इस ग्रन्थ में बहुत विस्तार दिया हुआ है कि किस कर्म के प्रभाव से कौनसी योनि प्राप्त होती है। विभिन्न राशियों-नक्षत्रों में पैदा हुए मनुष्य की भविष्य की कुण्डली का आधार यही होता है। बहुत कुछ संकेत हमें गरुड़ पुराण में भी मिलते हैं। किन्तु वेद-पुराण पद में भी हैं और संकेतों में भी।
अत: उनका प्रत्यक्ष अर्थ वही नहीं होता, संकेतों को खोलना पड़ता है। पुराण-कथाओं का शाब्दिक विवेचन-कथारूप कई प्राकृतिक भ्रान्तियों का कारण बना हुआ है। वेद के भाष्य भी विषय को स्पष्ट करने में पूर्ण सफल नहीं हुए।
शरीर ही ब्रह्माण्ड : आसक्त मन बाहर भागता है
सम्पूर्ण सृष्टि एक सूत्र में बंधी है। यही वसुधैव-कुटुम्बकम् है। सभी प्राणी एक-दूसरे के साथ युक्त हैं। मानव-पशु-पक्षी-जड़-चेतन-वनस्पति कुछ भी स्वतंत्र संस्था नहीं है। ये सारे एक ही पदार्थ के भिन्न-भिन्न रूप हैं, जिनको एक ऊर्जा-शक्ति चलाती है, व्यवस्थित रखती है। पदार्थ ही ऊर्जा है, ऊर्जा ही पदार्थ है। ये कभी नष्ट नहीं होते- रूप बदलते रहते हैं।प्राणियों के कर्म तीन प्रकार के होते हैं-शुभ, अशुभ और मध्यम। इनके फल भी तीन प्रकार के ही होते हैं-
अनिष्टं नागलोके च नरके विविधे तथा।
इष्टं स्वर्गे फलं देवि! मिश्रं मत्र्ये प्रजायते॥ (कर्मविपाक संहिता अश्विनी नक्षत्र 2.17)
अशुभ कर्मों के फल नागलोक/नरकों में, शुभ फल स्वर्गलोक में तथा मध्यम फल मनुष्य लोक में भोगे जाते हैं। रोग, अभाव जैसे कारणों से कर्मों का ज्ञान किया जाता है।
जो मित्रद्रोही, पशुघाती है, वह मृत सन्तान वाला तथा रोगी होता है। (2/23) आत्मघाती, गर्भ का नाश करने वाला, धन/पुस्तकें चुराने वाला जन्मांध होता है। (2/24) वस्त्र चुराने वाला, भूमि हरण करने वाला, दूसरों की निंदा करने वाला दरिद्री होता है। (2/26)
पशु : मानव से अधिक मर्यादित
वृक्षों से फल चुराने वाला कौआ (काक) होता है। वन में अग्नि लगाने वाला नेत्र रोगी होता है। उसके नाक से कीड़े गिरते रहते हैं। (2/34) आभूषण चोर पुत्र-नाशक, रास्ते को रोकने वाला पाण्डु रोगी, मोर-मुर्गा-कछुआ आदि का पीड़क वात रोगी, लंगड़ा, नपुंसक बनता है।शराबी, मांसाहारी निम्न जातियों में जन्म लेता है। (2/38-39) ग्यारहवें अध्याय में शिकार के फल का वर्णन है कि शिकारी अपने कर्मों के फलस्वरूप क्रमश: सूअर, वहां से बिल्ली और फिर गिद्ध की योनि को प्राप्त हुए। पुन: मनुष्य योनि में आने पर उनकी कोई सन्तान जीवित नहीं रही। (11/11)
यह एक बानगी मात्र है। ग्रन्थ में 27 नक्षत्रों के चार चरणों के अनुसार 108 श्रेणी में फलादेश दिया है। योनियों के कारण और स्वरूप का उदाहरणों के साथ विस्तार दिया है। हर योनि में पूर्व कर्मफल भोगने के लिए, ऋणानुबन्ध खोलने के लिए अन्य आत्माओं का भी साथ होना आवश्यक है।
शरीर ही ब्रह्माण्ड: मानव योनि में पशु भाव
ये मित्र योनियां भी हो सकती हैं और शत्रु योनियां भी। लोग घरों में पशु-पक्षी-मछलियों आदि को पालते हैं, प्रेम करते हैं, सेवा करते हैं, खेत में जोतते है, युद्ध में भूमिका निभाते हैं। शास्त्र हमको यह ज्ञान भी देते हैं कि हम अपने ही विवेक या अविवेक से अपना अगला जन्म भी तय कर लेते हैं। एक अपनी मूल प्रकृति से तथा दो, अपनी अन्तिम इच्छा से।इस जीवन चक्र मेे एक ही तथ्य निश्चित है कि जो कर्म हम स्वेच्छा से करते हैं, उन्हीं का फल प्राप्त होता है। चूंकि संस्कार अन्त:करण का अंग हैं, ये आत्मा से जुड़े रहकर अगले जन्म में साथ रहते हैं। नए जन्म में जिस प्रकार का वातावरण मिलता है, संग मिलता है, वैसी ही प्रतिक्रिया और आत्मा का विकास होता जाता है।
हमारे यहां तो गाय-बैलों की, तुलसी-पीपल की जैसे हर क्षेत्र में वृक्षों की, जल की, पशुओं की पूजा होती है। पशुओं को रोटी खिलाना, पोषबड़े, खीर, कीड़ी-नगरा सींचना, घास डालना, बावडिय़ां बनवाना जैसे कर्म भी निर्देशित हैं।
शरीर में भी अग्नि-वायु-आदित्य
सबके पीछे एक ही तथ्य है- सारे स्थूल, दृश्य शरीर सूक्ष्म आत्माएं हैं, अदृश्य हैं। सारे देवी-देवता सृष्टि के सूक्ष्म प्राण हैं, तत्त्व रूप हैं। उनके वाहन उनके स्वरूपों को प्रतिबिम्बित करते हैं। परस्पर होने वाले व्यवहार का स्थूल रूप भी हैं।इनका आकलन भी हमें देवता के स्वरूप से परिचित करा देगा। इनके सभी वाहन पशु-पक्षी रूप ही हैं। अर्थात्-सभी पूजनीय भी हैं। श्वान को भी भैरव का वाहन मानकर रोटी दी जाती है। शिव परिवार के तो सभी वाहन एक दूसरे के शत्रु रूप हैं।
हमें आत्मा को भी तत्त्व रूप में ही देखना होगा। मनुष्य ही देव बनता है, पशु बनता है। एक पत्थर की मूर्ति में प्राण फूंककर हम उसे तात्त्विक स्वरूप ही तो देते हैं। वह मूर्ति अपना प्रभाव दिखाती है। हम अपना जीवन उसे अर्पित करने को तत्पर रहते हैं। मूर्ति के आभामण्डल से परिक्रमा करके गुजरते हैं। जब एक प्राण-संचित मूर्ति के आभामण्डल हो सकता है तब एक चेतन प्राणी के भी हो सकता है।
मानवविहीन पशु साम्राज्य : सेरेनगेटी
जब हमारा आभामण्डल किसी अपरिचित व्यक्ति/प्राणी से मिलता है, तब हमारा आभामण्डल सम्पर्क में आकर उसके स्वरूप-भावना की सूचना दे देता है। हम ध्यान नहीं देते, पशु ध्यान से परख लेते हैं। स्वामी को संकेत भी करते हैं, यदि उसका निर्णय गलत जा रहा है। अपना कर्ज चुका रहा होता है।प्रत्येक योनि में आत्म साक्षात्कार में मुख्य बाधा कामना ही होती है। अनेक पशु-पक्षी सुदृढ़ दाम्पत्य भाव के लिए जाने जाते हैं। कुछ बाधक के रूप में। योनि कोई भी हो, आत्मा सब में जाग्रत रहता है।
प्रत्येक प्राणी मृत्यु से उतना ही डरता है, जितना कि हम डरते हैं। कुछ अन्य प्राणियों में पूर्व जन्म के कर्मों का विपाक होकर आत्म साक्षात्कार हो जाता है। गजेन्द्र मोक्ष की कथा इसका बड़ा प्रमाण है। हर आत्मा में ईश्वर बन जाने की क्षमता है।
क्रमश: