सृष्टि क्रम में रस बल का आधार बनता है। दोनों अभिन्न हैं। ब्रह्म अगर अकेला है तो सृष्टि हो ही नहीं सकती। वह ऋत में घूम रहा है। जब हम सृष्टि की बात कर रहे हैं तब रस बल का आधार है। रस में क्रिया भाव नहीं है। बल की वजह से ही उसका क्रिया भाव बन रहा है और रस का उत्थान हो रहा है, रस का विवर्त बन रहा है। इसलिए रस को आधार कहा है।
रस अकर्मा, बल कर्ममय है। रस सदा स्थिर है, बल अस्थिर है। रस में बल के जाग जाने पर, रस से बल का स्वरूप अलग दिखाई देने लगता है, यह बल की विभक्त अवस्था होती है। इसी प्रकार बल से संयुक्त रस का स्वरूप भी मौलिक भाव से भिन्न हो जाता है। रस से ही बल का उदय तथा अन्त में बल रस में ही लीन हो जाता है, जैसे पानी पर वायु के वेग से बुदबुदे उत्पन्न होते हैं। बल को स्वलक्षण भी इसलिए कहा कि यह जब तक सुप्त है तब तक रस में कोई क्रिया नहीं होती। इस अवस्था को निर्विशेष कहते हैं। बल के जाग्रत होने पर यह परात्पर कहलाता है।
परात्पर रूप असीम रस को जब बल द्वारा सीमित कर लिया जाता है तब अव्यय पुरुष बनता है। नासदीय सूक्त में कामना को ही सृष्टि का मूल कहा है-मनसो रेत: प्रथमं यदासीत्। यह कामना ही रस, बल तथा रसबलकामना इन तीन रूपों में उठती है। रसकामना का अर्थ है-मुमुक्षा। इसकी प्रवृत्ति में अव्यय पुरुष की आनन्द, विज्ञान, मन इन तीन कलाओं का योग रहता है। तब यह अवस्था मोक्षगामी कहलाती है। बलकामना का अर्थ है-सिसृक्षा। इसमें अव्यय पुरुष की मन, प्राण और वाक् कलाएं रहती हैं। यह अवस्था सृष्टि की ओर ले जाती है। ये दोनों रस और बल जब एक बिन्दु पर स्थिर रहते हैं तो यही रसबलकामना कही जाती है। इनको ही क्रमश: आगति, गति एवं स्थिति तथा विष्णु, इन्द्र एवं ब्रह्मा कहा जाता है।
सृष्टि का प्रत्येक अंग पूर्ण
सृष्टि निर्माण की यह कामना अव्यय मन में उठती है। इस कामनापूर्ति के लिए रसों पर रसों की चिति होती है। यह रसचिति कही जाती है। इसमें बल भी रस के गर्भ में विद्यमान रहता है। यही अव्यय पुरुष की प्रथम आनन्द कला कहलाती है। रसो वै स:। रसं ह्येवायं लब्ध्वा आनन्दो भवति। यह आनन्द शाश्वत है, अनन्त है। जब इस पर पुन: रस का चयन होता है, तब इसमें रस और बल का ग्रन्थिबन्धन तो नहीं होता फिर भी रस के समान बल भी उद्बुध (जाग्रत) अवस्था में आ जाता है। किन्तु प्रबलता रस की ही रहती है।
इसी कारण इसको भी रसचिति ही कहते हैं। बल के जाग जाने से नानाभाव का उदय होता है। इसी के कारण ज्ञानरूप रस भी अनेक रूपों वाला बन जाता है। यह विज्ञानचिति कही जाती है क्योंकि विज्ञान का लक्षण है- विविधं ज्ञानं विज्ञानं। इन दोनों को अन्त:श्चिति भी कहा जाता है। जब काममय मन पर बल की प्रबलता होने लगती है तब बल की चिनाई से क्रमश: प्राणचिति और वाक्चिति बनती हैं। ये क्रमश: स्थूलतम होती हैं। इनको बहिश्चिति भी कहा जाता है। इस प्रकार रसबल की चितियों से आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण और वाक् इन पांच कलाओं से समन्वित अव्यय पुरुष चिदात्मा कहलाता है। संसार में ये ही पांचों कलाएं पंचकोश रूप में प्रतिष्ठित रहती हैं। इनमें समस्त प्राणी जगत वाङ्मय कोश पर प्रतिष्ठित रहता है। संसार की सभी क्रियाएं प्राणमय कोश पर अवलम्बित रहती हैं। मन एवं मन से निकलने वाली इच्छाओं का आधार मनोमय कोश है। समस्त विज्ञान का आलम्बन विज्ञानमयकोश और सांसारिक आनन्द का आधार आनन्दमय कोश है।
इस प्रकार सृष्टि में अव्यय से बाहर कुछ भी नहीं है। कृष्ण भी कह रहे हैं कि-
मत्त: परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।। गीता 7.7
अर्थात्-हे धनञ्जय मेरे से बढ़कर इस जगत् का दूसरा कोई किञ्चित् मात्र भी कारण नहीं है। जैसे सूत की मणियां सूत के धागे में पिरोयी हुई होती हैं ऐसे ही सम्पूर्ण जगत् मेरे में ही ओतप्रोत है।
सृष्टि का प्रत्येक अंग पूर्ण
जब यह अव्यय आत्मा शरीर की उपाधि के कारण महान् या अणु होता है तब इसको चिदाभास कहते हैं। अविद्या से सम्बद्ध होने से चिदाभास को ही जीव कहते हैं। इस प्रकार अव्यय ही नि:सीम, विशालसीमा तथा अल्पसीमा वाला होने के कारण परमेश्वर, ईश्वर तथा जीव तीन प्रकार का बन जाता है। ये ही अव्यय, अक्षर व क्षर नाम से प्रसिद्ध हैं। अक्षर व क्षर अव्यय की परा और अपरा प्रकृतियां हैं, जो सृष्टि संचालन में सहायक हैं। जिस प्रकार वृक्ष अपनी शाखाओं-प्रशाखाओं से विचाली बना रहता है उसी प्रकार यह अव्यय पुरुष भी अपनी परा एवं अपरा प्रकृति से सृष्टि निर्माण का कार्य करता है।
इस अव्यय का सर्वथा विनाश कभी नहीं होता। सर्वान्त प्रलय के समय भी यह मूलभूत तत्त्व परम अव्यक्त अवस्था में विद्यमान रहता है। तथा वही सृष्टि के अनुकूल समय आने पर अपनी माया से इस जगत् को पुनर्निर्मित कर देता है। वृक्ष की शाखा-प्रशाखा पल्लव फल आदि के काट दिए जाने पर भी अनुकूल ऋतु आने पर वह पुन: पुष्पित-पल्लवित हो जाता है। उसी प्रकार विश्व का प्रलय के पश्चात् पुनर्निर्माण हो जाता है अत: संसार की तुलना वृक्ष के साथ की गई है। अधिदेव, अध्यात्म तथा अधिभूत इन तीन आधारों में विभक्त अव्यय पुरुष सब चेतन प्राणियों में अनुगत रहता है यही उसका अपनापन है। यही अध्यात्म कहलाता है। अव्यय पुरुष का जो भाग जड़ पदार्थों में रहता है वह अधिभूत कहा जाता है। अव्यय पुरुष का जितना अंश देवताओं में रहता है वही अधिदेव कहलाता है। वेद विज्ञान में प्राणों को देव कहा जाता है।
गीता अव्यय को ही सर्वेसर्वा मानती है। यद्यपि अव्यय असंग है-उदासीन है, जैसा कि गीता कहती है-”उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु’ (गीता 9.9) तथापि अव्यय को सर्वथा सृष्टि से बाहर नहीं निकाला जा सकता। अव्यय असंग है, फिर भी गीता ने स्वयं उसे प्रभव: प्रलय: स्थानं निधानं बीजमव्ययम् (गीता 9.18) रूप में सृष्टि-प्रवत्र्तक कहा है।
क्रमश: