इन विभागों में परिणत होना पृथ्वी और द्युलोक (योषा-वृषा रूप) प्राण के परस्पर सम्मिलन पर निर्भर है। पार्थिव प्राणाग्नि गायत्री, सौराग्नि सावित्राग्नि तथा आन्तरिक्ष्य अग्नि वायव्याग्नि कहलाते हैं। ये तीनों अग्नियां अमृत रूप हैं। इनके सम्मिलन से वैश्वानराग्नि उत्पन्न होता है।
वैश्वानर अग्नि ही विराट्, हिरण्यगर्भ तथा सर्वज्ञ तीन रूपों में क्रमश: पृथ्वी, अन्तरिक्ष तथा द्युलोक में व्याप्त रहता है। इनमें पार्थिव वैश्वानराग्नि योनि है। हिरण्यगर्भ रूप वायु प्राण रेतोधा है। सर्वज्ञ सौर प्राणाग्नि रेत है। रेतोधा की प्रेरणा से सौर प्राणाग्नि पृथ्वी में रेत का सिंचन करता है।
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शुक्राणु तथा डिम्ब दोनों के शरीर में पंचकोश रहते हैं। पहले दोनों में अन्नमय कोश टकराएंगे। अग्नि प्रकट होगा। सोम यहां आहूत होगा। प्राणमय कोश के माध्यम से मनोमय कोश मिलेंगे। दोनों ऋत रूप हैं, प्रतिबिम्ब की तरह, एकाकार होते हैं।यही मह:लोक है। यहां के जल-शुक्र में बुद्बुद् बनता है। शुक्राणु में ब्रह्म, क्षत्र तथा विट् वीर्य रहता है। दोनों के बिम्ब त्रिगुणात्मक हैं। पुरुष वीर्य में सात पितरों के अंश हैं। सम्पूर्ण वीर्य पार्थिव होने से पंच महाभूत युक्त भी है।
ब्रह्म और माया बीज के एकाकार होने से ब्रह्म के मन में जिज्ञासा हुई-”एकोऽहं बहुस्याम्’। सृष्टि पूर्व की सारी क्रियाएं शुरू हुईं। अग्नि के तीन भाव-अग्नि-वायु-आदित्य तथा सोम के तीन भाव-आप:-वायु-सोम यहां कार्य कर रहे हैं। बुद्बुद् के चारों ओर का जल ही परमेष्ठी है।
बीज भी पंचकोश होता है। उपरोक्त क्रियाएं बीज के स्वरूप की हैं। शुक्राणु के शरीर से बीज निकला है, डिम्ब के शरीर से बीज निकला है। दोनों पंचकोशी हैं। मन चूंकि हृदय ही है, अत: तीनों अक्षर प्राण यही हैं, आनन्द-विज्ञान भी बीज में है। बीज में आकृति है, प्रकृति है।
सूर्य से जीव नीचे उतरा, मह:लोक से आया, तब आप: बाहर रह गया। वायु के साथ सोम सूर्य के केन्द्र से जुड़े। सोम काम आ गया। प्राण (सूक्ष्म मन-वाक् सहित), अक्षर प्राणरूप नीचे आता है। सूर्य का सम्बन्ध हमारे सहस्रार-चक्र के साथ नित्य रहता है। वहीं से सूर्य प्रतिदिन हमारी आयु का एक दिन वापिस लेता है। जैसे पृथ्वी से जल खींचता है।
आयु हमको सूर्य से ही प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त ज्योति (आत्मा) तथा गौ, ये तत्त्व भी सूर्य से प्राप्त होते हैं। तीनों मिलकर मन-प्राण-वाक् रूप हमारा आत्मा बनता है। शरीर में यह आत्मा वैश्वानर-तैजस-प्राज्ञ रूप में प्रतिष्ठित रहता है। ईश्वर रूप विराट्-हिरण्यगर्भ-सर्वज्ञ इन्हीं तीनों से नित्य जुड़े रहते हैं।
बीज भी पंचकोश होता है। उपरोक्त क्रियाएं बीज के स्वरूप की हैं। शुक्राणु के शरीर से बीज निकला है, डिम्ब के शरीर से बीज निकला है। दोनों पंचकोशी हैं। मन चूंकि हृदय ही है, अत: तीनों अक्षर प्राण यही हैं, आनन्द-विज्ञान भी बीज में है। बीज में आकृति है, प्रकृति है।
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विराट् दस की संख्या कहलाती है। तीनों वेदों के ऋक्, यत्, जू और साम के साथ अग्नि-सोम के तीन-तीन भाव जुड़कर विराट् बनता है। इसके घटक विराट्-हिरण्यगर्भ-सर्वज्ञ में सानुपातिक रूप में जुड़कर सृष्टि का निर्माण करते हैं।
चयन विज्ञान के अनुसार गर्भस्थ शिशु की नौ मास तक अग्नि की चिति (चिनाई) से उत्तरोत्तर उसका स्वरूप बनता रहता है। सप्तचिति लक्षण यह अग्नि चयन नौ मास में समाप्त होता है। गर्भ में संचरित एवया मरुत के धक्के से उसका प्रसव (जन्म) हो जाता है।
चयन विज्ञान के अनुसार गर्भस्थ शिशु की नौ मास तक अग्नि की चिति (चिनाई) से उत्तरोत्तर उसका स्वरूप बनता रहता है। सप्तचिति लक्षण यह अग्नि चयन नौ मास में समाप्त होता है। गर्भ में संचरित एवया मरुत के धक्के से उसका प्रसव (जन्म) हो जाता है।
पहली क्रिया इसकी ‘रुदन’ होती है। चित्याग्नि रूप शिशु साक्षात रुद्र है। इस रुद्राग्नि से इन्द्र प्राण प्रकम्पित होते हैं। तत्काल मुंह में गुड़-मधु आदि अन्न की इस अग्नि में आहुति दी जाती है। यह शरीर भूपिण्ड भाग है। चन्द्रमा का अंश मन है, सूर्यांश बुद्धि है। अव्यक्त का अंश आत्मा कहलाता है। इसी आत्मा को- प्राणरूप-मनुतत्त्व कहते हैं।इन चारों की समन्वित अवस्था ही ‘मानव’ है।
आत्मसत्ता अथवा आत्मा का अभाव चेतन-जड़ वर्ग का विभाजक नहीं है। आत्मा जड़ में भी है, चेतन में भी है। इनका विभाजक है इन्द्रिय भाव। ”सेन्द्रियं चेतनं द्रव्यं निरिन्द्रियम् अचेतनम्’ (चरक 1/47)। जिन पदार्थों में इन्द्रियों का विकास है, वे चेतन हैं। जिनमें विकास नहीं है, वे जड़ हैं।
चर-अचर विश्व में चर चेतन है, अचर जड़। जड़ का अर्थ है-बाह्य भौतिक शरीर भाव, चेतन का अर्थ है-समनस्क (मन सहित) इन्द्रिय भाव। इन्द्र प्राण ही इन्द्रियों की प्रतिष्ठा है। अन्न लेने बाहर जाता है। प्रज्ञान मन (चांद्रमन) का प्रज्ञात्मक प्राण ही इन्द्र है। बिना मन के इन्द्रियों का कार्य असंभव है। अत: चेतन का अर्थ है-समनस्क जीव।
जिनमें केवल पृथ्वी का भूत भाग प्रधान होता है, पत्थर-लोहा-मिट्टी आदि ये सब अमनस्क (मनरहित) पार्थिव पदार्थ जड़ है। जिनमें पृथ्वी के साथ चन्द्रमा का भाग भी व्यक्त होता है- वे चेतन जीव होते हैं। कृमि-कीट-पक्षी-पशु ये चार इनके विवर्त हैं।
आत्मसत्ता अथवा आत्मा का अभाव चेतन-जड़ वर्ग का विभाजक नहीं है। आत्मा जड़ में भी है, चेतन में भी है। इनका विभाजक है इन्द्रिय भाव। ”सेन्द्रियं चेतनं द्रव्यं निरिन्द्रियम् अचेतनम्’ (चरक 1/47)। जिन पदार्थों में इन्द्रियों का विकास है, वे चेतन हैं। जिनमें विकास नहीं है, वे जड़ हैं।
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इनमें भी पार्थिव चन्द्र भाग की मात्र से श्रेणियां बन जाती हैं। इनमें विशेष प्रकार के सर्पों, भ्रमरादि कीटों, तोता-मैना आदि, हाथी-घोड़े आदि में बुद्धिशीलता भी पाई जाती है। अर्थात्-जिनमें चन्द्रमा के साथ-साथ सूर्य के प्राण भी जुड़ जाते हैं, वे बुद्धिजीवी होते हैं। चान्द्र प्राणी सृष्टि आठ प्रकार की तथा सूर्य सर्ग ३३ भागों में विभक्त है। तीनों सर्ग सूर्य पर्यन्त हैं। शेष रहा अव्यक्त भाव। जिस प्राणी में आत्मभाव की पूर्ण अभिव्यक्ति हो, वही श्रेष्ठतम ‘मानव’ सर्ग होता है।
जीव का अक्षर सृष्टि से सम्बन्ध है। ”जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता 7.5)। अर्थात्-”हे महाबाहो! यह अपरा प्रकृति है। इससे भिन्न मेरी जीवरूपी पराप्रकृति को जानो जिससे यह जगत् धारण किया जाता है।’ आत्मा का सम्बन्ध अव्यय पुरुष से है। वह विभूति सम्बन्ध से भूतों का आधार है। वह केवल मानव में ही स्वस्वरूप से पूर्णतया अभिव्यक्त होता है।
अत: मानव ‘पुरुष’ (अभिधा लक्षण) कहलाया था। अन्य प्राणी प्राकृत जीव हैं, वहीं मानव आत्मनिष्ठ पुुरुष है। यही प्रजापति का स्वरूप है। अन्य प्राणी प्रकृति तंत्र से संचालित हैं, मानव पुरुषार्थ के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र है। जब तक शरीर-मन-बुद्धि तीनों तंत्र आत्मभाव से समन्वित नहीं हो जाते, तब तक मानव नहीं कहे जा सकते।
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गर्भस्थ शिशु में भी शरीर-मन-बुद्धि ही देह बीज (रेतस्) से प्राप्त होते हैं। आत्मा कुछ काल बाद प्रवेश करता है। आत्मा भी षोडशकल कहलाता है। केन्द्र में ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र तीनों हृदय रूप प्रतिष्ठित रहते हैं। शरीर में भी हृदय है-भ्रूण में भी हृदय है। हृदय प्राण ही आत्मा को आकर्षित करते हैं।आत्मा स्वयं तय करता है कि किस शरीर में जाना है और क्यों। जीवन का लक्ष्य तय करके आता है, किन्तु प्रसव वेदना से सब कुछ विस्मृत हो जाता है। पुण्य योग से या फिर गुरु कृपा से लक्ष्य पुन: प्रकट होता है।
क्रमश:
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देवसर्ग- ये आठ प्रकार की सृष्टि हंै-ब्रह्मा, प्राजापत्य, ऐन्द्र, पैत्र्य, गंधर्व, यक्ष, राक्षस और पिशाच।
तिर्यक् सर्ग- यह सृष्टि पांच प्रकार की है-पशु, पक्षी, सर्प, कीट तथा स्थावर।