सृष्टि क्रम में रस, बल का आधार बनता है। दोनों अभिन्न हैं। ब्रह्म अगर अकेला है तो सृष्टि हो ही नहीं सकती। वह ऋत में घूम रहा है। जब हम सृष्टि की बात कर रहे हैं तब रस बल का आधार है। रस में क्रिया भाव नहीं है। बल की वजह से ही उसका क्रिया भाव बन रहा है और रस का उत्थान हो रहा है, रस का विवर्त बन रहा है। इसलिए रस को आधार कहा है। दोनों में इसलिए अभिन्नता भी सिद्ध होती है। ब्रह्म का (रस का) विवर्त बन रहा है और बनाने वाला बल है। दोनों मिलकर, साथ आ कर काम कर रहे हैं। जुड़े हुए नहीं रहेंगे तो सृष्टि कैसे होगी? इसलिए रस और बल को अविनाभाव मानना होगा।
वस्तुत: रस और बल विरुद्ध लक्षण वाले हैं। एक सत् है, दूसरा असत्। एक व्यापक है, दूसरा व्याप्य (सीमित) है। एक विद्या है, दूसरा अविद्या है। रस पूर्ण है, बल शून्य अर्थात् अनित्य है, क्योंकि बल मरणधर्मा है। बल आया, चला गया, मर गया। इच्छा हुई, काम किया, मन मर गया। हर इच्छा नए रूप में पैदा हुई। इच्छा पूरी हुई और वह मन भी मर गया। उस मन का अस्तित्व समझना चाहेंगे तो वह कहीं दिखेगा नहीं, शून्यता ही दिखेगी। रस अकर्मा और बल कर्ममय है। रस सदा स्थिर है, बल अस्थिर है।
रस में बल के जाग जाने पर, रस से बल का स्वरूप अलग दिखाई देने लगता है। यह बल की विभक्त अवस्था होती है। इसी प्रकार बल से संयुक्त रस का स्वरूप भी मौलिक भाव से भिन्न हो जाता है। रस से ही बल का उदय होता है तथा अन्त में बल, रस में ही लीन हो जाता है, जैसे पानी पर वायु के वेग से बुदबुदे उत्पन्न होते हैं।
ब्रह्म में जब माया जागी तो उसका ब्रह्म में संसर्ग हुआ। ब्रह्म का अंश लेकर माया अलग होगी और योगमाया रूप में स्वतन्त्र निर्माण करेगी। फिर दूसरा अंश लेकर और स्वतन्त्र निर्माण करेगी। एक-एक अंश लेकर वह निर्माण करती चली जाएगी। यह ब्रह्म का विसर्जन हुआ, यही जगत् है।
बल के जाग्रत होते ही क्रिया भाव शुरू हो जाएगा, अन्यथा केवल रस ही रहता है। बल पैदा होता है, मरता है। आदमी पैदा हुआ, मर गया। यह योगमाया का कार्य है। ‘इन्द्रो मायाभि: पुरुरूप इयते’ अर्थात् वह जो बल रूपी इन्द्र है वह माया से अनेक रूपों को धारण करता है। वह इन्द्र ब्रह्म से पृथक् होकर संसार में अनेक रूपों में प्रकट होता है। बल को महागुणी इसलिए कहा है क्योंकि सारे कर्म इसी में से निकलते हैं। सारी क्रियाएं बल से होती हैं। बल को स्वलक्षण भी इसलिए कहा कि यह जब तक सुप्त है तब तक कोई क्रिया नहीं होती।
इस अवस्था को परात्पर कहते हैं। जैसे ही बल जाग्रत होगा तो सारे लक्षण (क्रिया के) स्वत: ही प्रकट होने लगते हैं। ये सारे लक्षण केवल कर्म के हैं, रस के लक्षण नहीं हैं। रस निष्कल, निष्काम, निर्गुण है। सृष्टि के सारे कर्म बल पर आश्रित हैं इसलिए बल को महागुणी कहा है। ये गुण क्रियाभाव में नजर आते हैं।
यह संसार ब्रह्म का ही विकास है। बल उस ब्रह्म में कर्म रूप है। कर्म क्षणमात्र रहता है, नष्ट हो जाता है। ब्रह्म नित्य सनातन है। सृष्टि के पूर्व अमृतमय रस पूर्ण भाव है। वह सृष्टि में भी पूर्ण ही है। उस पूर्ण में से आगे भी पूर्ण का ही उदय होता है। अत: वह उदित भी पूर्ण ही है। यदि पूर्ण के पूर्णभाव को परित: (सब प्रकार से) ग्रहण कर लिया जाए तो अन्त में जो बचेगा वह भी पूर्ण ही होगा।
‘पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥’
रसमय ब्रह्म में बल द्वारा कम्प या क्षोभ पैदा होता है। बल कर्म की आदि अवस्था है, कर्म बल का फल है। एक अवस्था में स्थित रस को जब बल कम्पित करता है, तब देशत्याग रूप क्रिया होने लगती है। एक अवस्था से अन्य अवस्था में बदलना देशत्याग है। बल, क्रिया (कम्प) तथा देशत्याग, तीनों का आधार ब्रह्म ही है। क्षोभजनित कर्म का आधार बन जाने से सृष्टि रचना हुई और अमृततत्त्व या रस में अभिमुखता आ गई, यही ब्रह्म का भोग है, साकार भूमिका है।
इतना हो जाने पर भी रसमय ब्रह्म में विकार का स्पर्श नहीं होता। हां, अमृत से युक्त बल क्रिया रूप रहता है। क्रिया भी सतत परिवर्तनशील है। बल, बलजनित क्षोभ तथा फल रूप कर्म निराधार नहीं कहे जा सकते। ये परसत्ता से ही सत्ता रखते हैं, स्वतन्त्र सत्तावान् नहीं हैं। बल के द्वारा क्षोभित होते ही बल में अमृत का आधान हो जाता है। इस आन्तर प्रक्रिया में भोग की अनुभूति सत्तामयी बनती है। आनन्दमय भोग अवस्था जहां आश्रय पा रही है, वही भोक्ता है।
ब्रह्म और कर्म को अमृत और मृत्यु रूप कहते हैं। मरण भाव से जिसका स्पर्श भी नहीं होता, वह रस-ब्रह्म अमृत है। मरणधर्मा बल मृत्यु रूप है। बल या कर्म स्वयं तो मरकर नष्ट होता ही है, अपने संसर्ग में आए हुए अन्य बलों को भी मारने या आवरित करने की चेष्टा करता है, अत: मृत्युधर्मा है। ब्रह्म में विभाग रूप अवयव है ही नहीं, अत: क्रिया वहां कम्पन उत्पन्न नहीं कर पाती। ब्रह्म की सत्ता सर्वत्र है, उसमें कभी विकार नहीं होता। विकार तो देश, काल और रूप के द्वारा होता है। व्यापक में ऐसा कोई भेद नहीं होता। न ब्रह्म का कोई रूप है, जो विकृत हो सके। जब क्रिया ब्रह्म में कोई विकार उत्पन्न नहीं कर पाती, तब स्वयं ही शान्त हो जाती है।
जब तक मृत्यु अमृत में लीन रहता है, उसका एक ही रूप, अमृत रूप होता है। किन्तु जब प्रजा में प्रविष्ट होता है तो अनेक रूप हो जाता है। अमृत-मृत्यु का सम्बन्ध ही बन्ध कहा जाता है। उसी के अनुरूप भावरूप विकार रस में नजर आने लगते हैं। रस का स्वाभाविक विज्ञानभाव आवरित हो जाता है। व्यापकभाव के व्यक्तिभाव में आ जाने का यही क्रम है। आवरित होना कालुष्य कहलाता है, अर्थात् अविद्या स्वाभाविक विद्या को ढक लेती है।
अज्ञान द्वारा ज्ञान आवृत हो जाता है, या यूं कहें कि शरीर धारणा (प्रत्यय) मात्र रह जाता है और आत्म धारणा(प्रत्यय) गुप्त हो जाता है। बल अमृत में लीन होता है। जहां कर्म लीन हो जाए, वहां सर्जन नहीं होता। वह कर्म का शून्य स्थान है। वहां विकास का थोड़ा-सा आवरण मात्र कर्म के द्वारा हो पाता है। जहां सृष्टि होती है, वहां रस की पूर्णता प्राप्त कर कर्म भी पूर्ण कहा जाता है। पूर्ण ही सत् है, सत् ही आनन्द है तथा आनन्द ही विकास है। विकास भी पूर्ण को ही कहा जाता है, अत: रस में लीन हो जाने पर बल भी पूर्ण हो जाता है।
क्रमश: