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जीव स्वयं आ सकता है – जा नहीं सकता

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: वैसे तो गति भी जीव के भाग्य का अंश है, किन्तु शास्त्र कहते हैं कि भाग्य को बदला जा सकता है। गुरु ही यह कार्य करने में सक्षम होता है। गुरु ही शिष्य को तलाशने की, तराशने की तथा शिष्य के प्राणों के संचरण की क्षमता रखता है… ‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ श्रृंखला में पढ़ें पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख-

Jan 14, 2023 / 10:55 pm

Gulab Kothari

शरीर ही ब्रह्माण्ड : जीव स्वयं आ सकता है – जा नहीं सकता


Gulab Kothari Article शरीर ही ब्रह्माण्ड:
व्यक्ति अपनी उधेड़बुन में इतना खोया रहता है कि उसके साथ क्या हो जाता है, उसका क्या खो जाता है, क्या मिल जाता है, उसका कुछ भान ही नहीं हो पाता। उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति 25-30 वर्ष से भक्ति मार्ग पर चल रहा है, रोज आराधना करता है, प्रार्थना करता है, कुछ मांगता भी रहता है। उसे कुछ न कुछ मिलता भी रहता है। पहले कहां था, आज कहां पहुंच गया – यह दुनिया को तो दिखाई पड़ता है, उसे नहीं दिखाई पड़ता। वह भीतर से नहीं बदल पाया। पहले दिन जैसा था, जो सम्बन्ध बनाकर (इष्ट से) चला था, उसके सामने आज भी वही दृश्य है। यदि वह सुदामा की तरह भक्ति मार्ग से आया था- निर्धन, धन की आशा के साथ- तो आज भी भक्ति में वह सुदामा ही है। बाहर कितना भी समृद्ध हो गया हो। इसमें व्यक्ति का बोध प्रतिबिम्बित होता है। वह समृद्धि के प्रति अनासक्त है। ईश्वर के पास ही बैठा है।
दूसरा व्यक्ति भी उधेड़बुन में है, खोया हुआ है। वह समृद्ध भी है, स्वच्छन्द भी है। किन्तु दिशाहीन है। जीने का कोई लक्ष्य स्पष्ट नहीं है। भूल गया है कि मानव देह में क्यों आया है! जीव स्वयं ही अपना भाग्य निर्धारित करता है। कर्म करता है, फल पाता है। मृत्यु के उपरान्त फल भोगने जाता है- सूक्ष्म शरीर में।

स्वर्ग जाता है, नरक जाता है, प्रेतयोनियों में जाता है, 84 लाख योनियों में भ्रमण करता है। भोगकाल के अन्त में पुन: मनुष्य योनि में प्रवेश के लिए चक्कर काटता है। पृथ्वीलोक के अन्तरिक्ष से नीचे देखता है और अपने लिए माता का चयन करता है।

माता का परिवार, पिता के परिवार का इतिहास, स्वयं के लक्ष्य जिनकी इस परिवार में रहकर पूर्ति करना चाहता है, इत्यादि प्रश्नों को ध्यान में रखकर गर्भाधान काल में माता के गर्भ में प्रवेश कर पाता है। वहां पर वह दस माह रहता है। जब तक शरीर पिण्ड हिलता-डुलता नहीं है, जीव भी शान्त रहता है। मां को कोई गतिविधि का अनुभव नहीं होता।

जीव सूक्ष्म आत्मा है। मां की आत्मा भी सूक्ष्म ही है। अत: दोनों के सूत्र प्रवेश के साथ ही जुड़ जाते हैं। जीव स्वयं का परिचय देना शुरू कर देता है। पिछले शरीर का परिचय मां के स्वभाव एवं चर्या में परिवर्तन लाता है। मां की इच्छाओं का स्वरूप बदल जाता है।

इसी प्रकार आत्मा के क्षेत्र की जानकारी स्वप्न-सुषुप्ति में होने लगती है। स्वप्न भी मां को जीव के लक्ष्य, पिछले शरीर आदि की विस्तारपूर्वक जानकारी देता है। कुछ स्वप्नों के अर्थ भी लोक में प्रचलित हैं। इसी आधार पर मां बालक को भी उसकी भावी भूमिका-परिवार में-समझाने का प्रयास करती है।

मां की चर्या से भी जीव परिचय प्राप्त करता जाता है। यह सारी मौन-संवाद की मानसी सृष्टि का अंश है। जीव भी पूर्ण चैतन्य है, सीखता जाता है- अभिमन्यु की तरह। जीव अपने भविष्य की रूपरेखा तैयार करता जाता है।

केवल निर्णय करके जीव का मां तक पहुंचना तो द्वार में प्रवेश मात्र है। आगे की भूमिका मां पर निर्भर करती है। क्योंकि मां के आह्वान ने ही जीव को आकृष्ट भी किया था। मां उस जीव को मानव के गुणों-संस्कारों से परिष्कृत करती है, ताकि मनुष्य रूप में दिव्य शक्तियों से संयुक्त हो सके।

पुरुषार्थ के द्वारा मोक्षद्वार तक की यात्रा कर सके। जीव के मन में दया-करुणा जैसे भाव, धर्म का परिचय जैसे कार्य करती है। स्वयं भी सात्विक भाव एवं उपासना में रत रहती है। ध्वनि से जीव का- लोरियों, भजन आदि से सिंचन करती है। नए जीवन में जीव के लिए अध्यात्म की आधारभूमि तय कर देती है।

मां यदि स्वयं अनभिज्ञ है, तो न तो यह पता चलेगा कि जीव किस देह को छोड़कर आया है और न ही जीव को संस्कारित ही कर पाएगी। जीव स्वेच्छा से मां तक पहुंच गया, किन्तु मां, उसे मानव नहीं बना पाती। मानव देह में जीव ज्यों का त्यों जन्म ले लेता है।

जीव का अन्तिम लक्ष्य होता है पुन: मूल तत्त्व में लीन हो जाना- जहां से आया था। किन्तु जितना सरल उसका आना था, उतना सरल उसका लौटना नहीं होता। वह स्वयं तो लौट ही नहीं सकता, प्रसव पीड़ा के कारण सब-कुछ ज्ञान विस्मृति में चला गया। देवी भागवत में ‘मातृ रूपैण संस्थिता’ के बाद कहा है-
या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्ति रूपैण संस्थिता
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

माया की पकड़ यहीं समझ में आती है। कुछ याद नहीं रहता- न भूत, न भविष्य, न लक्ष्य। पैदा होते ही खो जाता है। दुनिया की भीड़ में। कोई कहता है लड़का है, लड़की है। कोई ब्राह्मण-क्षत्रिय कह देता है। इनकी सन्तान, इनका पोता/पोती। न जाने क्या-क्या कहने लगते हैं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, माया के आवरण भी बढ़ते जाते हैं। नाम रख देते हैं। संस्कारों की भरमार होने लगती है। स्कूल-मित्र-रिश्तेदार न जाने क्या-क्या?

ऐसे में जीव स्वयं का बोध खो बैठता है। शरीर को ही अपना पर्याय मान बैठता है। यदि मार्गदर्शन न मिले तो जीव बिना जीए ही 100 वर्ष पूरे कर जाता है। जीव के लिए शरीर पैदा करने के लिए हम कहते हैं-”मातृ देवो भव, पितृ देवो भव’।

प्रश्न उठता है कि यहां ”आचार्य देवो भव’ का संदर्भ क्या है? पिता के बीज से मेरे फल लगेंगे, माता उसी बीज से शरीर का निर्माण करती है। और गुरु? यह एक ऐसी संस्था है जिसे हम ढूंढ़ नहीं सकते। गुरु को लेकर हमारे ग्रन्थ भरे पड़े हैं, लेकिन क्या गुरु को प्राप्त किया जा सकता है? गुरु की जीवन में आवश्यकता ही क्या है?

माता-पिता के माध्यम से जीव शरीर धारण करता है, कर्म करता है। कर्म फलों का भोग करता है। कर्म का आधार मन की इच्छा होती है। इच्छा ज्ञान से उत्पन्न होती है। ज्ञान और अज्ञान (विद्या-अविद्या) में से एक चुनना ही फल की दिशा बनती है। अविद्या के फल जीव को अधोगति में तथा विद्याजनित कर्म उध्र्वगति में ले जाते हैं।

वैसे तो गति भी जीव के भाग्य का अंश है, किन्तु शास्त्र कहते हैं कि भाग्य को बदला जा सकता है। गुरु ही यह कार्य करने में सक्षम होता है। किन्तु सच्चाई यह है कि गुरु ही शिष्य को तलाशने की, तराशने की तथा शिष्य के प्राणों के संचरण की क्षमता रखता है।

इस कार्य को साधारण व्यक्ति नहीं कर सकता। गुरु ही जीव के पुन: अपने मूल तक जाने में सहायक हो पाता है। जिस प्रकार मनुष्य के शुक्र में सात पीढिय़ों के अंश रहते हैं, गुरु संस्था में भी ऊपर तीन गुरु- परम, परमेष्ठी, परात्पर होते हैं। परात्पर ही सृष्टि का आरंभक बिन्दु-अव्यय पुरुष का निर्माण करता है। इसीलिए गुरु को ‘साक्षात् परं ब्रह्म’ कहा जाता है।

गुरु परम्परा का सूत्र ब्रह्म तक जाता है। माता-पिता की गति ब्रह्म के विस्तार की होती है। गुरु प्रतिसृष्टि का मार्गदर्शक है। गुरु शिष्य के पात्र (पात्रता) को बड़ा करता है, भरता है। फिर बड़ा करता है, भरता है। शिष्य को अपने समकक्ष ले आता है। उसे अपना उत्तराधिकार सौंपकर ऋषि ऋण से मुक्त हो जाता है।

शिष्य को गुरु परम्परा की शृंखला से जोड़ देता है। ब्रह्म का बीज पिता के माध्यम से माता के शरीर (यात्रा मार्ग) से गुजरता हुआ सन्तान के (पुत्र) शरीर में पहुंचता है। सन्तानोत्पत्ति द्वारा पितर ऋण से मुक्त होने पर वानप्रस्थ में जाना होता है। यहां देव ऋण से मुक्ति का प्रयास करता है।

यदि जीव भाग्यवान है तो इसी काल में कोई गुरु उसको ढूंढ़ निकालता है। यहीं से जीवन की दिशा प्रतिसृष्टि के चिन्तन-मनन में लग जाती है। प्राणों के उत्थान एवं समर्पण के साथ शनै:-शनै: गुरु-शिष्य एकाकार हो जाते हैं। यह काल शिष्य के तपने का काल है, गुरुसेवा का काल है।
शरीर ही ब्रह्माण्ड

गुरु अपने सम्पूर्ण जीवन का आत्मिक अर्जन शिष्य को यूं ही नहीं सौंप सकता। उसे भी ऊपर के तीनों गुरुओं की स्वीकृति चाहिए। शिष्य को अपनी पहचान छोडऩी है, गुरु का चोला ही नहीं- स्वरूप ग्रहण कर लेना है। तब शिष्य के लिए परात्पर तक का सूत्र उपलब्ध है। इसीलिए कहा है-

यह तन विष की बेलड़ी, गुरु अमृत की खान।
शीश दिए जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।

गुरु ही जीव और ईश्वर के बीच का सेतु बनता है-”आचार्य देवो भव’!

क्रमश:

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