इन यन्त्रों से वैज्ञानिकों ने सिद्ध कर दिया कि प्राणीमात्र के रक्त में चार प्रकार के विभाग पाए जाते हैं। जिनको आज ब्लड ग्रुप A-B-AB-O कहा जाता है। इनकी परीक्षा से सभी प्राणियों की (मानव सहित) प्रकृति, रुचि, व्यवहार आदि का पता लगाया जा सकता है। यह भी निश्चय किया जा सकता है कि यह किसकी सन्तान है।
अदालतों में इन यन्त्रों का विशेष उपयोग होता है। निष्कर्ष यह है कि भिन्न-भिन्न रक्तों के सम्मिश्रण से जो एक शरीर पैदा होगा, भारतीय संस्कृति के शब्दों में वह वर्णसंकर होगा। उसमें माता-पिता के सभी दोष होंगे, गुण नहीं होंगे। प्राय: ऐसी संतति उन्मत्त, विक्षिप्त या दुष्ट प्रकृति की होगी। पूर्वकाल में मनु ने लिखा था-
पित्र्यं वा भजते शीलं मातुर्वोभयमेव वा।
न कथंचन दुर्योनि: प्रकृतिं स्वां नियच्छति।। (10.59)
अर्थात्-वर्णसंकर में माता या पिता के या दोनों के दुष्ट स्वभाव की अनुवृत्ति होती है। वह अपनी आदत को नियम में नहीं ला सकता।
उन विद्वानों ने यह भी सिद्ध कर दिया कि रक्त के इन चार भेदों के उपभेद भी बहुत हैं। देशों के अनुसार भी इनके प्रभाव में अन्तर आ जाता है। उन एक ही उपभेद वाले रक्तों का परस्पर सम्बन्ध होने से सन्तति या तो होगी ही नहीं या शीघ्र विच्छिन्न हो जाएगी। सन्तति यदि आगे चली तो विकृत मस्तिष्क की होगी।
विवाह सम्बन्ध से (भारतीय परम्परा से) स्त्री की मन-प्राण आदि की एकता सम्पादित की जाती है। अत: सन्तान गुणवती होती है। इस दृष्टि से हमारी वर्ण व्यवस्था में दोष का स्थान नहीं था। केवल निकृष्ट वर्णसंकर को ही अस्पृश्य माना गया था।
महाभारत युद्ध के दौरान कितने योद्धा-वीर आदि काम आ चुके थे, हजारों हजार! तब देश में लुटेरों ने ही स्त्रियों को शिकार बनाया। वर्णसंकर ही सर्वत्र छा गए। क्या देश की गुलामी का श्रेय इस अवस्था को दिया जाए तो सही नहीं होगा? आज शिक्षा और नौकरी की नई व्यवस्था ने विश्व को पुन: उधर ही धकेलना शुरू कर दिया।
जबकि गीता में इस विषय पर जो कहा है, उसे भी देख लेना अनुचित नहीं होगा-
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रिय:।
स्त्रीषु दुष्टासु वाष्र्णेय जायते वर्णसङ्कर:।। (गीता 1.41)
दोषैरेतै: कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकै:।
उत्साद्यन्ते जातिधर्मा: कुलधर्माश्च शाश्वता:।। (गीता 1.43)
वर्णसंकर कारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं। वर्णसंकर का दिया हुआ पिण्ड या जल पितरों को प्राप्त नहीं होता। (1.42) । पं. गिरिधर शर्मा ने गीता व्याख्यान माला में लिखा है कि पुरुष बीज है, स्त्री धरती है। जहां पिता का बीज प्रभावी हो और माता का वर्ण तदनुरूप नहीं हो तो वे ‘अनुलोम संकर’ कहलाते हैं।
बीज की प्रधानता से उन्हें ज्यादा दूषित नहीं माना जाता। जहां माता का वर्ण प्रभावी हो, पिता का बीज निकृष्ट हो, वे ‘प्रतिलोम संकर’ कहे जाते हैं। यहां बीज निकृष्ट होने से संतति में विशेष दोष आते हैं। संसर्ग दोष को विज्ञान भी मानता है। रोगी के साथ संसर्ग के लिए डाक्टर भी मना करते हैं। दोनों ही परिस्थितियों में माता-पिता के गुण संतान में नहीं आते।
हमारे ऋषियों ने शरीर दोष के आगे परीक्षण करके अन्त:करण के दोषों का भी संक्रमण माना है। बेमेल अथवा निकृष्ट संसर्ग से उन कुलों को भी कोई लाभ होने वाला नहीं। क्योंकि सन्तति में कोई गुण नहीं आ रहा। उनके अन्त:करण में तामस भाव आ जाएंगे। पूर्वजों के दोष का फल सन्तानें भी भोगती हैं।
कुल क्रमागत (हेरिडिटरी) रोग प्रत्यक्ष देखे जा सकते हैं। स्थूल रोगों का संक्रमण तो प्रत्यक्ष है, एवं सूक्ष्म रजोगुण, तमोगुण का संक्रमण भी प्रकृतिसिद्ध है। रक्तशुद्धि के उद्देश्य से, अपने को अपवित्रता से बचाने को ये उपाय प्रवृत्त हुए। इतिहास साक्षी है कि अर्जुन की ये शंकाएं आगे चलकर बिल्कुल सत्य साबित हुईं।
योगीराज श्यामाचरण लाहिड़ी ने लिखा है कि आध्यात्मिक दृष्टि से हम विषय भोग ही करें या साधन-भजन ही करें, दोनों अवस्थाओं में सप्तदश (सत्रह) अवयवात्मक सूक्ष्म देह यानी दस इन्द्रियां, पांच प्राण, मन और बुद्धि के बिना कुछ होने का नहीं। इन सबकी सामूहिक शक्ति को कुल कहते हैं। मेरुदण्ड कुलवृक्ष है। कुल शक्ति के नष्ट हो जाने पर जीव के प्राण, मन और इन्द्रियां सभी अधर्म के द्वारा अभिभूत (पीडि़त) हो जाते हैं। दुर्बल होकर जिसकी जो भी शक्ति है, वह नष्टप्राय: हो जाती है।
इन सब असंयमों के फलस्वरूप उनकी सन्तानें भी भ्रष्ट बुद्धि लेकर जन्म ग्रहण करती हैं। उनसे कोई अधर्म किए बिना बाकी नहीं रहता। अत: कुलधर्म की रक्षा अनिवार्य है। लाहिड़ी कहते हैं कि आजकल के समाज में वर्णसंकर को निन्दनीय नहीं समझा जाता। भविष्य में चलन और भी बढ़ सकता है।
नहीं तो कलियुग का पूर्ण प्रादुर्भाव कैसे होगा? आज खानपान की वस्तुओं का मिश्रण इतना दूषित हो गया है कि भयंकर दोष-रोग पैदा हो रहे हैं। तब शरीरादि धातुओं में यह संकरत्व महान अनिष्टकारी होगा ही। आजकल साधन में, वैराग्य में, भक्ति में, ज्ञान में, इस धर्म भ्रष्टकारी संकरत्व के प्रचार को देखकर स्तंभित हो जाते हैं।
शिक्षा के व्यभिचार से स्त्रियां पुरुष भाव वाली तथा पुरुष स्त्री भाव वाले होते जा रहे हैं। धर्मानुष्ठान के प्रति किसी में वैसी श्रद्धा नहीं रही। शरीर और मन यदि व्याधि ग्रस्त हो, तो कुल कुण्डलिनी शक्ति (पिण्ड) का प्रकाश लुप्त हो जाता है। सारी आध्यात्मिक शक्तियों का पतन हो जाता है। वे क्षीण होते-होते लोप हो जाती हैं।
जैसे संकर बाजरे की तीसरी फसल को ‘इरगिट’ नष्ट कर देती है। मृत्यु के समय हमारा मातृ देह नष्ट होता है, पितृ देह (पिण्ड) कुछ काल तक रहता है। मरण-मूच्र्छा टूटते ही इसको भूख-प्यास का अनुभव होने लगता है। स्वजनों को देखने की इच्छा करता है। नाना प्रकार के कष्ट भी इस देह को भोगने होते हैं।
अत: इसको शीघ्र नष्ट करने के लिए शास्त्रों में अनेक उपचार भी दिए हैं। पिण्डोदक क्रिया के बिना यह देह नष्ट नहीं होता। कुण्डलिनी शक्ति का नाम ही पिण्ड है। यह क्रिया पुत्र द्वारा ही उपकारी होती है। वर्णसंकर संतान द्वारा नहीं होती। क्योंकि संकरत्व से लोग अपना वैशिष्ट्य खोकर अधम बन जाते हैं।
हम जिसे कुल धर्म मानते हैं वह बाह्य-सामाजिक स्वरूप है। आत्मा में स्थिर स्थिति ही कुल धर्म है। बाहर तो धर्म के अनेक रूप भी हो जाते हैं-संसारधर्म, जीवधर्म, लोकधर्म, समाजधर्म आदि। अत: आध्यात्मिक दृष्टि से तो इनको कुलघातक ही कहा है। केवल योगी को ही कुलीन या कुल समन्वित कहते हैं। योगी प्राणों को सुषुम्ना में स्थिर करके मन को स्थिर कर लेते हैं। यही स्थिर अवस्था है।
अर्जुन ने जो कुलधर्म कहा, वह बाह्य दृष्टि से ही था। अत: उसके संदेह बने रहे थे। प्रकृति में-”चातुर्वण्र्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:’ (गीता 4.13) – यह श्लोक ईश्वरीय व्यवस्था का संकेत कर रहा है। वर्णव्यवस्था कोई सामाजिक व्यवस्था नहीं है। समानता के पक्षधर इसका खूब मजाक भी उड़ाते देखे जाते हैं। वर्ण तो जड़-चेतन सभी में समान ही रहते हैं।
मनुष्य (जीव) ही कर्मानुसार विभिन्न योनियों में जाता है। वर्ण आत्मा का भाग होने से साथ जाता है। शिक्षा और नौकरी के दबाव में विवाह टलता रहता है, कामना दबती जाती है। जहां इस दबाव की सीमा समाप्त हो जाती है, वहीं वर्ण विस्मृत होकर शरीर आक्रमण कर बैठता है। आत्मा साक्षी बना रहता है।
क्रमश:
अदालतों में इन यन्त्रों का विशेष उपयोग होता है। निष्कर्ष यह है कि भिन्न-भिन्न रक्तों के सम्मिश्रण से जो एक शरीर पैदा होगा, भारतीय संस्कृति के शब्दों में वह वर्णसंकर होगा। उसमें माता-पिता के सभी दोष होंगे, गुण नहीं होंगे। प्राय: ऐसी संतति उन्मत्त, विक्षिप्त या दुष्ट प्रकृति की होगी। पूर्वकाल में मनु ने लिखा था-
पित्र्यं वा भजते शीलं मातुर्वोभयमेव वा।
न कथंचन दुर्योनि: प्रकृतिं स्वां नियच्छति।। (10.59)
अर्थात्-वर्णसंकर में माता या पिता के या दोनों के दुष्ट स्वभाव की अनुवृत्ति होती है। वह अपनी आदत को नियम में नहीं ला सकता।
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शरीर ही ब्रह्माण्ड : हर प्राणी का आत्मा ईश्वर समान
उन विद्वानों ने यह भी सिद्ध कर दिया कि रक्त के इन चार भेदों के उपभेद भी बहुत हैं। देशों के अनुसार भी इनके प्रभाव में अन्तर आ जाता है। उन एक ही उपभेद वाले रक्तों का परस्पर सम्बन्ध होने से सन्तति या तो होगी ही नहीं या शीघ्र विच्छिन्न हो जाएगी। सन्तति यदि आगे चली तो विकृत मस्तिष्क की होगी।
विवाह सम्बन्ध से (भारतीय परम्परा से) स्त्री की मन-प्राण आदि की एकता सम्पादित की जाती है। अत: सन्तान गुणवती होती है। इस दृष्टि से हमारी वर्ण व्यवस्था में दोष का स्थान नहीं था। केवल निकृष्ट वर्णसंकर को ही अस्पृश्य माना गया था।
महाभारत युद्ध के दौरान कितने योद्धा-वीर आदि काम आ चुके थे, हजारों हजार! तब देश में लुटेरों ने ही स्त्रियों को शिकार बनाया। वर्णसंकर ही सर्वत्र छा गए। क्या देश की गुलामी का श्रेय इस अवस्था को दिया जाए तो सही नहीं होगा? आज शिक्षा और नौकरी की नई व्यवस्था ने विश्व को पुन: उधर ही धकेलना शुरू कर दिया।
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शरीर ही ब्रह्माण्ड : आसक्त मन बाहर भागता है
जबकि गीता में इस विषय पर जो कहा है, उसे भी देख लेना अनुचित नहीं होगा-
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रिय:।
स्त्रीषु दुष्टासु वाष्र्णेय जायते वर्णसङ्कर:।। (गीता 1.41)
दोषैरेतै: कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकै:।
उत्साद्यन्ते जातिधर्मा: कुलधर्माश्च शाश्वता:।। (गीता 1.43)
वर्णसंकर कारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं। वर्णसंकर का दिया हुआ पिण्ड या जल पितरों को प्राप्त नहीं होता। (1.42) । पं. गिरिधर शर्मा ने गीता व्याख्यान माला में लिखा है कि पुरुष बीज है, स्त्री धरती है। जहां पिता का बीज प्रभावी हो और माता का वर्ण तदनुरूप नहीं हो तो वे ‘अनुलोम संकर’ कहलाते हैं।
बीज की प्रधानता से उन्हें ज्यादा दूषित नहीं माना जाता। जहां माता का वर्ण प्रभावी हो, पिता का बीज निकृष्ट हो, वे ‘प्रतिलोम संकर’ कहे जाते हैं। यहां बीज निकृष्ट होने से संतति में विशेष दोष आते हैं। संसर्ग दोष को विज्ञान भी मानता है। रोगी के साथ संसर्ग के लिए डाक्टर भी मना करते हैं। दोनों ही परिस्थितियों में माता-पिता के गुण संतान में नहीं आते।
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पशु : मानव से अधिक मर्यादित
हमारे ऋषियों ने शरीर दोष के आगे परीक्षण करके अन्त:करण के दोषों का भी संक्रमण माना है। बेमेल अथवा निकृष्ट संसर्ग से उन कुलों को भी कोई लाभ होने वाला नहीं। क्योंकि सन्तति में कोई गुण नहीं आ रहा। उनके अन्त:करण में तामस भाव आ जाएंगे। पूर्वजों के दोष का फल सन्तानें भी भोगती हैं।
कुल क्रमागत (हेरिडिटरी) रोग प्रत्यक्ष देखे जा सकते हैं। स्थूल रोगों का संक्रमण तो प्रत्यक्ष है, एवं सूक्ष्म रजोगुण, तमोगुण का संक्रमण भी प्रकृतिसिद्ध है। रक्तशुद्धि के उद्देश्य से, अपने को अपवित्रता से बचाने को ये उपाय प्रवृत्त हुए। इतिहास साक्षी है कि अर्जुन की ये शंकाएं आगे चलकर बिल्कुल सत्य साबित हुईं।
योगीराज श्यामाचरण लाहिड़ी ने लिखा है कि आध्यात्मिक दृष्टि से हम विषय भोग ही करें या साधन-भजन ही करें, दोनों अवस्थाओं में सप्तदश (सत्रह) अवयवात्मक सूक्ष्म देह यानी दस इन्द्रियां, पांच प्राण, मन और बुद्धि के बिना कुछ होने का नहीं। इन सबकी सामूहिक शक्ति को कुल कहते हैं। मेरुदण्ड कुलवृक्ष है। कुल शक्ति के नष्ट हो जाने पर जीव के प्राण, मन और इन्द्रियां सभी अधर्म के द्वारा अभिभूत (पीडि़त) हो जाते हैं। दुर्बल होकर जिसकी जो भी शक्ति है, वह नष्टप्राय: हो जाती है।
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शरीर ही ब्रह्माण्ड: मानव योनि में पशु भाव
इन सब असंयमों के फलस्वरूप उनकी सन्तानें भी भ्रष्ट बुद्धि लेकर जन्म ग्रहण करती हैं। उनसे कोई अधर्म किए बिना बाकी नहीं रहता। अत: कुलधर्म की रक्षा अनिवार्य है। लाहिड़ी कहते हैं कि आजकल के समाज में वर्णसंकर को निन्दनीय नहीं समझा जाता। भविष्य में चलन और भी बढ़ सकता है।
नहीं तो कलियुग का पूर्ण प्रादुर्भाव कैसे होगा? आज खानपान की वस्तुओं का मिश्रण इतना दूषित हो गया है कि भयंकर दोष-रोग पैदा हो रहे हैं। तब शरीरादि धातुओं में यह संकरत्व महान अनिष्टकारी होगा ही। आजकल साधन में, वैराग्य में, भक्ति में, ज्ञान में, इस धर्म भ्रष्टकारी संकरत्व के प्रचार को देखकर स्तंभित हो जाते हैं।
शिक्षा के व्यभिचार से स्त्रियां पुरुष भाव वाली तथा पुरुष स्त्री भाव वाले होते जा रहे हैं। धर्मानुष्ठान के प्रति किसी में वैसी श्रद्धा नहीं रही। शरीर और मन यदि व्याधि ग्रस्त हो, तो कुल कुण्डलिनी शक्ति (पिण्ड) का प्रकाश लुप्त हो जाता है। सारी आध्यात्मिक शक्तियों का पतन हो जाता है। वे क्षीण होते-होते लोप हो जाती हैं।
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शरीर में भी अग्नि-वायु-आदित्य
जैसे संकर बाजरे की तीसरी फसल को ‘इरगिट’ नष्ट कर देती है। मृत्यु के समय हमारा मातृ देह नष्ट होता है, पितृ देह (पिण्ड) कुछ काल तक रहता है। मरण-मूच्र्छा टूटते ही इसको भूख-प्यास का अनुभव होने लगता है। स्वजनों को देखने की इच्छा करता है। नाना प्रकार के कष्ट भी इस देह को भोगने होते हैं।
अत: इसको शीघ्र नष्ट करने के लिए शास्त्रों में अनेक उपचार भी दिए हैं। पिण्डोदक क्रिया के बिना यह देह नष्ट नहीं होता। कुण्डलिनी शक्ति का नाम ही पिण्ड है। यह क्रिया पुत्र द्वारा ही उपकारी होती है। वर्णसंकर संतान द्वारा नहीं होती। क्योंकि संकरत्व से लोग अपना वैशिष्ट्य खोकर अधम बन जाते हैं।
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मानवविहीन पशु साम्राज्य : सेरेनगेटी
हम जिसे कुल धर्म मानते हैं वह बाह्य-सामाजिक स्वरूप है। आत्मा में स्थिर स्थिति ही कुल धर्म है। बाहर तो धर्म के अनेक रूप भी हो जाते हैं-संसारधर्म, जीवधर्म, लोकधर्म, समाजधर्म आदि। अत: आध्यात्मिक दृष्टि से तो इनको कुलघातक ही कहा है। केवल योगी को ही कुलीन या कुल समन्वित कहते हैं। योगी प्राणों को सुषुम्ना में स्थिर करके मन को स्थिर कर लेते हैं। यही स्थिर अवस्था है।
अर्जुन ने जो कुलधर्म कहा, वह बाह्य दृष्टि से ही था। अत: उसके संदेह बने रहे थे। प्रकृति में-”चातुर्वण्र्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:’ (गीता 4.13) – यह श्लोक ईश्वरीय व्यवस्था का संकेत कर रहा है। वर्णव्यवस्था कोई सामाजिक व्यवस्था नहीं है। समानता के पक्षधर इसका खूब मजाक भी उड़ाते देखे जाते हैं। वर्ण तो जड़-चेतन सभी में समान ही रहते हैं।
मनुष्य (जीव) ही कर्मानुसार विभिन्न योनियों में जाता है। वर्ण आत्मा का भाग होने से साथ जाता है। शिक्षा और नौकरी के दबाव में विवाह टलता रहता है, कामना दबती जाती है। जहां इस दबाव की सीमा समाप्त हो जाती है, वहीं वर्ण विस्मृत होकर शरीर आक्रमण कर बैठता है। आत्मा साक्षी बना रहता है।
क्रमश:
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