शरीर की तरह ही शब्द भी क्रियात्मक है। वैखरी कमरे की दीवारों से टकराकर वापस लौटती है। वैखरी में मन के भावों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। शरीर भी भावों को प्रकट किया करता है। हो सकता है मनुष्य के साथ शरीर का सम्प्रेषण पूर्णता देे, किन्तु अन्य प्राणियों, पेड़-पौधों आदि के साथ तथा दूर बैठे व्यक्ति के साथ सम्प्रेषण के लिए शब्द विशेष रूप से उपयोगी होते हैं।
आप किसी पौधे से नित्य प्रेमपूर्वक बात करें तो उसका विकास चमत्कारी होता जान पड़ेगा। आप अपशब्द कहेंगे तो वैसा ही प्रभाव भी देख लेंगे। यही प्रयोग जल पर भी करके देख सकते हैं।
आप किसी की आलोचना करें अथवा सुनें उसका प्रभाव शरीर पर, रक्त पर एक जैसा ही पड़ता है। शब्दों की मार से कोई नहीं बच पाता। शब्दों का आधार प्राण रूप होने से इनकी गति बाधित नहीं हो सकती। न दूरी ही इनको रोक सकती है।
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वैज्ञानिक, पूर्ण रूप में उच्चारित शब्दों को फिर से संग्रहित करने के लिए प्रयासरत हैं, ताकि गीता को कृष्ण के मुख से ही सुना जा सके। यह वैखरी के कारण ही सम्भव है। सारे मन्त्रों का उच्चारण वैखरी में ही होता है। मन्त्रों से ही सारे यज्ञों का निष्पादन होता है। यही शब्द स्पन्दन रूप होकर यजमान के लिए लक्ष्मी रूप में प्रकट होते हैं। अत: इनके उच्चारण की शुद्धता महत्वपूर्ण मानी गई है।
वैखरी का आधार हमारी वर्णमाला है। वर्णमाला ‘अ’ से ‘ह’ तक होती है। वर्ण 33 होते हैं। इनको योनि कहते हैं। व्यंजन कहते हैं। स्वर बीज रूप होते हैं। शरीर के चक्रों में हर वर्ण का अपना स्थान एवं कार्य क्षेत्र, रंग, स्वरूप, वाहन आदि होते हैं।
इसी तरह मन्त्रों के भी छन्द, गुरु, देवता आदि होते हैं। मन्त्रों का अर्थ नहीं किया जाता। वैखरी रूप प्रकट होने से पूर्व शब्द जिन-जिन स्थलों से गुजरता और टकराता है, आघात करता है, उनका प्रभाव भी शब्द में रहता है। सच तो यह है कि हर शब्द एक मन्त्र ही है। हर वर्ण भी मन्त्र है।
शास्त्र कहते हैं कि ज्ञान को पैदा नहीं किया जा सकता। न ही प्राप्त किया जा सकता है। ज्ञान और अज्ञान आत्मा के विद्या-अविद्या रूप आवरण हैं। जन्म से ही साथ रहते हैं। ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय को अलग नहीं किया जा सकता। जैसे-जैसे आत्मा के आवरण हटते जाते हैं, ज्ञान प्रकट होता जाता है। केवल आवरण भेद से ही ज्ञान की भिन्नता जान पड़ती है।
मन में उठने वाली इच्छाओं की अभिव्यक्ति वाक् से होती है। मन और वाक् साथ रहते हैं। अत: जो विषय मन के पार होते हैं, वहां शब्दों की पहुंच नहीं है। यही वैखरी की सीमा बन जाती है। मध्यमा भी छूट जाती है। पश्यन्ति का क्षेत्र शुरू हो जाता है। विषयों को देखा जा सकता है। प्रज्ञा के जागरण से यह क्षमता मिलती है। वाक् का उक्थ नाभि है। हर अक्षर नाभि से उठकर मुंह में स्वरूप लेता है।
अत: वैखरी के गर्भ में भी परा, पश्यन्ति और मध्यमा होते हैं। वैखरी वाक् सृष्टि एवं साहित्य सृजन करती है। भावनाओं से जुड़कर कर्म और कर्म-फल का कारक बनती है। रोग और निरोग अवस्था का निर्माण करती है। बन्द स्थान में वैखरी के स्पन्दन दीवारों से टकराकर पुन: शरीर तक लौटते हैं।
खुले आकाश में ये स्पन्दन विस्तार पाते हैं। वैसे तो ये स्पन्दन साधारण ध्वनि जैसे दिखाई देते है, जो कि बिना माध्यम के चलती नहीं है। वास्तव में इस ध्वनि में जो प्राणों का योग है, उसे गति के लिए माध्यम की कोई आवश्यकता नहीं है। न ही कोई माध्यम इसके प्रसरण में बाधक बन सकता है। वर्तुलाकार गति होने से शब्द-स्पन्दन सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो जाते हैं। मध्यमा में यही स्पन्दन शरीर के भीतर व्याप्त रहते हैं।
चूंकि वैखरी के भीतर परा, पश्यन्ति, मध्यमा रहती हैं और इनके साथ-साथ भाव भूमि की शक्ति, गति और दिशा होती है, अत: स्पन्दनों का प्रभाव प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। जिस प्रकार माया ब्रह्म को गर्भ में लेकर शरीर रूप धारण करती है तथा शरीर अपने आप में जड़ होते हुए भी चैतन्य प्रतीत होता है।
इसी तरह वैखरी के गर्भ में परा वाक् को जानना चाहिए। जिसे स्वयं के बारे में ज्ञान नहीं हैं, उसका अन्य के सन्दर्भ में जो ज्ञान है वह भ्रान्तिपूर्ण ही होगा। प्रत्येक व्यक्ति अपनी सत्ता के अनुपात में ही अन्य का आकलन किया करता है।
यह वाक् ही भूतभाव, शब्दभाव और अर्थभाव में फैलता है। वाक् रूप आकाश से ही वायु आदि भूत समूह पैदा होता है। आकाश सब में व्याप्त रहता है। यह आकाश ही आघात से कम्पित होता है। वायु के आधार पर गोल तरंगें उत्पन्न करता है। यही नाद रूप में कान तक पहुंचता है। शब्द कहलाता है। इसी से शब्द और अर्थ सृष्टि आगे बढ़ती है।
भर्तृहरि ने लिखा है-
अनादिनिधनं ब्रह्म शब्द तत्त्वं यदक्षरम्।
विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यत:॥
अर्थात्-शब्दरूपी ब्रह्म अनादि, विनाशरहित और अक्षर (नष्ट न होने वाला) है तथा उसकी विवर्त प्रक्रिया से ही ये जगत् भासित होता है।
जो सृष्टि और प्रकार भूत सृष्टि में हैं, वे ही यहां शब्द सृष्टि में भी दिखाई पड़ते हैं। जिस प्रकार अक्षर पुरुष हमारी सृष्टि का आत्मा है, उसी प्रकार यह अक्षर भी वर्णों का आत्मा है। वर्ण और अक्षर भिन्न हैं। (1) वर्ण, क्षर पुरुष है तथा अक्षर, अक्षर पुरुष हैं। (2) वर्ण के 64 भेद तथा अक्षर केछोटा और बड़ा दो भेद संख्यात्मक हैं। (3) वर्ण एक बिन्दु वाला है और अक्षर के नौ बिन्दु हैं।
यह इनका योनिभेद है। (4) वर्ण अन्न है, अक्षर अन्नाद है। यह वीर्यात्मक भेद है। (5) वर्ण की प्रतिष्ठा अक्षर है जबकि अक्षर स्व प्रतिष्ठित है। (6) वर्ण अंग और अक्षर अंगी है। (7) ‘ओम’ में तीन वर्ण, अ,ऊ,म् है जबकि इसको अक्षर दृष्टि से एक ही माना जाता है।
किसी भी पद या वाक्य का अर्थ समझने के लिए स्वर, वर्ण, अक्षर और मात्रा का ज्ञान आवश्यक है। शब्द सृष्टि भी ठीक उसी प्रकार होती है, जैसी कि परात्पर सृष्टि होती है। ब्रह्म के तीन भेदों- अव्यय, अक्षर और क्षर में से अव्यय ही चिति के द्वारा मन-प्राण-वाक् बनता है।
इसी मन के साथ प्राणमय तत्व ही अक्षर है। सारा भूतवर्ग (विश्व) क्षर सृष्टि है। अत: वेद की घोषणा है कि अथो वागेवेदं सर्वम् अर्थात् सब कुछ वाक् ही है। आकाश भी वाक् है। आकाश में व्याप्त पंच महाभूत भी वाक् हैं। क्षर का आधार ही अक्षर या प्राण है। क्षर भी पंचकल है। इसकी प्राण-आप्-वाक्-अन्न और अन्नाद पांच कलाएं होती हैं। इनसे ही (वाक् और क्षर) क्षर सृष्टि होती है। जो अन्त में अक्षर में ही विलीन हो जाती है। इसी को परब्रह्म विद्या कहते हैं।
क्रमश:
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