scriptशरीर ही ब्रह्माण्ड: वर्ण सामंजस्य ही विवाह का आधार | Gulab Kothari Article Sharir hi Brahmand 26 Nov 2022 Varna harmony is the basis of marriage | Patrika News
ओपिनियन

शरीर ही ब्रह्माण्ड: वर्ण सामंजस्य ही विवाह का आधार

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: मानव का स्वरूप शरीर मात्र से नहीं जाना जा सकता। शरीर का सम्बन्ध भोगों से है, प्रकृति से नहीं है… ‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ श्रृंखला में पढ़िए पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख-

Nov 26, 2022 / 02:10 pm

Gulab Kothari

Sharir Hi Brahmand: वर्ण सामंजस्य ही विवाह का आधार

Sharir Hi Brahmand: वर्ण सामंजस्य ही विवाह का आधार

Gulab Kothari Article : जीवन विस्तार के लिए, पितृ मुक्ति के लिए, ‘एकोऽहं बहुस्याम्’ के उद्देश्य से पुरुष-प्रकृति साथ रहें, पूरक बनकर कर्म करें, तभी जीवन प्रकृति की गोद में पल सकता है। पुरुष बीज प्रदाता ब्रह्म है, स्त्री पृथ्वी माता। बीज की उत्पादकता इसकी शुद्धता, पृथ्वी की उपजाऊ क्षमता तथा उचित जलवायु पर निर्भर करती है। प्रकृति का अर्थ जिस प्रकार सत्व, रज व तम है, वही स्वरूप बीज का भी ब्रह्म (सत्व), क्षत्र (रज), विट् (तम) होता है। ये तीनों आत्मा के स्वभाव हैं। जीवन की समरसता एवं समानता के लिए इनका तारतम्य आवश्यक है। चूंकि उत्पादकता का आधार बीज होता है, यह पुरुष का ही वैशिष्ट्य है, अत: प्रकृति का चयन भी पुरुष के वर्ण को ध्यान में रखकर करना पड़ता है। स्त्री बीज रहित होने से वर्ण से वंचित कही गई है। फिर उसकी प्रकृति का आधार इस कार्य के लिए मूल होता है। प्रकृति और वर्ण का समीकरण ही वांछित निर्णय है। इसके विरुद्ध का चयन वर्णसंकर कहलाता है। यह नैसर्गिक जीवन-सिद्धांतों के विपरीत फल देते हैं।

अभ्युदय के मार्ग में बाधा हैं। धनाढ्य होना अभ्युदय नहीं है। यह शरीर का विषय है। हम शरीर नहीं, आत्मरूप हैं। दोनों की आत्माओं की युति ही विवाह कहलाता है। यह प्राणों का आदान-प्रदान है। प्राण ही उत्कर्ष का हेतु है। शरीर पशु है। आकृति, प्रकृति के अनुरूप होती है। यह भी सही है कि जाति प्रथा कर्म के अनुसार समाज व्यवस्था है। वर्णव्यवस्था जाति से स्वतंत्र प्राकृतिक है। किसी भी जाति या प्रत्येक जाति में सभी चारों वर्ण उपलब्ध होते हैं।

आज बदलते सामाजिक परिवेश में युवा पीढ़ी अपनी पसन्द के साथी से विवाह करती है, चाहे वह किसी भी गोत्र या जाति का क्यों ना हो। अन्तर्जातीय विवाह होना गलत नहीं होगा यदि वर-वधू का वर्ण सम भाव का हो। भिन्न वर्ण के कारण परस्पर विवाह का निषेध है।

गीता का प्रथम अध्याय इस पर विस्तृत चर्चा करता है-वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिए ही पैदा होता है। श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पितर भी अधोगति को प्राप्त होते हैं। (गीता 1.42) इन वर्णसंकर कारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल धर्म और जाति धर्म भी नष्ट हो जाते हैं-
दोषैरेतै: कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकै:।
उत्साद्यन्ते जातिधर्मा: कुलधर्माश्च शाश्वता: ॥ (गीता 1.43)

वर्णसंकर संतति में माता और पिता के दोष ही आते हैं, गुण नहीं। इन गुणों का प्राकट्य कई बार जीवन के उत्तराद्र्ध में भी होता है। इस कारण ऐसी संतान विक्षिप्त या हीन गुणों से युक्त होने से कुलघातक ही सिद्ध होती है-
पित्र्यं वा भजते शीलं मातुर्वोभयमेव वा।
न कथंचन दुर्योनि: प्रकृतिं स्वां नियच्छति ॥ (मनुस्मृति 10.59 )

यह भी पढ़ें

शरीर ही ब्रह्माण्ड: आत्मा बिम्ब, शरीर प्रतिबिम्ब, प्राण सेतु


वैज्ञानिक रक्त को चार वर्गों में विभाजित करते हैं। ओ, ए, बी तथा एबी। इन चारों के भी अनेक उपभेद हैं। देश के अनुसार भी इन रुधिरों के प्रभावों में बड़ा अंतर हो जाता है। एक ही उपभेद वाले रक्तों का परस्पर संबंध होने पर नि:संतानता, गर्भपात अथवा विक्षिप्त संतति ही होगी। डॉक्टर भी भिन्न रक्त-ग्रुप को बेमेल ही बताते हैं।

वर्णसंकरता तो हर रूप में त्याज्य मानी गई है। इसलिए भारतीय विवाह परंपरा में समान कुल-गोत्र पर ही विचार किया जाता है। जो स्त्री-पुरुष एक गोत्र या कुल के हैं, उनका परस्पर विवाह संतान के लिए सही नहीं रहता। इसलिए पिता के सात गोत्रों तथा माता के पांच गोत्रों को विवाह संबंधों में टालना आवश्यक माना जाता है।

एक ही ऋषि की संतान को सगोत्र कहते हैं। ऋषि प्राणों को कहते हैं। प्राण एक समान होना उचित नहीं है। इससे वंशवृद्धि में बाधा आती है। इसी प्रकार जो भिन्न-भिन्न वर्ण-जाति के हैं उनका भी संबंध नहीं जुडऩा चाहिए। अत्यन्त भिन्नता रखने वाली वस्तुओं को कोई भी वैज्ञानिक क्रिया नहीं मिला सकती।

यह भी पढ़ें

शरीर ही ब्रह्माण्ड: प्राणों का आदान-प्रदान


कुलधर्मों को परम्परागत रूप से स्वीकार नहीं किए जाने से, धर्म का आचरण नहीं होने से, कुलनाश हो जाता है। अधर्म के बढऩे पर तीन प्रवृत्तियों का उदय होता है-कामचार (यथेच्छ कार्य करना), कामवाद (इच्छानुसार भाषण) तथा कामभक्ष (इच्छा के अनुरूप खा लेना)।

इस प्रकार के अमर्यादित व्यवहार से कुलधर्म की हानि होती है। अधर्म बढऩे से कुल की स्त्रियां दूषित होंगी तथा वर्णसंकर संतति का जन्म होगा-
अधर्माभिभवात् कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रिय:।
स्त्रीषु दुष्टासु वाष्र्णेय जायते वर्णसंकर: ॥ (गीता 1.41)

महाभारत के अनुशासन पर्व में दान-धर्म पर्व के अन्तर्गत वैशम्पायन युधिष्ठिर को वर्णसंकर मनुष्यों के कर्म एवं धर्म के विषय में बताते हैं। उनके अनुसार निम्न योनि में उत्पन्न हुआ पुत्र मोक्ष प्राप्ति में सहायक नहीं होता। संसार के प्राणी नानाप्रकार के आचार व्यवहार में लगे रहते हैं। भिन्न-भिन्न कर्मों को करते हैं। उनका आचरण ही उनके जन्म के रहस्य को प्रकट करने का माध्यम बनता है।

यह भी पढ़ें

शुक्र में सात पीढ़ियों के अंश-सप्त पितृांश


अत: उच्च वर्ण का मनुष्य भी यदि आचरण से हीन हो तो उसका सत्कार नहीं करना चाहिए। वर्णसंकर संतति तो सर्वथा परित्याग के योग्य है। क्योंकि वर्णसंकर द्वारा किया हुआ पिण्डदान पितृ मुक्ति में सहायक नहीं होता। महाभारत युद्ध के पश्चात् यह वर्णसंकरता बढ़ी और वर्णव्यवस्था का ह्रास हुआ। आज यह विषय जीवन से बाहर ही हो गया है।

सृष्टि सर्जना हेतु पुरुष और प्रकृति के मध्य शुक्र ही प्रधान कारण है। शुक्र तीन प्रकार का होता है-अग्नि, आप और वाक्। ये ही क्रमश: विभूति, श्री और अर्क कहलाते हैं। इनको ही ब्रह्म, क्षत्र और विट् वीर्य कहते हैं। वीर्य जन्म से ही प्रत्येक प्राणी के साथ जुड़ा रहता है। याज्ञवल्क्य स्मृति में इसी का संकेत है कि जिस वर्ण का पुरुष अपने समान वर्ण वाली स्त्री से वर्णोंपयुक्त विधि के अनुसार विवाह कर, जो संतान उत्पन्न करे, वह उसी वर्ण का होता है-
सवर्णेभ्य: सवर्णासु जायन्तेहिसजातय:।
अनिन्द्येषु विवाहेषुपुत्रा: सन्तान वद्र्धना:॥

कई बार वर्ण और गोत्रादि विषयों पर आक्षेप होते रहते हैं। किन्तु इनका शास्त्रीय आधार है। मानने के लिए कोई बाध्य भी नहीं है। मानव का स्वरूप शरीर मात्र से नहीं जाना जा सकता। शरीर का सम्बन्ध भोगों से है, प्रकृति से नहीं है। प्रकृति का और मन का सम्बन्ध चन्द्रमा से है। चन्द्रमा के देव प्राण से ही ‘वर्ण’ का विकास होता है। वर्ण प्रत्येक मानव का भिन्न-भिन्न होता है। आकृति के एक समान होते हुए भी वर्ण एक नहीं होते। वर्ण तो सुर-असुर, जड़-चेतन में भी समान रूप से रहते हैं।

यह भी पढ़ें

क्षण-क्षण धर्मस्य ग्लानि


चन्द्रमा वर्ण वाचक है। सूर्य ‘धियो यो न: प्रचोदयात्’ बुद्धि का निर्माता है। चन्द्रमा रजोगुण का तथा सूर्य सत्वगुण का वाचक है। सूर्य महत् (मह:) के अतिसूक्ष्म अहंकृति भाव से युक्त है। सूर्य में ऋषि प्राणों की प्रतिष्ठा है। इनसे ही गोत्रभाव का विकास होता है। ये प्रत्येक वर्ण के अनुसार वंशानुक्रम में भिन्न-भिन्न होते हैं।

आकृति पृथ्वी से सम्बन्ध रखती है, तम प्रधान है। आगे तो अव्यय पुरुष है जो अगोत्र, अवर्ण, समान है। अव्यय ही वर्ण-गोत्र-जाति भावों का प्रवर्तक है। अत: हम कह सकते हैं कि जाति-वर्ण-गोत्र क्रमश: स्थूल शरीर, सूक्ष्म मन, अतिसूक्ष्म बुद्धि के तीनों पितर देव-ऋषि प्राणों से समन्वित हैं।

आज शरीर की आकृति मात्र को ही मानवता का आधार माना जाता है। ऋषि प्राण ही भारत में चिन्तन का आधार है। शरीर का आधार प्रत्येक प्राणी का होता है। मानवता का आधार ऋषि प्राण युक्त मन ही है। वर्णसंकरता से यही विकृत होता है। यही विकृति आगे पीढिय़ों तक जाती है। इसी को कुलक्षय कहा जाता है।

क्रमश:

यह भी पढ़ें

आवरण जो हटाए वह कर्म ही धर्म


Hindi News / Opinion / शरीर ही ब्रह्माण्ड: वर्ण सामंजस्य ही विवाह का आधार

ट्रेंडिंग वीडियो

loader
Copyright © 2025 Patrika Group. All Rights Reserved.