प्राण ही जीवन है, वीर्य है। वाक् योनि है। प्राण ही आगे विकार रूप में परिणत होता है। प्राण से वाक् में विकृति आती है। रेत ही विकृत होकर अनेक वस्तु उत्पन्न कर देता है। सेचन, विकृति और फिर जन्म।
मन में कामना उठने पर प्राण वाणी में सिक्त होता है। सोम ही मन है। सृष्टि रचना में सब उत्पादन मन की क्रिया के अनुसार होते हैं। आरंभ में सोममय मन ही सृष्टि की कामना करता है, उसके एक मानस रूप की कल्पना भी कर लेता है। इस रचना के लिए मन ही प्राणों को नियुक्त करता है। प्राणों द्वारा प्रेरणा पाकर वाक् ही सब पदार्थों के रूप में फैलता है।
सब सृष्टि वर्ण आधारित और आत्मा से सम्बद्ध होती है। वीर्यों का स्थान केन्द्रस्थ इन्द्र प्राण रूप आत्मा में होता है। आत्मा में चारों वर्ण रहते हैं। व्यावहारिक आत्मा निर्धर्मक नहीं है। ब्राह्मणत्व आदि को इन्द्र आत्मा का धर्म मान लेने पर उत्तम आचरण करने वालों को अगले जन्म में पुन: उत्तम भोग तथा दुराचारियों का आगे के जन्मों में पतन हो जाता है।
भूपिण्ड पशु प्राणों को असंज्ञ, अन्त:संज्ञ व ससंज्ञ तीन रूपों में बांटा जा सकता है। असंज्ञ धातुओं में ज्ञान की अनुभूति नहीं होती। पेड़-औषधि आदि अन्त:संज्ञ में भीतर ज्ञान तो रहता है, किन्तु इन्द्रियों का (बाह्य) विकास नहीं होता। ससंज्ञ प्राणियों में भलाई-बुराई का पूरा ज्ञान होता है।
अपने आधारभूत पिण्डों के वीर्य की अपेक्षा से पशुओं को निर्वीर्य कहा जाता है। इनका भी पृथक् आत्मा है। आत्मा वीर्यशून्य नहीं होता। वर्णव्यवस्था का आधार वीर्य ही है।
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।। (गीता 4.13)
इसमें कृष्ण कह रहे हैं कि चारों वर्णों को गुण और कर्मों के विभाग के अनुसार मैंने ही बनाया है। सम्पूर्ण सृष्टि में प्रत्येक योनि में चारों वीर्य रहते हैं अर्थात् पशुओं, पाषाणों, वृक्षों सभी में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र चारों वर्णों की सत्ता देखी जा सकती है।
वर्ण, आत्मा का धर्म है अत: किसी भी योनि में जन्म क्यों न हो, आत्मा का वर्ण समान ही रहता है। गजेन्द्रमोक्ष के गज में ब्रह्मवीर्य की प्रधानता थी इसीलिए पूर्वजन्म के संस्कारों के फलीभूत ही वह भगवद्स्तुति करने में सक्षम हुआ था। यह उदाहरण पशुओं में वीर्य का होना इंगित करता है।
वर्णव्यवस्था शरीर पर लागू नहीं होती। आत्मा स्वयं भी निर्विशेष रूप में निर्धर्मक है। इन्द्रप्राण रूप व्यावहारिक आत्मा में ये वर्ण रहते हैं। अत: एक शरीर में वर्ण बदल नहीं पाता। आहार-विहार जैसे आचरण तथा यज्ञादि कर्मों के कारण किसी वीर्य विशेष की प्रबलता हो जाती है, जिसका प्रभाव अगले जन्म में मिलता है।
जो अपनी शक्ति के अनुसार बाल्यकाल से ही धर्म का सेवन करता है वह मनुष्य होकर सदा सुख का अनुभव करता है। अधर्मपरायण मनुष्य यमलोक में जाता है और वहां महान कष्ट भोगकर पशु योनियों में जन्म लेता है। मोह के वशीभूत होकर कर्मों को करने वाला जीव उसी के अनुरूप ही योनियों में जन्म धारण करता है।
जैसे वेदों का अध्ययन करने वाला द्विज यदि मोहवश पतित मनुष्यों से दान लेता है तो वह गर्दभ योनि में जन्म लेता है और पन्द्रह वर्षों तक उस शरीर में रहता है। उसके पश्चात् वह सात वर्षों तक बैल की योनि में, तीन महीनों तक ब्रह्मराक्षस रूप में रहता है। उसके बाद वह पुन: ब्राह्मण का जन्म पाता है। जो पुत्र अपने माता-पिता का अनादर करता है वह मरने के बाद गर्दभ योनि में दस वर्ष तक रहता है। उसके बाद घड़ियाल की योनि में उसका जन्म होता है।
खुद पर किए हुए उपकार को न मानने वाला मनुष्य यमलोक में जाकर नरक की भयंकर यातना भोगता है। इसके बाद पुन: संसार चक्र में आता है और कीड़े की योनि में जन्म लेता है। पन्द्रह वर्ष तक कीट योनि में रहने के बाद मर जाता है। फिर बारम्बार जन्म लेकर उसी में ही नष्ट होता रहता है।
इस तरह सैकड़ों बार गर्भ की यातना भोगकर पशुयोनि में उत्पन्न होता है। इन योनियों में धर्म का तनिक भी ज्ञान नहीं रहता। प्राणी अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है और अकेला ही दु:ख से पार होता है।
क्रमश:
gulabkothari@epatrika.com
मन में कामना उठने पर प्राण वाणी में सिक्त होता है। सोम ही मन है। सृष्टि रचना में सब उत्पादन मन की क्रिया के अनुसार होते हैं। आरंभ में सोममय मन ही सृष्टि की कामना करता है, उसके एक मानस रूप की कल्पना भी कर लेता है। इस रचना के लिए मन ही प्राणों को नियुक्त करता है। प्राणों द्वारा प्रेरणा पाकर वाक् ही सब पदार्थों के रूप में फैलता है।
सब सृष्टि वर्ण आधारित और आत्मा से सम्बद्ध होती है। वीर्यों का स्थान केन्द्रस्थ इन्द्र प्राण रूप आत्मा में होता है। आत्मा में चारों वर्ण रहते हैं। व्यावहारिक आत्मा निर्धर्मक नहीं है। ब्राह्मणत्व आदि को इन्द्र आत्मा का धर्म मान लेने पर उत्तम आचरण करने वालों को अगले जन्म में पुन: उत्तम भोग तथा दुराचारियों का आगे के जन्मों में पतन हो जाता है।
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अग्नि और सोम ही पशु के पोषक
चन्द्रमण्डल का आत्मा ब्राह्मण है। अत: प्रकाश शीतल है, शान्त है। सूर्यमण्डल का आत्मा क्षत्रिय है। प्रकाश में तीव्रता है। पृथ्वी मण्डल का आत्मा वैश्य है। सभी प्रकार के अन्न तथा सम्पत्ति आदि विशेष रूप से उत्पन्न होते हैं। इन तीनों से उत्पन्न पशुओं का आत्मा (तृण-औषध-शरीर आदि) शूद्र होता है। मण्डलों के आत्मा की अपेक्षा पशुओं के आत्मा को अल्पवीर्य कहा गया है।भूपिण्ड पशु प्राणों को असंज्ञ, अन्त:संज्ञ व ससंज्ञ तीन रूपों में बांटा जा सकता है। असंज्ञ धातुओं में ज्ञान की अनुभूति नहीं होती। पेड़-औषधि आदि अन्त:संज्ञ में भीतर ज्ञान तो रहता है, किन्तु इन्द्रियों का (बाह्य) विकास नहीं होता। ससंज्ञ प्राणियों में भलाई-बुराई का पूरा ज्ञान होता है।
अपने आधारभूत पिण्डों के वीर्य की अपेक्षा से पशुओं को निर्वीर्य कहा जाता है। इनका भी पृथक् आत्मा है। आत्मा वीर्यशून्य नहीं होता। वर्णव्यवस्था का आधार वीर्य ही है।
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।। (गीता 4.13)
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पशु : अग्नि भी, अन्न भी
इसमें कृष्ण कह रहे हैं कि चारों वर्णों को गुण और कर्मों के विभाग के अनुसार मैंने ही बनाया है। सम्पूर्ण सृष्टि में प्रत्येक योनि में चारों वीर्य रहते हैं अर्थात् पशुओं, पाषाणों, वृक्षों सभी में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र चारों वर्णों की सत्ता देखी जा सकती है।
वर्ण, आत्मा का धर्म है अत: किसी भी योनि में जन्म क्यों न हो, आत्मा का वर्ण समान ही रहता है। गजेन्द्रमोक्ष के गज में ब्रह्मवीर्य की प्रधानता थी इसीलिए पूर्वजन्म के संस्कारों के फलीभूत ही वह भगवद्स्तुति करने में सक्षम हुआ था। यह उदाहरण पशुओं में वीर्य का होना इंगित करता है।
वर्णव्यवस्था शरीर पर लागू नहीं होती। आत्मा स्वयं भी निर्विशेष रूप में निर्धर्मक है। इन्द्रप्राण रूप व्यावहारिक आत्मा में ये वर्ण रहते हैं। अत: एक शरीर में वर्ण बदल नहीं पाता। आहार-विहार जैसे आचरण तथा यज्ञादि कर्मों के कारण किसी वीर्य विशेष की प्रबलता हो जाती है, जिसका प्रभाव अगले जन्म में मिलता है।
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पंच पशु : मानव सबसे विकसित
महाभारत में प्रसंग आता है कि धर्मराज युधिष्ठिर ने बृहस्पति से प्राणियों के जन्म का प्रकार और पशु योनियों में जन्म लेने का कारण पूछा। बृहस्पति बोले कि जीव अपने कर्मों से प्रेरित होकर शीघ्र ही वीर्य का आश्रय लेता है और स्त्री के रज में प्रविष्ट होकर समयानुसार जन्म धारण करता है।जो अपनी शक्ति के अनुसार बाल्यकाल से ही धर्म का सेवन करता है वह मनुष्य होकर सदा सुख का अनुभव करता है। अधर्मपरायण मनुष्य यमलोक में जाता है और वहां महान कष्ट भोगकर पशु योनियों में जन्म लेता है। मोह के वशीभूत होकर कर्मों को करने वाला जीव उसी के अनुरूप ही योनियों में जन्म धारण करता है।
जैसे वेदों का अध्ययन करने वाला द्विज यदि मोहवश पतित मनुष्यों से दान लेता है तो वह गर्दभ योनि में जन्म लेता है और पन्द्रह वर्षों तक उस शरीर में रहता है। उसके पश्चात् वह सात वर्षों तक बैल की योनि में, तीन महीनों तक ब्रह्मराक्षस रूप में रहता है। उसके बाद वह पुन: ब्राह्मण का जन्म पाता है। जो पुत्र अपने माता-पिता का अनादर करता है वह मरने के बाद गर्दभ योनि में दस वर्ष तक रहता है। उसके बाद घड़ियाल की योनि में उसका जन्म होता है।
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वर्णसंकरता का प्रवाह
दूसरों की संपत्ति हड़प लेने वाला मनुष्य यमलोक में जाता है और सौ योनियों में भ्रमण करके अन्त में कीड़ा बनता है। पन्द्रह वर्ष तक कीड़ा रहने के बाद जब उसके पापों का नाश होता है तब ही वह मनुष्य जन्म पाता है। जो देवकार्य अथवा पितृकार्य न करके निराश्रित प्राणियों को भोजन कराए बिना ही अन्न ग्रहण करता है वह मरने के बाद सौ वर्ष तक कौए की योनि में उसके बाद क्रमश: मुर्गा, सांप होकर अन्त में मनुष्य योनि को प्राप्त होता है।खुद पर किए हुए उपकार को न मानने वाला मनुष्य यमलोक में जाकर नरक की भयंकर यातना भोगता है। इसके बाद पुन: संसार चक्र में आता है और कीड़े की योनि में जन्म लेता है। पन्द्रह वर्ष तक कीट योनि में रहने के बाद मर जाता है। फिर बारम्बार जन्म लेकर उसी में ही नष्ट होता रहता है।
इस तरह सैकड़ों बार गर्भ की यातना भोगकर पशुयोनि में उत्पन्न होता है। इन योनियों में धर्म का तनिक भी ज्ञान नहीं रहता। प्राणी अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है और अकेला ही दु:ख से पार होता है।
क्रमश:
gulabkothari@epatrika.com