न बीज में गति है, न पृथ्वी में। गति प्राण में है। सृष्टि के सम्पूर्ण आदान-प्रदान का माध्यम प्राण ही है। ऋषि, पितर, देव सृष्टि के मूल हेतु (ऋण रूप) हैं। मानव तथा देवों का सम्पर्क सूत्र भी प्राण ही हैं। प्राण अदृश्य हैं, अक्षर सृष्टि हंै, देव का पर्याय हैं। आत्मा भी अदृश्य है।
अत: सारा संचालन प्राणों के माध्यम से ही होता है। हमारा शरीर भी प्राणों से संचालित होता है। शरीर स्वयं में निष्क्रिय ही है। हमारी विवाह पद्धति मूल में प्राणों का ही आदान-प्रदान है। प्राण ही वर की आत्मा और वधू की आत्मा को जोड़ते हैं, शरीरों के माध्यम से।
पिता ही सन्तान बनता है। अत: पिता के प्राण ही संतान के प्राणों का उद्भव और स्थिति हैं। माता बीजविहीन होने से, शरीर-मन-बुद्धि (आत्मा के साधन) तक ही अपना प्रभाव रखती है। विवाह में वर के प्राण वर के पिता सहित सात पीढिय़ों से युक्त रहते हैं। (विस्तृत चर्चा पं. मधुसूदन ओझा की पितृ समीक्षा पुस्तक में)। वधू के (बीज के अभाव में) प्राण पितृ संस्था में ही प्रतिष्ठित रहते हैं। अत: पिता ही विवाह पूर्व कन्या के आश्रय बनते हैं और वर विवाह के बाद यह भूमिका निभाता है।
अत: सृष्टि को पुरुष प्रधान कहा गया है। गीता में कृष्ण स्वयं कह रहे हैं कि हे कुन्तीनन्दन! सम्पूर्ण योनियों में प्राणियों के जितने शरीर पैदा होते हैं, उन सबकी मूल प्रकृति तो महद् ब्रह्म है और मैं बीजस्थापन करने वाला पिता हूं।
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तय: सम्भवन्ति या:।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रद: पिता।। (गीता 14.4)
विवाह प्रक्रिया में वधू आकर वर से संयुक्त होती है। दोनों की युति तभी हितकारी और समृद्धिवर्धक होती हुई नि:श्रेयस के मार्ग पर अग्रसर हो सकती है जब दोनों के प्राण समन्वित हों। चूंकि वधू के प्राण पिता में रहते हैं। अत: मंत्रों द्वारा इस प्राण को वहां से विस्थापित करके वर के प्राणों में प्रतिष्ठित किया जाता है। यही मूल बन्धन है।
कन्या को धरोहर रूप में ही माना जाता था। विदाई के पश्चात् कण्व ऋषि के मुख से अनायास ही निकलता है कि कन्या वास्तव में पराया धन होती है। आज शकुंतला को पति के पास भेजकर मेरा मन वैसे ही निश्चिन्त हो गया है, जैसे किसी की धरोहर वापस कर दी गई हो-अर्थाे हि कन्या परकीय एव तामद्य संपे्रष्य परिग्रहीतु:। जातो ममायं विशद: प्रकामं प्रत्यर्पितन्यास इवान्तरात्मा।। (अभिज्ञान शाकुंतलम् 4.22)
विदेशों में, विशेषकर विज्ञान में प्राण नाम की संस्था ही नहीं है। हमारे देवता प्राण रूप हैं, जिनके विभिन्न रूप दिखाई देते हैं। मूल में ये अक्षर सृष्टि संचालन के तत्त्व हैं। स्पन्दनात्मक होने से इनको मंत्र ध्वनियों से ही प्रभावित किया जा सकता है।
पिण्ड क्रिया के लक्ष्य को ध्यान में रखकर पुत्र प्राप्ति की प्रथम कामना की जाती है। उदाहरण के लिए निम्न मंत्र पुत्रकामेष्टि में प्रयुक्त होता है। इस हेतु सूर्यास्त-उदयपूर्व दही-चावल/जौ से होम करना चाहिए।
”अग्नेय स्वाहा प्रजापते स्वाहेति सायम्।
सूर्याय स्वाहा, प्रजापतये स्वाहेति प्रात:।
पुमांसौ मित्रावरुणौ पुमांसावश्विनावुभौ
पुमानिन्द्रश्च सूर्यश्च पुमांसं वर्तातं मयि
पुन: स्वाहेति पूर्वां गर्भकामा।।’
मित्र-वरुण नर हैं। सूर्य-इन्द्र नर हैं। मुझमें निश्चय ही एक नर बालक उत्पन्न हो। इन सबका अर्थ यही है कि हमारा जीवन, कर्मफल के आधार पर प्रकृति द्वारा नियंत्रित है।
उसकी आत्मा वर के घर आई ही नहीं। तब सन्तान में भी वर के साथ वधू की आत्मा नहीं पहुंचेगी। उसका एक पांव श्वसुर गृह, दूसरा पांव स्व-पितृ गृह में ही बंधा रहेगा। यही वर और वधू की आत्मा के एक होने में बाधक होगा। भले ही पूरी उम्र साथ रह लें। सन्तान पक्ष भी मां के संस्कारों से ही संस्कृत होगा। अत: पितृ पक्ष के सम्बन्ध उनको कम आकर्षित करेंगे। पिता के संस्कारों के साथ भी बहुत विरोधाभाव दिखाई देगा। वर्ण-रूप रहेंगे, व्यवहार भिन्न होगा।
शिक्षा और नौकरी के मोह ने विवाह की आयु को बढ़ा दिया, शरीर की जरूरत को दबाने की परम्परा चल पड़ी, स्वतंत्रता का बोध नारी चिन्तन का नया आधार बन गया। पितृ पक्ष का आश्रय भी नहीं छूटा। अत: पितृगृह लौटने में पितृ पक्ष भी प्रेरक होने लगा, यदि कन्या को थोड़ा भी कष्ट हुआ अथवा पति का व्यवहार अभद्र लगा। अब पति को मर्यादित करने की जिम्मेदारी पत्नी की नहीं। उसे घर लौटना आसान लगता है। कानून सारे उसके पक्ष में हैं। घरों को उजडऩे में देर ही नहीं लगती।
स्वतंत्रता के अति-बोध ने विवाह के मोह से, सन्तान की कामना से दूरी बनानी शुरू कर दी। कभी इन दोनों कर्मों के सुख देवता से मांगते थे। तपस्या और अनुष्ठान करते थे। आज शादी और तलाक (विच्छेद) दोनों बौद्धिक धरातल पर आ गए। सामाजिक स्वरूप का स्थान निजी जीवन की घटना बन गया। शरीर प्रधान होने से विवाह भी अल्प-अवधि में ही निवृत्तिप्रधान हो जाते हैं। न पुरुषार्थ, न परम्परा।
क्रमश:
अत: सारा संचालन प्राणों के माध्यम से ही होता है। हमारा शरीर भी प्राणों से संचालित होता है। शरीर स्वयं में निष्क्रिय ही है। हमारी विवाह पद्धति मूल में प्राणों का ही आदान-प्रदान है। प्राण ही वर की आत्मा और वधू की आत्मा को जोड़ते हैं, शरीरों के माध्यम से।
पिता ही सन्तान बनता है। अत: पिता के प्राण ही संतान के प्राणों का उद्भव और स्थिति हैं। माता बीजविहीन होने से, शरीर-मन-बुद्धि (आत्मा के साधन) तक ही अपना प्रभाव रखती है। विवाह में वर के प्राण वर के पिता सहित सात पीढिय़ों से युक्त रहते हैं। (विस्तृत चर्चा पं. मधुसूदन ओझा की पितृ समीक्षा पुस्तक में)। वधू के (बीज के अभाव में) प्राण पितृ संस्था में ही प्रतिष्ठित रहते हैं। अत: पिता ही विवाह पूर्व कन्या के आश्रय बनते हैं और वर विवाह के बाद यह भूमिका निभाता है।
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शरीर ही ब्रह्माण्ड: प्राणों का आदान-प्रदान
इसका कारण यह है कि बीज (रेतस्) में ही अहंकृति, प्रकृति (सत्व, रज, तम), आकृति तथा वीर्य (ब्रह्म, क्षत्र, विट्) रहते हैं। सात पीढिय़ों के बीजांश रहते हैं। पत्नी के पितृ अंश भी जुड़ जाते हैं। ये सब पत्नी की आत्मा के अंश बन जाते हैं। सृष्टि का बीज एक ही है-ब्रह्म। वही एकमात्र पुरुष है।अत: सृष्टि को पुरुष प्रधान कहा गया है। गीता में कृष्ण स्वयं कह रहे हैं कि हे कुन्तीनन्दन! सम्पूर्ण योनियों में प्राणियों के जितने शरीर पैदा होते हैं, उन सबकी मूल प्रकृति तो महद् ब्रह्म है और मैं बीजस्थापन करने वाला पिता हूं।
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तय: सम्भवन्ति या:।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रद: पिता।। (गीता 14.4)
विवाह प्रक्रिया में वधू आकर वर से संयुक्त होती है। दोनों की युति तभी हितकारी और समृद्धिवर्धक होती हुई नि:श्रेयस के मार्ग पर अग्रसर हो सकती है जब दोनों के प्राण समन्वित हों। चूंकि वधू के प्राण पिता में रहते हैं। अत: मंत्रों द्वारा इस प्राण को वहां से विस्थापित करके वर के प्राणों में प्रतिष्ठित किया जाता है। यही मूल बन्धन है।
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शुक्र में सात पीढ़ियों के अंश-सप्त पितृांश
दोनों के प्राणों का एकाकार होना ही मनों का योग है। वाक् (शरीर) भले दो रहें। इस प्रक्रिया से वधू का पितृ पक्ष सम्बन्ध सदा के लिए विच्छेद हो जाता है। चूंकि यह प्राणों का ‘प्रदान’ स्वयं पिता करता है, सहर्ष करता है, भावी कल्याण की श्रेणी में आता है, अत: दान कहलाता है। इसमें पुन: आदान नहीं होता। शास्त्रों में यज्ञ, तप, दान (आत्मांश का) धर्म के रूप कहे गए हैं- गीता 17/20 । अत: कन्यादान स्वत: धर्म बन जाता है।कन्या को धरोहर रूप में ही माना जाता था। विदाई के पश्चात् कण्व ऋषि के मुख से अनायास ही निकलता है कि कन्या वास्तव में पराया धन होती है। आज शकुंतला को पति के पास भेजकर मेरा मन वैसे ही निश्चिन्त हो गया है, जैसे किसी की धरोहर वापस कर दी गई हो-अर्थाे हि कन्या परकीय एव तामद्य संपे्रष्य परिग्रहीतु:। जातो ममायं विशद: प्रकामं प्रत्यर्पितन्यास इवान्तरात्मा।। (अभिज्ञान शाकुंतलम् 4.22)
विदेशों में, विशेषकर विज्ञान में प्राण नाम की संस्था ही नहीं है। हमारे देवता प्राण रूप हैं, जिनके विभिन्न रूप दिखाई देते हैं। मूल में ये अक्षर सृष्टि संचालन के तत्त्व हैं। स्पन्दनात्मक होने से इनको मंत्र ध्वनियों से ही प्रभावित किया जा सकता है।
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क्षण-क्षण धर्मस्य ग्लानि
हमारी तरह हमारी सन्तानें, भी स्वर्ग लोक से ही आती हैं। वे भी पिता रूप में, माता के गर्भ में प्रवेश करती हैं, सन्तान रूप में स्थूल देह धारण करती हैं। पिता ही सन्तान रूप में प्रकट होता है। अत: उत्तम सन्तान के लिए भी हम उन्हीं देवताओं से प्रार्थना करते हैं, जो हमारे जन्म, पोषण के लिए उत्तरदायी हैं।पिण्ड क्रिया के लक्ष्य को ध्यान में रखकर पुत्र प्राप्ति की प्रथम कामना की जाती है। उदाहरण के लिए निम्न मंत्र पुत्रकामेष्टि में प्रयुक्त होता है। इस हेतु सूर्यास्त-उदयपूर्व दही-चावल/जौ से होम करना चाहिए।
”अग्नेय स्वाहा प्रजापते स्वाहेति सायम्।
सूर्याय स्वाहा, प्रजापतये स्वाहेति प्रात:।
पुमांसौ मित्रावरुणौ पुमांसावश्विनावुभौ
पुमानिन्द्रश्च सूर्यश्च पुमांसं वर्तातं मयि
पुन: स्वाहेति पूर्वां गर्भकामा।।’
मित्र-वरुण नर हैं। सूर्य-इन्द्र नर हैं। मुझमें निश्चय ही एक नर बालक उत्पन्न हो। इन सबका अर्थ यही है कि हमारा जीवन, कर्मफल के आधार पर प्रकृति द्वारा नियंत्रित है।
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आवरण जो हटाए वह कर्म ही धर्म
आज कोर्ट मैरिज का, अन्तर्जातीय विवाहों का युग आ गया। कोर्ट मैरिज में कन्यादान के लिए कोई स्थान नहीं है। कन्या के प्राण पिता में ही अवस्थित रहते हैं। केवल वधू शरीर ही वर शरीर के साथ विदा होता है। प्राणों का आदान-प्रदान न होने से वधू का पितृ गृह (पीहर) से सम्बन्ध विच्छेद नहीं होता।उसकी आत्मा वर के घर आई ही नहीं। तब सन्तान में भी वर के साथ वधू की आत्मा नहीं पहुंचेगी। उसका एक पांव श्वसुर गृह, दूसरा पांव स्व-पितृ गृह में ही बंधा रहेगा। यही वर और वधू की आत्मा के एक होने में बाधक होगा। भले ही पूरी उम्र साथ रह लें। सन्तान पक्ष भी मां के संस्कारों से ही संस्कृत होगा। अत: पितृ पक्ष के सम्बन्ध उनको कम आकर्षित करेंगे। पिता के संस्कारों के साथ भी बहुत विरोधाभाव दिखाई देगा। वर्ण-रूप रहेंगे, व्यवहार भिन्न होगा।
शिक्षा और नौकरी के मोह ने विवाह की आयु को बढ़ा दिया, शरीर की जरूरत को दबाने की परम्परा चल पड़ी, स्वतंत्रता का बोध नारी चिन्तन का नया आधार बन गया। पितृ पक्ष का आश्रय भी नहीं छूटा। अत: पितृगृह लौटने में पितृ पक्ष भी प्रेरक होने लगा, यदि कन्या को थोड़ा भी कष्ट हुआ अथवा पति का व्यवहार अभद्र लगा। अब पति को मर्यादित करने की जिम्मेदारी पत्नी की नहीं। उसे घर लौटना आसान लगता है। कानून सारे उसके पक्ष में हैं। घरों को उजडऩे में देर ही नहीं लगती।
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धर्म के सहारे जीतें जीवन संग्राम
यही दृश्य विश्वभर में समान रूप से व्याप्त होने लगा है। स्त्री एक घर से दूसरे में, दूसरे से तीसरे में… जाती रहती है, लौटती रहती है। विवाह में देरी के कारण वह स्वयं शिकार होती रहती है। कई देश तो इसके दुष्प्रभावों से आतंकित भी हैं। कन्या मातृत्व एक समस्या है, तो सन्तानविहीन रह जाना दूसरी अभिव्यक्ति है। बढ़ते आई.वी.एफ. अस्पताल इसका ही पुख्ता प्रमाण हैं। व्यवहार में बौद्धिक धरातल हावी रहेगा, आत्मिक धरातल गौण होगा।स्वतंत्रता के अति-बोध ने विवाह के मोह से, सन्तान की कामना से दूरी बनानी शुरू कर दी। कभी इन दोनों कर्मों के सुख देवता से मांगते थे। तपस्या और अनुष्ठान करते थे। आज शादी और तलाक (विच्छेद) दोनों बौद्धिक धरातल पर आ गए। सामाजिक स्वरूप का स्थान निजी जीवन की घटना बन गया। शरीर प्रधान होने से विवाह भी अल्प-अवधि में ही निवृत्तिप्रधान हो जाते हैं। न पुरुषार्थ, न परम्परा।
क्रमश:
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