अर्थात्-द्युलोक मेरा उत्पादक है, पिता है। द्युलोक वर्षण करता है। वर्षा से अन्न पैदा होता है। पर्जन्य (बादल) से विद्युत का योग होता है, तब वर्षण होता है। जल रूप सोम पृथ्वी की अग्नि में आहूत होता है। सृष्टि के सभी प्राणी इसी क्रम से पृथ्वी पर आते हैं।
कुछ अन्न रूप ग्रहण करते हैं, कुछ छोटे प्राणी वर्ग रूप में उत्पन्न होते हैं। अन्न रूप सोम जठराग्नि में आहूत होता है। अन्न के स्वरूप के अनुरूप ही प्राणी के स्वरूप का निर्माण होता है। अन्त में पुन: सोम रूप बीज तैयार होता है। मानव शरीर में इसे रेत या वीर्य कहते हैं।
बीज सदा सोम रूप होता है, अग्नि में आहूत होता है। रेत पुन: रज-शोणित या शुक्र में आहूत होकर स्थूल शरीर धारण करता है। पृथ्वी और द्युलोक के मध्य अन्तरिक्ष योनि है इसमें पर्जन्य रसों को दुहने वाली (आकर्षित करने वाली) पृथ्वी गर्भ को (जल रूप) में धारण करती है।
कुछ अन्न रूप ग्रहण करते हैं, कुछ छोटे प्राणी वर्ग रूप में उत्पन्न होते हैं। अन्न रूप सोम जठराग्नि में आहूत होता है। अन्न के स्वरूप के अनुरूप ही प्राणी के स्वरूप का निर्माण होता है। अन्त में पुन: सोम रूप बीज तैयार होता है। मानव शरीर में इसे रेत या वीर्य कहते हैं।
बीज सदा सोम रूप होता है, अग्नि में आहूत होता है। रेत पुन: रज-शोणित या शुक्र में आहूत होकर स्थूल शरीर धारण करता है। पृथ्वी और द्युलोक के मध्य अन्तरिक्ष योनि है इसमें पर्जन्य रसों को दुहने वाली (आकर्षित करने वाली) पृथ्वी गर्भ को (जल रूप) में धारण करती है।
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सूर्य और विद्युत के योग से अग्नि उत्पन्न होता है। जब विद्युत अग्नि-लकड़ी, जलादि को प्राप्त होती है, तब, जब तक मनुष्यों/पार्थिव पदार्थों से अछूती रहती है, उस समय तक अपने विद्युत स्वभाव वाली ही रहती है। विद्युत का प्रवाह जल में रहता है, जल से ही प्रज्वलित रहती है। ज्यों ही मनुष्यों/पार्थिव पदार्थों ने छुआ-सम्पर्क में आई कि वह तुरन्त आग में बदल जाती है। जबकि पार्थिव अग्नि जल से शान्त हो जाती है। पार्थिव वस्तु से जल उठती है। विद्युत से ही पार्थिव अग्नि उत्पन्न होती है।एक शब्द आता है-अप्सरा। इसका अर्थ विद्युत भी है और स्त्री भी। दोनों अपने-अपने गुणों से व्यापक हैं। विद्युत दो बड़े-बड़े पदार्थों (अग्नि-जल) से व्यापक है, स्त्री ज्ञान और कर्म से व्याप्त है। विद्युत के वश में संसार की स्थिति, स्त्री के वश में घर की स्थिति। अप्सरा-जल में चलती है (अप् सारिणी), स्त्री कर्मों में चलती है। अप् कर्म का वाचक भी है। स्त्री/विद्युत दोनों रूपवती हैं।
रूप देखने/व्याप्ति के लिए होता है, स्पर्श के लिए नहीं- अभक्ष। अप्-सरा का अर्थ रूपवती है। (ऋ. 7.33.11)। ”हे जल! तू (वशिष्ठ) मित्रावरुण वायु से उत्पन्न हुआ। अन्नदाता जल! तू विद्युत के मन में, संकल्प सामथ्र्य से उत्पन्न हुआ। तुझ जल को उत्तम अन्न पैदा करने के लिए सूर्य ने (किरण रूप में) अन्तरिक्ष में धारण कर रखा है। (ऋ. 2.33.11)।” यही हमारे विवाह का सिद्धान्त भी है।
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कितना स्पष्ट स्वरूप है प्रकृति में स्थूल शरीर के निर्माण का। शरीर एक तरह से हमारा आश्रय है। प्राण के माध्यम से शरीर-स्थूल और कारण जुड़े रहकर कार्य करते हैं। विवाह के संस्कार स्थूल शरीर में कार्यरत होकर भी कारण शरीर में प्रतिष्ठित होते हैं। प्राण ही देव कहलाते हैं।कर्म के पांच हेतुओं में एक दैव (संस्कार) भी है (गीता 18.14)। संस्कार भी प्राणरूप ही होते हैं। मंत्र भी शरीर ही हैं, किन्तु उनके स्पन्दन सूक्ष्म होने से प्राणों को प्रभावित करते हैं। कन्या के प्राणों का चलन, उत्थापन*, प्रतिस्थापन*, दिशा परिवर्तन आदि कई क्रियाएं मंत्रों के द्वारा की जाती हैं।
इसी क्रम में कन्या का भाई शमी के पत्तों से मिले लाजों (चावल की खीलें) को कन्या की अंजलि में डालता है। कन्या प्रथम आहुति अर्यमा (आदित्य) को समर्पित करती है। वर प्राप्ति के लिए जिन सूर्य का पूजन किया, वह अर्यमा देव हमें इस पितृ कुल से छुड़ावे, पति से नहीं। ”स नो अर्यमा देव: प्रेतो मुंचतु मा पते: स्वाहाÓÓ। अगली आहुति अग्नि को समर्पित करती है। हमारे पारस्परिक अनुराग का अग्नि देव तथा स्वाहा रूप अग्नि-पत्नी भी, अनुमोदन करें। ”मम तुभ्यं च संवननं तदग्निरनुमन्यतमियर्ट स्वाहा (ऋ. 10.85.36)। आगे वर कहता है कि
तुभ्यमग्रे पर्यवहन्सूर्यांवहतु ना सह।
पुन: पतिभ्यो जायां दग्नि अजया सहेती।।
-हे अग्ने! तुम्हारे लिए ही सोमादि देवों ने पहले ही इस कन्या को धारण किया था। कान्तिरूपा इस कन्या को पुरुषार्थ चतुष्टय हेतु आप सन्तानादि के साथ स्वीकार करें। और फिर विवाह करके मुझ पति के लिए पत्नी रूप में संतति के साथ दो।
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ऋग्वेद के सोम सूक्त 10-85 में कुछ अन्य मंत्र भी विवाह के तथ्यों को इंगित करते हैं। इनको ”यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे” की दृष्टि से देखना चाहिए। यज्ञ द्वारा देवताओं का पोषण होता है। सोम से ही धरती महान बनी है। (वर्षा जल)। (ऋ. 10.85.2) सूर्या के विदा होते समय दिव्यता उसकी चादर तथा आंखें अंजन बनी थीं। द्यावा-पृथ्वी उसके खजाने थे। (ऋ. 10.85.7)सूर्या ने जब पति की कामना की और सविता ने मन से अपनी कन्या सोम को दी थी, उस समय सोम वधू की कामना करने वाले वर थे। अश्विनी कुमार सूर्या के वर बने। (ऋ. 10.85.9) हे वधू! सुन्दर मुख वाले सूर्य देव ने तुम्हें जिस बंधन में बांधा था, मैं तुम्हें वरुण के उस पाश से छुड़ाता हूं। मैं तुम्हें पति के साथ सत्य के आधार पर एवं सत्कर्म के लोक (रूप स्थान) में निर्विघ्न रूप में स्थापित करता हूं। (ऋ. 10.85.24) मैं कन्या को पिता के कुल से छुड़ाता हूं, पति के कुल से नहीं।
मैं पति के घर से इसे भलीभांति बांधता हूं। हे अभिलाषापूरक इन्द्र! यह सौभाग्य एवं शोभन पुत्र वाली हो। (ऋ. 10.85.25) हे कन्या! पूषा तुम्हारा हाथ पकड़कर यहां से ले जावे। अश्विनीकुमार तुम्हें रथ द्वारा ले जावें। तुम गृहपत्नी बनने के लिए पति के घर जाओ एवं पति के वश में रहकर घर की व्यवस्था करो। (ऋ. 10.85.26)
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वधू को प्राप्त दहेज को वहन करने के लिए जो व्याधियां हमारे विरोधियों के पास से आती हैं, यज्ञ भाग को ग्रहण करने वाले देव उन्हें वहीं लौटा दें, जहां से वे आई हैं। (ऋ. 10.85.31) मैला कपड़ा उतार दो, ब्राह्मणों को धन दान करो। इस प्रकार कृत्या चली जाती है। पत्नी पति में प्रवेश कर जाती है। (ऋ. 10.85.29) यह कपड़ा दाहजनक, कठोर, ग्रहण न करने योग्य, मैला और विषयुक्त है।सूर्या को जानने वाला ब्राह्मण ही इस वधू-वस्त्र को पाने का अधिकारी है। (ऋ. 10.85.34) सूर्या का रूप देखो। इसके वस्त्र के लपेटने वाले भाग का रंग अलग है और सिर पर ओढऩे वाला भाग अलग रंग का है। यह तीन जगह से फटा हुआ है। ब्रह्मा ही इसको शुद्ध कर सकते हैं। (ऋ. 10.85.35) हे पूषा! मनुष्य जिस नारी के गर्भ में बीज बोते हैं उसे तुम अतिशय कल्याणकारी बनाकर भेजो। (ऋ. 10.85.37) अग्नि ने आयु और तेज के साथ पत्नी पुन: पति को प्रदान की। इसका पति सौ बरस जिए। (ऋ. 10.85.39)
क्या उपरोक्त उद्धरणों से स्पष्ट नहीं है कि विवाह स्वर्ग में ही तय हो जाते हैं। अंग्रेजी कहावत भी है – marriages are made in heaven. यह तब तक ही संभव है जब तक हम प्रकृति से समन्वय बनाकर जीते हैं। अपने दाम्पत्य की सुरक्षा और पवित्रता को बनाए रखने के लिए नित्य ईश-वन्दन या कोई अनुष्ठान (अग्निहोत्र-मन्दिर-स्वाध्याय आदि) करते रहते हैं।
देवता हमें नित्य कुछ देते हैं। सूर्य, वायु, जलादि सभी देव हमारा निर्माण और पोषण करते हैं। हमारा धर्म भी उनका पोषण करते रहना है। ”यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करो, वे तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।” (गीता 3.11)
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*प्रतिस्थापन-कन्या के प्राणों को पिता के प्राणों से हटाकर पति के प्राणों में मिलाना।
*उत्थापन-(उठना)
क्रमश:
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