हर व्यक्ति के धर्म का क्षेत्र उसके वीर्य के अनुसार ही हो सकता है। मैं किसी अन्य व्यक्ति जैसा नहीं बन सकता। मेरा स्वभाव (प्रकृति) ही मेरा स्वरूप निर्मापक है। कृष्ण कह रहे हैं-अर्जुन! क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से अधिक श्रेष्ठ कर्तव्य नहीं है। (2/31)। साथ ही चेताया भी है कि यदि तू धर्मयुद्ध नहीं करेगा, तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप का भागी होगा। (2/33) । माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से बढ़कर है। (2/34)।
यहां क्षत्रियता शरीर का नहीं, आत्मा का धर्म है। आत्मा मरता तो नहीं है, किन्तु उसका क्षात्रभाव निस्तेज हो जाता है। अविद्या के आवरण घेर लेते हैं। स्वभाव से रजोगुणी क्षत्रिय तामसी हो जाएगा, अधोगामी हो जाएगा। नीचे गिरना ही मृत्यु है। क्षत्रिय के स्वाभाविक गुण क्या हैं? शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता, धर्मयुद्ध करना, दान देना और श्रेष्ठता का भाव क्षत्रिय की पहचान है। (18/43)। यदि क्षात्र धर्म से च्युत हुआ तो वीर्यहीनता को प्राप्त होगा।
उसका राजसी स्वभाव भी तामसी हो जाएगा, आसुरी भी हो सकता है। उसकी श्रद्धा का स्वरूप बदल जाएगा. अर्जुन क्षत्रिय है, राजसी प्रकृति का है, शंकालु भी है तथा स्वयं को बुद्धिमान समझकर तर्क भी कर रहा है। भक्त के रूप में समर्पित नहीं है। कृष्ण कहते हैं-‘हे पार्थ! जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है।’ 18/31 ।
यहां क्षत्रियता शरीर का नहीं, आत्मा का धर्म है। आत्मा मरता तो नहीं है, किन्तु उसका क्षात्रभाव निस्तेज हो जाता है। अविद्या के आवरण घेर लेते हैं। स्वभाव से रजोगुणी क्षत्रिय तामसी हो जाएगा, अधोगामी हो जाएगा। नीचे गिरना ही मृत्यु है। क्षत्रिय के स्वाभाविक गुण क्या हैं? शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता, धर्मयुद्ध करना, दान देना और श्रेष्ठता का भाव क्षत्रिय की पहचान है। (18/43)। यदि क्षात्र धर्म से च्युत हुआ तो वीर्यहीनता को प्राप्त होगा।
उसका राजसी स्वभाव भी तामसी हो जाएगा, आसुरी भी हो सकता है। उसकी श्रद्धा का स्वरूप बदल जाएगा. अर्जुन क्षत्रिय है, राजसी प्रकृति का है, शंकालु भी है तथा स्वयं को बुद्धिमान समझकर तर्क भी कर रहा है। भक्त के रूप में समर्पित नहीं है। कृष्ण कहते हैं-‘हे पार्थ! जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है।’ 18/31 ।
आगे इशारा भी करते हैं-‘अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है। 18/47 । धर्म को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। भीतर की अनुभूति को शब्दों में बांधना ही मिथ्या है। असंभव है। सम्पूर्ण सृष्टि का धर्म एक ही है।
दो नहीं हो सकते। हम सब अश्वत्थ वृक्ष के पत्ते हैं। सबका अन्न एक है। सबका मन-श्वोवसीयस मन एक है। कामना एक है-एकोऽहं बहुस्याम् । शेष जीवन का लक्ष्य भी एक ही है- धर्म के मार्ग से पुन: अंशी में समा जाएं। शरीर का धर्म प्रकृति यानी स्वभाव के आधार पर चलता है। प्रकृति के अनुसार अन्न ग्रहण करेगा, वैसा ही मन होगा, वैसी ही इच्छाएं उठेंगी। कर्म-धर्म का रूप भी वैसा ही होगा।
हम क्षत्रिय के उदाहरण को ही देख लें। यह राजसी अन्न का भोक्ता होगा। इस अन्न का स्वरूप ‘कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दु:ख, चिन्ता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले, ये आहार राजस पुरुष को प्रिय हैं। ‘जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन-
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिन:।
आहारा राजसस्येष्टा दु:खशोकामयप्रदा:।। गीता 17.9
दो नहीं हो सकते। हम सब अश्वत्थ वृक्ष के पत्ते हैं। सबका अन्न एक है। सबका मन-श्वोवसीयस मन एक है। कामना एक है-एकोऽहं बहुस्याम् । शेष जीवन का लक्ष्य भी एक ही है- धर्म के मार्ग से पुन: अंशी में समा जाएं। शरीर का धर्म प्रकृति यानी स्वभाव के आधार पर चलता है। प्रकृति के अनुसार अन्न ग्रहण करेगा, वैसा ही मन होगा, वैसी ही इच्छाएं उठेंगी। कर्म-धर्म का रूप भी वैसा ही होगा।
हम क्षत्रिय के उदाहरण को ही देख लें। यह राजसी अन्न का भोक्ता होगा। इस अन्न का स्वरूप ‘कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दु:ख, चिन्ता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले, ये आहार राजस पुरुष को प्रिय हैं। ‘जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन-
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिन:।
आहारा राजसस्येष्टा दु:खशोकामयप्रदा:।। गीता 17.9
आत्मा के धर्म का आधार अक्षर पुरुष या सूक्ष्म शरीर है। वहां प्रकृति नहीं है, शक्ति है। उसमें कर्तृत्व नहीं है। कारण शरीर में माया है, कर्तृत्व वहां भी नहीं है। इच्छा मात्र है जो स्थूल शरीर में क्रिया का रूप लेती है। प्राणिक क्रियाएं, देवरूप में किए अनुष्ठान, यज्ञादि से देवताओं से आदान-प्रदान ही आत्मा के धर्म को पुष्ट करते हैं। संचित कर्मों में यदि धर्म का आधार है तब शरीर के धर्म को विशेष प्रेरणा प्राप्त होती है।
अपने धर्म को समझते हुए अपने मन को, शरीर को बुद्धि को कैसे काम में लें, मेरा धर्म मेरे कर्म से ही क्षतिग्रस्त नहीं हो। यह समझ आ गई तो कोई कर्म मुझे अपने धर्म से च्युत नहीं कर सकता। आप शरीर नहीं है। शरीर के लिए मत जिओ। आत्मा के साथ भीतर जिओ।
बुद्धि कहेगी-कर्म कर रहा हूं तो फल भी मिलना चाहिए। मन की भूमिका भी है, कई सपने भी हैं, उन सबको ध्यान में रखते हुए कर्म करना है। मन-प्राण-वाक् को छोडऩा है, समेटना है प्राण से, तब मन आनन्द की ओर जाएगा। जैसे ही प्राणों को इन्द्रियों से अलग करेंगे तब आप प्रज्ञावान हो जाएंगे। प्रकृति में अपना रूप दिखने लगेगा।
बुद्धि कहेगी-कर्म कर रहा हूं तो फल भी मिलना चाहिए। मन की भूमिका भी है, कई सपने भी हैं, उन सबको ध्यान में रखते हुए कर्म करना है। मन-प्राण-वाक् को छोडऩा है, समेटना है प्राण से, तब मन आनन्द की ओर जाएगा। जैसे ही प्राणों को इन्द्रियों से अलग करेंगे तब आप प्रज्ञावान हो जाएंगे। प्रकृति में अपना रूप दिखने लगेगा।
प्रज्ञा में उतरूंगा तब मेरे आत्मा का धर्म दिखेगा। विरुद्ध धर्म के साथ सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती, वह हर कर्म में बाधक ही बनेगा। रत्न भी आपके वर्ण का नहीं होगा तो आपको अनुकूल फल नहीं मिलेगा, नुकसान करेगा- विरुद्ध धर्म के कारण।
कृष्ण गीता के बारहवें अध्याय में कहते हैं कि मुझमें मन-बुद्धि को लगा, तब तू मुझ में ही निवास करेगा (12-8) यह प्रकृति का क्रम है। इससे लक्ष्य नहीं मिलता। जब चंचलतावश मन को मुझ में नहीं लगा सकता तो अभ्यास द्वारा मेरी प्राप्ति की इच्छा कर (9)। इसमें भी समर्थ नहीं है तो मेरे निमित्त ही कर्म करके मुझे प्राप्त हो (10)। यहां भी असमर्थ है तो मन-बुद्धि पर रोक लगाकर सब कर्मों के फलों का त्याग कर दे (12)।
इसी से परम शान्ति मिलती है। यही कर्म की धर्मरूप यात्रा का प्रमाण है। शरीर से शुरू होकर कर्म ही लक्ष्य तक पहुंचा देता है। फल त्याग कब होता है-जब कामना शेष नहीं रहती। ब्रह्म को निष्काम कहा है। अभ्यास से कर्म ही ब्रह्म से एकाकार हो जाता है। ब्रह्म का व्यावहारिक रूप ही कर्म है।
इसी की परीक्षा के लिए तो अन्नप्राशन संस्कार होता था। शिशु का वर्णानुसार ही शिक्षा का क्रम तय होता था, अन्न का स्वरूप तय करते थे। आज चूंकि वर्ण (जो आत्मा की श्रेणी थी) जाति बन गई। अत: ब्राह्मण की सन्तान ब्राह्मण और क्षत्रिय की सन्तान सदा के लिए क्षत्रिय हो गई। वर्ण व्यवस्था वंश परम्परा में बदल गई। एक वंश के सभी लोग एक वर्ण के बनकर रह गए।
प्रकृति में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी। प्रत्येक जीवात्मा के वर्ण का स्वतंत्र आकलन होता था। धृतराष्ट्र-पाण्डु-विदुर एक ही पिता की सन्तानें थीं। क्या उनको एक ही वर्ण का स्वीकार कर पाएंगे? वर्ण माता के अनुसार अधिक प्रभावी नहीं होता। पालक का स्वरूप तो बीज ही से तय होता है। शास्त्र इन तथ्यों का विस्तार से विवेचन करते हैं।
क्रमश:
कृष्ण गीता के बारहवें अध्याय में कहते हैं कि मुझमें मन-बुद्धि को लगा, तब तू मुझ में ही निवास करेगा (12-8) यह प्रकृति का क्रम है। इससे लक्ष्य नहीं मिलता। जब चंचलतावश मन को मुझ में नहीं लगा सकता तो अभ्यास द्वारा मेरी प्राप्ति की इच्छा कर (9)। इसमें भी समर्थ नहीं है तो मेरे निमित्त ही कर्म करके मुझे प्राप्त हो (10)। यहां भी असमर्थ है तो मन-बुद्धि पर रोक लगाकर सब कर्मों के फलों का त्याग कर दे (12)।
इसी से परम शान्ति मिलती है। यही कर्म की धर्मरूप यात्रा का प्रमाण है। शरीर से शुरू होकर कर्म ही लक्ष्य तक पहुंचा देता है। फल त्याग कब होता है-जब कामना शेष नहीं रहती। ब्रह्म को निष्काम कहा है। अभ्यास से कर्म ही ब्रह्म से एकाकार हो जाता है। ब्रह्म का व्यावहारिक रूप ही कर्म है।
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शरीर ही ब्रह्माण्ड: कर्म ही मेरा धर्म
समाज व्यवस्था जाति-व्यवस्था है, आत्म-व्यवस्था वर्ण व्यवस्था है। आज वर्ण और जाति के बीच का भेद मिट सा गया है। इसीलिए वर्ण व्यवस्था की वैज्ञानिकता पर कई प्रश्न चिन्ह लग गए। जाति का आधार कर्म है। किसी भी जाति के परिवार में किसी भी वर्ण का जीवात्मा आ सकता है।इसी की परीक्षा के लिए तो अन्नप्राशन संस्कार होता था। शिशु का वर्णानुसार ही शिक्षा का क्रम तय होता था, अन्न का स्वरूप तय करते थे। आज चूंकि वर्ण (जो आत्मा की श्रेणी थी) जाति बन गई। अत: ब्राह्मण की सन्तान ब्राह्मण और क्षत्रिय की सन्तान सदा के लिए क्षत्रिय हो गई। वर्ण व्यवस्था वंश परम्परा में बदल गई। एक वंश के सभी लोग एक वर्ण के बनकर रह गए।
प्रकृति में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी। प्रत्येक जीवात्मा के वर्ण का स्वतंत्र आकलन होता था। धृतराष्ट्र-पाण्डु-विदुर एक ही पिता की सन्तानें थीं। क्या उनको एक ही वर्ण का स्वीकार कर पाएंगे? वर्ण माता के अनुसार अधिक प्रभावी नहीं होता। पालक का स्वरूप तो बीज ही से तय होता है। शास्त्र इन तथ्यों का विस्तार से विवेचन करते हैं।
क्रमश:
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