्रजापति है। परात्पर रूप अव्यय पुरुष का केन्द्र है। प्राण स्वरूप है, देह स्थूल है। एक अक्षर सृष्टि (अदृश्य) है।

इसका मार्ग भी सूक्ष्म ही है। एक शरीर में दो शरीर हैं-दृश्य और अदृश्य। अन्नमय कोश स्थूल देह है-अन्न से सप्त धातुओं का निर्माण होता है। क्षर शरीर बनता है। पिता के बीज में शरीर के अंश के साथ प्राण शरीर का निर्माण होता है। इसमें से गुजरते हुए ब्रह्म रेत (बीज) पुंभ्रूण तक पहुंचता है।

यही स्त्री भू्रण के साथ मह:लोक में आहूत होता है। पुरुष शरीर का शुक्राणु भी एक शरीर है। उसी का रेत पुंभ्रूण कहलाता है। यह प्राण रूप है। प्रजनन प्रक्रिया अदृश्य प्राणों का यज्ञ है। स्थूल देह- स्त्री भ्रूण से जुड़कर सम्पूर्ण देह में आत्मा के रूप में व्याप्त हो जाता है।

क्रमश:
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