जीवन जीने के क्रम में ज्ञान की परिभाषा जटिल हो जाती है। आज विज्ञान का युग तो है किन्तु विज्ञान का स्वरूप केवल बाहरी जीवन से ही जुड़ा है। ठीक है, किन्तु बाहर तो नश्वरता है। एक से अनेक बनने के ज्ञान का प्रयास मात्र कह सकते हैं।
ज्ञान ही तो मूल में विज्ञान का आधार है। ज्ञान के बिना विज्ञान किसकी विविधता की बात करेगा। ज्ञान ब्रह्म है, जीव जगत के आत्मा का आधार है। ब्रह्म और कर्म ही आत्मा कहलाते हैं। कर्म में ब्रह्म का न होना ज्ञान की जड़ता ही कहलाएगी।
गीता में ज्ञान को कई रूपों में व्यवहृत किया गया है। तेरहवें अध्याय में बताया गया है कि प्रकृति-पुरुष का तात्त्विक ज्ञान ही ज्ञान है। ज्ञान का प्रमाण और पराकाष्ठा का आकलन भी समझा दिया कि मैं वासुदेव तेरा सखा और तू अर्जुन, दोनों मैं ही हूं-”वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जय:।” 10.37
ज्ञान ही तो मूल में विज्ञान का आधार है। ज्ञान के बिना विज्ञान किसकी विविधता की बात करेगा। ज्ञान ब्रह्म है, जीव जगत के आत्मा का आधार है। ब्रह्म और कर्म ही आत्मा कहलाते हैं। कर्म में ब्रह्म का न होना ज्ञान की जड़ता ही कहलाएगी।
गीता में ज्ञान को कई रूपों में व्यवहृत किया गया है। तेरहवें अध्याय में बताया गया है कि प्रकृति-पुरुष का तात्त्विक ज्ञान ही ज्ञान है। ज्ञान का प्रमाण और पराकाष्ठा का आकलन भी समझा दिया कि मैं वासुदेव तेरा सखा और तू अर्जुन, दोनों मैं ही हूं-”वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जय:।” 10.37
विभूति योग में कृष्ण कहते हैं कि सृष्टि के प्रत्येक स्वरूप में मैं ही व्याप्त हूं। इसको तत्त्व से जान लेना ही ज्ञान है-”एकोज्ञानं ज्ञानम्”। यही ब्रह्माण्ड का संहित भाव है, अश्वत्थ का स्वरूप है। कृष्ण ही ज्ञान है, कृष्ण ही ज्ञाता है, कृष्ण ही ज्ञेय है। एक ही तो हैं तीनों।
मैं आकाश की ओर देख रहा हूं। देखते-देखते स्वयं का भान खो बैठा। ज्ञाता स्वयं ज्ञेय हो गया। फिर धीरे-धीरे आकाश भी खो गया । सब कुछ अनन्त में लीन। इसको क्या कहेंगे- ज्ञान, ज्ञाता या ज्ञेय। मन्दिर में, देवदर्शन में पहले मैं खोता हूं, फिर मूर्ति। कौन बचता है, कौन जाने। प्रसव के बाद सन्तान में भी मां को दिखाई पड़ती है, अपनी सूरत और ईश्वर की छाया। ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय सदा एकाकार रहते हैं।
आत्मा का धर्म है ज्ञान (जानना) और देखना (दर्शन)। आत्मा ही ज्ञाता है, आत्मा ही दृष्टा है। ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय तीनों आत्मा ही तो है। जीवन में क्या अर्थ है, इन चर्चाओं का? जिस ज्ञान से विश्व चल रहा है, क्या वह हितैषी नहीं है? क्या मेरा ज्ञान के प्रति चिन्तन वास्तविक नहीं है?
हर व्यक्ति नित्य कोई न कोई कर्म कर रहा है, कुछ न कुछ ज्ञान का उपयोग भी कर रहा है। तब कर्म और ज्ञान के समुच्चय में ऐसा क्या है कि मुझे सीखना चाहिए। कैसे समझ में आए कि मेरे कर्म में ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय का पूर्ण समुच्चय है?
कृष्ण कहते हैं कि फल की आसक्ति को त्यागकर, सिद्धि-असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर कर्म कर। समत्वरूप कर्म ही कर्म-कौशल है। क्योंकि बिना ज्ञान के कर्म नहीं होता। ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय का समभाव प्रमाणित ही है। ज्ञाता जब त्रिगुण से बंधा है, तब उसका ज्ञान भी शुद्ध कहां हो सकता है।
त्रिगुण जीव को शरीर में बांधते हैं। इससे मुक्त कैसे हों? इसका समाधान कृष्ण ने ही बता दिया कि जब दृष्टा इन गुणों के अतिरिक्त ओर किसी को कर्ता के रूप में नहीं देखता तथा गुणातीत उस परम तत्व को जान लेता है तब वह मेरे भाव को प्राप्त कर लेता है-
नान्यं गुणेभ्य: कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति।। गीता 14.19
एक और मार्ग की ओर कृष्ण इशारा करते हैं-सम्पूर्ण कर्मों को मुझ में अर्पण कर दे। भक्ति में लीन हो जा। मन-बुद्धि को मुझ में लगा दे। अभ्यास के द्वारा मुझे प्राप्त करने की इच्छा कर। मेरे निमित्त कर्म कर यानी कि अपना कर्ताभाव छोड़ दे। नहीं तो सभी कर्मों की फलाशा त्याग दे। 12/10-12
यहां ज्ञान और कर्म का द्वन्द्व है। आत्मा और शरीर की स्पर्धा हटाने का प्रयास है। कर्ता न रहे तो कर्म ईश्वर का हो गया। फल भी ईश्वर को ही मिलेगा। ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय को साथ रखने की ही प्रेरणा है। भक्ति का अर्थ है आत्मा का अंग हो जाना। आसक्ति छूटना ही त्रिगुण छूटना है।
ईश्वर की इच्छा पर समर्पण होने का अर्थ नदी में बह जाना। न कोई प्रयास, न दिशा। प्रवाह के साथ सागर में मिलकर सागर बन जाना। यही कर्म योग भी है। दृश्य-दृष्टि के मूल दृष्टा को समझे बिना इस कर्मयोग की निष्पत्ति नहीं हो सकती।
सही तो यह है कि हमारे तीन शरीर ही ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय का कार्य करते है। ज्ञान आलम्बन है, अव्यय है। ज्ञाता कारण बनता है, किन्तु ज्ञान पर आलंबित है। ज्ञान ही कारण बना रहा है, हृदय रूप है। अक्षर पुरुष ही प्राणरूप में कारण कहलाता है। क्षर ही ज्ञेय बना रहता है। स्वयं निमित्त है। चेतना का अभाव रहने से क्षर सृष्टि न ज्ञान है, न ही ज्ञाता बन पाती है। सूक्ष्म ही स्थूल बनता है। ज्ञान (ब्रह्म) ही ज्ञेय (क्षर ब्रह्म) कहा जा रहा है। दो कहां है।
कृष्ण स्थितप्रज्ञ के स्वरूप को बताते हैं कि जो बिना प्रयास प्राप्त भोग से सन्तुष्ट हो।
स्वयं के ज्ञान-ज्ञाता भाव को क्षर जीवन से जोडऩे का प्रयास नहीं करे। भीतर आत्मस्थ रहे। आनन्द-विज्ञान से मन जुड़ा रहे। यह शुद्ध ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय की एकरूपता का ही उदाहरण है। मैं ही ज्ञान, मैं ही ज्ञाता, मैं ही ज्ञेय। वाक् से जुड़ते ही इस एकरूपता का विखण्डन हो जाता है। ज्ञेय ही ज्ञाता होने के अहंकार से ग्रस्त हो जाता है। ज्ञान आवरित हो जाता है।
आप खाना खा रहे हैं। खाना ज्ञेय है। पांचों इन्द्रियों से खा रहे हैं। इनमें कार्यरत प्राण अक्षर पुरुष से जुड़े हैं। उसे ही ज्ञान हो रहा है कि खाना कैसा है। दधि, घृत, मधु भाग का ज्ञान भी सर्वेन्द्रिय मन तक पहुंच रहा है। भोजन का अमृत भाग- रसो वै स:- अव्यय को पहुंचता है। क्षर मत्र्य भाग है, अक्षर मृत्यु अमृत है, अव्यय शुद्ध अमृत है। आप के तीनों पुरुष रूप खाने में भाग लेकर आपके मन का पोषण कर रहे हैं। यहां ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय आपसे बाहर नहीं हैं। समग्रता और समत्व का यही अर्थ है।
सिद्धान्त रूप से तो तीनों पुरुष एक ही ब्रह्म का विवर्त हैं। अत: सारे भेद अज्ञान से दिखाई पड़ते हैं। सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में भी वही बैठा है। अत: प्रत्येक स्वरूप उसी का है। वही साक्षी रूप सबकी आत्मा में बैठा है। तब क्या ज्ञान और क्या ज्ञेय! वही कर्ता, वही भोक्ता और वही जगत् का संचालक! माया ही भेद दृष्टि की कारक है। जो व्यक्ति अपने अद्वय भाव को जान लेता है, उसकी दृष्टि के सारे भेद समाप्त हो जाते हैं। क्रमश:
मैं आकाश की ओर देख रहा हूं। देखते-देखते स्वयं का भान खो बैठा। ज्ञाता स्वयं ज्ञेय हो गया। फिर धीरे-धीरे आकाश भी खो गया । सब कुछ अनन्त में लीन। इसको क्या कहेंगे- ज्ञान, ज्ञाता या ज्ञेय। मन्दिर में, देवदर्शन में पहले मैं खोता हूं, फिर मूर्ति। कौन बचता है, कौन जाने। प्रसव के बाद सन्तान में भी मां को दिखाई पड़ती है, अपनी सूरत और ईश्वर की छाया। ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय सदा एकाकार रहते हैं।
आत्मा का धर्म है ज्ञान (जानना) और देखना (दर्शन)। आत्मा ही ज्ञाता है, आत्मा ही दृष्टा है। ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय तीनों आत्मा ही तो है। जीवन में क्या अर्थ है, इन चर्चाओं का? जिस ज्ञान से विश्व चल रहा है, क्या वह हितैषी नहीं है? क्या मेरा ज्ञान के प्रति चिन्तन वास्तविक नहीं है?
हर व्यक्ति नित्य कोई न कोई कर्म कर रहा है, कुछ न कुछ ज्ञान का उपयोग भी कर रहा है। तब कर्म और ज्ञान के समुच्चय में ऐसा क्या है कि मुझे सीखना चाहिए। कैसे समझ में आए कि मेरे कर्म में ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय का पूर्ण समुच्चय है?
यह भी पढ़ें
हर कर्म की व्याप्ति त्रिकाल में
कृष्ण कहते हैं कि फल की आसक्ति को त्यागकर, सिद्धि-असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर कर्म कर। समत्वरूप कर्म ही कर्म-कौशल है। क्योंकि बिना ज्ञान के कर्म नहीं होता। ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय का समभाव प्रमाणित ही है। ज्ञाता जब त्रिगुण से बंधा है, तब उसका ज्ञान भी शुद्ध कहां हो सकता है।
त्रिगुण जीव को शरीर में बांधते हैं। इससे मुक्त कैसे हों? इसका समाधान कृष्ण ने ही बता दिया कि जब दृष्टा इन गुणों के अतिरिक्त ओर किसी को कर्ता के रूप में नहीं देखता तथा गुणातीत उस परम तत्व को जान लेता है तब वह मेरे भाव को प्राप्त कर लेता है-
नान्यं गुणेभ्य: कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति।। गीता 14.19
एक और मार्ग की ओर कृष्ण इशारा करते हैं-सम्पूर्ण कर्मों को मुझ में अर्पण कर दे। भक्ति में लीन हो जा। मन-बुद्धि को मुझ में लगा दे। अभ्यास के द्वारा मुझे प्राप्त करने की इच्छा कर। मेरे निमित्त कर्म कर यानी कि अपना कर्ताभाव छोड़ दे। नहीं तो सभी कर्मों की फलाशा त्याग दे। 12/10-12
यहां ज्ञान और कर्म का द्वन्द्व है। आत्मा और शरीर की स्पर्धा हटाने का प्रयास है। कर्ता न रहे तो कर्म ईश्वर का हो गया। फल भी ईश्वर को ही मिलेगा। ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय को साथ रखने की ही प्रेरणा है। भक्ति का अर्थ है आत्मा का अंग हो जाना। आसक्ति छूटना ही त्रिगुण छूटना है।
यह भी पढ़ें
शरीर ही ब्रह्माण्ड: मैं कौन हूं!
यही कर्म की सिद्धि है। ”मा फलेषु कदाचन” का भी यही अर्थ है। जब तक फल की आकांक्षा है, बुद्धि का अहंकार प्रभावी है। कर्ता भाव बना ही है। कर्म के फल बन्धन कारक हैं। समत्व भाव के कारण फल की आसक्ति छूट जाती है।ईश्वर की इच्छा पर समर्पण होने का अर्थ नदी में बह जाना। न कोई प्रयास, न दिशा। प्रवाह के साथ सागर में मिलकर सागर बन जाना। यही कर्म योग भी है। दृश्य-दृष्टि के मूल दृष्टा को समझे बिना इस कर्मयोग की निष्पत्ति नहीं हो सकती।
सही तो यह है कि हमारे तीन शरीर ही ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय का कार्य करते है। ज्ञान आलम्बन है, अव्यय है। ज्ञाता कारण बनता है, किन्तु ज्ञान पर आलंबित है। ज्ञान ही कारण बना रहा है, हृदय रूप है। अक्षर पुरुष ही प्राणरूप में कारण कहलाता है। क्षर ही ज्ञेय बना रहता है। स्वयं निमित्त है। चेतना का अभाव रहने से क्षर सृष्टि न ज्ञान है, न ही ज्ञाता बन पाती है। सूक्ष्म ही स्थूल बनता है। ज्ञान (ब्रह्म) ही ज्ञेय (क्षर ब्रह्म) कहा जा रहा है। दो कहां है।
यह भी पढ़ें
शरीर ही ब्रह्माण्ड: मैं ही विराट्
कृष्ण कह रहे हैं कि पैदा होता हूं साधुओं की (ब्रह्मज्ञानियों) रक्षा के लिए। दुष्टों-अक्षर प्राण स्वरूप देव-दानवों के ‘विनाशाय’-क्योंकि कर्ता भाव उन्हीं का है। वे ज्ञाता बनकर कारण बनते हैं। शरीर अथवा स्थूल जगत ज्ञेय है।कृष्ण स्थितप्रज्ञ के स्वरूप को बताते हैं कि जो बिना प्रयास प्राप्त भोग से सन्तुष्ट हो।
स्वयं के ज्ञान-ज्ञाता भाव को क्षर जीवन से जोडऩे का प्रयास नहीं करे। भीतर आत्मस्थ रहे। आनन्द-विज्ञान से मन जुड़ा रहे। यह शुद्ध ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय की एकरूपता का ही उदाहरण है। मैं ही ज्ञान, मैं ही ज्ञाता, मैं ही ज्ञेय। वाक् से जुड़ते ही इस एकरूपता का विखण्डन हो जाता है। ज्ञेय ही ज्ञाता होने के अहंकार से ग्रस्त हो जाता है। ज्ञान आवरित हो जाता है।
आप खाना खा रहे हैं। खाना ज्ञेय है। पांचों इन्द्रियों से खा रहे हैं। इनमें कार्यरत प्राण अक्षर पुरुष से जुड़े हैं। उसे ही ज्ञान हो रहा है कि खाना कैसा है। दधि, घृत, मधु भाग का ज्ञान भी सर्वेन्द्रिय मन तक पहुंच रहा है। भोजन का अमृत भाग- रसो वै स:- अव्यय को पहुंचता है। क्षर मत्र्य भाग है, अक्षर मृत्यु अमृत है, अव्यय शुद्ध अमृत है। आप के तीनों पुरुष रूप खाने में भाग लेकर आपके मन का पोषण कर रहे हैं। यहां ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय आपसे बाहर नहीं हैं। समग्रता और समत्व का यही अर्थ है।
सिद्धान्त रूप से तो तीनों पुरुष एक ही ब्रह्म का विवर्त हैं। अत: सारे भेद अज्ञान से दिखाई पड़ते हैं। सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में भी वही बैठा है। अत: प्रत्येक स्वरूप उसी का है। वही साक्षी रूप सबकी आत्मा में बैठा है। तब क्या ज्ञान और क्या ज्ञेय! वही कर्ता, वही भोक्ता और वही जगत् का संचालक! माया ही भेद दृष्टि की कारक है। जो व्यक्ति अपने अद्वय भाव को जान लेता है, उसकी दृष्टि के सारे भेद समाप्त हो जाते हैं। क्रमश:
यह भी पढ़ें