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कामना ही जननी है

‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ शृंखला में पढ़ें पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख – कामना ही जननी है

May 14, 2023 / 06:49 am

Gulab Kothari

शरीर ही ब्रह्माण्ड: कामना ही जननी है

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand : सृष्टि के दो प्रकार के स्तर हैं- एकल जनक तथा युगल जनक। जहां संख्या को असीमित रखना है, वहां अकेला जीव सृष्टि करता है। नर-मादा की आवश्यकता नहीं होती। नियंत्रित विस्तार के लिए दो का संयोग आवश्यक है। इसे युगल सृष्टि कहते हैं। इसमें दोनों की सहमति होना आवश्यक है। सृष्टि में स्वच्छन्द कुछ भी नहीं है। जहां एकल सृष्टि है, वहां भी तत्त्व तो दो ही कार्य करेंगे-अग्नि और सोम। कहीं-कहीं दोनों ही अदृश्य रहते हैं। जैसे बरसात में बल्ब के चारों ओर पतंगे पैदा होते हैं। वहां ताप, वायु और आद्रता है। ये पतंगे अग्नि का ही विस्तार होते हैं। बल्ब की गर्मी और आद्रता में चेतना तो रहती है। अग्नि में जो सोम आहूत होता है, वही चैतन्य है। अग्नि स्थिर है, सोम ही खिंचकर आता है। वेद मंत्र कह रहा है-
अग्निर्जागार तमृच: कामयन्ते, अग्निर्जागार तमु सामानि यन्ति।
अग्निर्जागार तमयं सोम आह, तवाहमस्मि सख्ये न्योका:।। ऋ. 5.44.15


जागरूक अग्नि का जीवन सोम पर निर्भर रहता है। अत: सोम को सखा कहा गया है। वही चलकर अग्नि के पास जाता है। वही गौण रहता है, यज्ञ का पालक कहलाता है, विष्णु है। इसका अर्थ यह हुआ कि अग्नि को भूख लगी। सोम नहीं मिला तो बुझ जाएगा। इसको शान्त करने के लिए हम भोजन करते हैं। तब अग्नि प्रज्वलित होकर सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त हो जाता है।

अन्न रूप सोम अग्नि के विशकलन (तोडऩा) धर्म से, पहले रस रूप बना, शेष मल भाग को पृथक कर दिया। आगे रस भाग से मन तक की सभी धातुओं का निर्माण करता गया। यह तो सत्य सोम की प्रक्रिया है। प्रत्येक धातु के निर्माण में पूर्व धातु माता-पिता (अग्नि-सोम) की भूमिका निभाते हैं।

ब्रह्माण्ड के नियम समान हैं। ऋत भाव में भी ऋत अग्नि दक्षिण से उत्तर को तथा ऋत सोम उत्तर से दक्षिण को बहता है। यहां ऋत सोम की आहुति से ऋतुओं का निर्माण होता है। कुल छ: ऋतुएं बनती हैं। इसी को सवंत्सर कहते हैं। निर्माण का श्रेय सोम को जाता है। जो हर बार अग्नि में आहूत होता है। निर्माण का स्वरूप भी सोम पर ही आधारित होता है।

प्रश्न यह है कि क्या सातों लोकों में होने वाली सृष्टि के अग्नि-सोम भिन्न-भिन्न हैं अथवा एक ही हैं। सोम सृष्टि का शुक्र (रेत) है। यदि भिन्न-भिन्न हुआ तो सबका पिता एक नहीं हो सकता। प्रत्येक प्राणी ‘अहं ब्रह्मास्मि’ नहीं कह सकेगा। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के सोम का आधार तो परमेष्ठी लोक ही है। हमारे चारों ओर जो आकाश है, वही तो परमेष्ठी लोक है।


इसी में सूर्य सहित सभी पिण्ड भ्रमण करते हैं। हमारे शरीर से जो अग्नि प्रतिक्षण निकलता रहता है, उसमें भी यही सोम आहूत होता रहता है। चन्द्रमा, पृथ्वी, प्राणियों, औषधि-वनस्पतियों सभी पर यही सोम बरसता है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में निर्माण का कारक यही सोम है।

परमेष्ठी का सोम ही भृगु-अंगिरा मय अप्तत्व है। यही रेत (शुक्र) है। यजुरग्नि योनि है और मातरिश्वा वायु रेतोधा है। रेतोधा से ही अप्तत्व की आहुति यजुरग्नि में होती है। योनि-रेत-रेतोधा तीनों मिलकर यज्ञात्मा अथवा यज्ञपुरुष कहलाते हैं।

परमेष्ठी सोम ही स्वयंभू की अग्नि में आहूत होता है। वही सूर्याग्नि में आहूत होकर पर्जन्य बनता है। बादल से वही जल रूप में बरसता है। वही अन्न रूप में (अन्न गर्भ में) चलकर जठराग्नि में जाता है। खाया हुआ अन्न ब्रह्म सप्त धातुओं को निर्मित करता हुआ शुक्र बनता है। इस शुक्र का आधार वही परमेष्ठी सोम है। दोनों सूत्रात्मक रूप से जुड़े हैं।

‘यावद्वित्तं तावद्वात्मा’-जहां तक हमारा वित्त (सम्पदा) रहता है, वहां तक हमारे आत्मा की व्याप्ति रहती है। अर्थात् जिस सोम की आहुति से सूर्यादि का निर्माण होता है, उसी सोम की आहुति से हम प्राणियों की, जड़-चेतन सृष्टि की उत्पत्ति होती है। अत: हम सबका पिता एक ही है। सारी भिन्नता हमारे कर्मों का फल है। इसका अर्थ है कि हमारा स्वरूप भी देवात्मा का ही है। इस स्वरूप को अपने कर्म से सुरक्षित रखना हमारा धर्म हो जाता है।


देवता आठ प्रकार के होते हैं- आग्नेय, सौम्य, कर्म देवता, आत्म देवता, अभिमानी देवता, मनुष्य (चेतन) देवता, मंत्र देवता और चान्द्र देवता। इन आठों का आधार वाक् तत्त्व है। इसी प्रकार 27 गंधर्व, 5 पशु (पुरुष, अश्व, गौ, अवि, अज), चारों प्रकार के प्राणियों (अण्डज, पिण्डज, स्वेदज, उद्भिज) का आधार भी वाक् है।

तीनों त्रिलोकी (रोदसी-क्रन्दसी-संयति) तथा सातों लोक वाक् सूत्र से युक्त हैं-‘अथो वागेवेदं सर्वम्।’
वाचं देवा उपजीवन्ति विश्वे वाचं गंधर्वा: पश्वो मनुष्या:।
नाचीमा विश्वा भुवनान्यर्पिता सा नो हवं जुषतामिंद्रपत्नी।। (तै. ब्रा. 2.7.4)

वाग् रूप एकाक्षर ब्रह्म ऋत तत्त्व (प्राण) से सर्वप्रथम उत्पन्न होने के कारण ‘ऋतस्य प्रथमजाÓ कहलाया। ऋत की प्रथमजा वाग्देवी ही अनन्त वेदों की जननी है। अमृत (सोम) की उद्भव भूमि है। यही वाग् में अमृत वर्षा करती है। सोम का वर्षण ही यज्ञ की आहुति होती है। परमेष्ठी के आग्नेय देवताओं को पवित्र कहते हैं, जो वहां के सोम (ब्रह्मणस्पति) से तृप्त होते हैं।

अत: जगत का स्रष्टा होने से ब्रह्मणस्पति का जो यजन करता है वह अनन्त सम्पत्ति (अर्थ) का अधिकारी बन जाता है। इसलिए परलोक-फल को लक्ष्य बनाकर ही कर्म किया जाता है। यही सोम की आहुति परमेष्ठी सोम का अंश है। इसी से देवता-पितरों (प्राणों) का यजन किया जाता है।


श्रद्धा ही मूल में सोम तत्त्व है। श्रद्धा से ही यज्ञ में सौर- अग्नि को आकर्षित करते है। श्रद्धा से ही द्युलोक के प्राण देवताओं के लिए आहुति दी जाती है। श्रद्धा ही ऐश्वर्य का शिखर है। वही दान देने वाले, दान देने की इच्छा रखने वाले को फल देने वाली है। श्रद्धा द्वारा ही देवप्राण की अध्यात्म में प्रतिष्ठा होती है।

सत्य रूप से लोकसृष्टि की प्रवर्तिका भी श्रद्धा ही है। पंचाग्नि में प्रजासृष्टि की मूल प्रभवा भी श्रद्धा ही है। अत: सम्पूर्ण जीव-जगत श्रद्धामय ही है, एकात्मक भाव में ही है। यही श्रद्धा मानस कामनाओं की जननी है। श्रद्धातत्त्व के अभाव में मानव सत्यधर्म से विमुख हो जाता है।
या देवी सर्व भूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।। (दुर्गा सप्तशती)

सूर्य किरणों द्वारा सोम तत्त्व का उत्पादन होता है। यही श्रद्धा-सोममय तत्त्व कहलाता है- श्रद्धा वै आप:। श्रद्धा सूर्य से चलकर चन्द्रमा में प्रतिष्ठित होती है। वहीं से मृत्युलोक तक पहुंचती है। मनुष्य को अपने आदर्श से बांध देती है- विश्वास रूप में। ईश्वर स्वरूपमयी है। जब श्रद्धा तत्त्व जाग्रत होता है, तो सर्व कामनाएं फलित हो जाती है। कामना ही क्रिया का आधार है।

मन ब्रह्म है, माया कामना है। यही कामना मातृभाव है, श्रद्धा भाव है। एक ही ब्रह्म है, एक ही माया (कामना) है। यही अग्नि-सोम हैं। प्रत्येक प्राणी ब्रह्म है तथा मन में एक कामना लेकर पैदा होता है। यह कामना ही कर्म और कर्म-फल का आधार है।

क्रमश:


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