विष्णु ही पृथ्वी रूप में रूपान्तरित होता है। यह विष्णु अति सूक्ष्म अग्नि प्राण का नाम है। सोम प्राण रूप से (अधिष्ठाता) अग्नि में आहूत होकर यज्ञ का कर्ता बनता है। अत: विष्णु ही यज्ञ है। विष्णु ही विश्व है। अग्नि ही सोम बनता है, सोम ही अग्नि बनता है। विष्णु पाद की एक संज्ञा शूद्र है। चार युगों में कलियुग शूद्र है।
अत: पृथ्वी की संज्ञा भी शूद्र है। पृथ्वी के देवता पूषा की संज्ञा भी शूद्र है। शूद्र कोई घटिया स्तर नहीं, प्रकृति की ईश्वर द्वारा रचित एक व्यवस्था है। सभी कलाएं, मनोभावों की अभिव्यक्तियां, मन की द्रवणशीलता इनका विशेष गुण होता है। इनका मन अधिक चंचल होता है।
सृष्टि के हर भाव में चारों वर्ण रहते हैं। स्वयं पृथ्वी शूद्र है। इसके अविद्यारूपी चार वर्ण हैं। किन्तु पृथ्वी के सभी प्राणी शूद्र हों, यह आवश्यक नहीं। वर्ण पत्नी में नहीं, पति (बीज) में रहते हैं। अहंकृति और प्रकृति क्रमश: सूर्य एवं चन्द्रमा से आते हैं। आकृति पृथ्वी से उत्पन्न होती है। अत: पृथ्वी के विभिन्न भूभागों में आकृति भेद रहता है।
पृथ्वी से आकृति ही नहीं, सम्पूर्ण जीवात्मा प्राप्त होता है। चन्द्रमा हमारा पितृलोक है। मृत्यु के उपरान्त आत्मा वहीं पहुंचता है। भोगकाल पूर्ण करके बादलों के माध्यम से जीव पृथ्वी पर बरसता है। यहीं पहली बार जीव स्थूल रूप धारण करता है- औषधि-वनस्पति के रूप में। उसी का प्राणी मात्र भक्षण करते हैं और प्राणियों के स्थूल शरीर बनते हैं।
हमारा बीज पृथ्वी के माध्यम से ही हमारे शरीरों में प्रवेश करता है। माता-पिता निमित्त मात्र हैं। जिस प्रकार जल और पृथ्वी भी निमित्त मात्र हैं। अत: बीज में वर्ण भी माता-पिता से नहीं, बल्कि सूर्य-चन्द्र-पृथ्वी से प्राप्त होता है। यही अहंकृति-प्रकृति-आकृति है। इनको सत्व-रज-तम भी कहते हैं। हम सबका पिता सूर्य ही है। देहधारी माता-पिता नहीं हैं।
तब हम चिन्तन करें कि कौन पिता और कौन पुत्र! पिता ही माता के शरीर में जाकर, पुत्र रूप में प्रकट हो रहा है। एक ही बीज से पिता और पुत्र दोनों का निर्माण हो रहा है। यही ब्रह्म का विवर्त है। हम सब सूक्ष्म स्तर पर एक ही सूत्र से बंधे हुए हैं। इस तंत्र को तोडऩा दु:साहस का कार्य होता है। आजकल बहुत होने लगा है। हमने तो विज्ञान के नाम पर प्रकृति को पूरी तरह जीवन से निकालना शुरू कर दिया है।
सन्तान का माध्यम पति-पत्नी का मनोरंजन बन गया है। मर्जी की नई स्वच्छन्दता और भयंकर रूप दिखाने को उतावली नजर आ रही है। समय पर शादी नहीं करेंगे। चाहे बाद में आई.वी.एफ. चिकित्सा करवानी पड़े। गर्भकाल में कोई संवाद नहीं है माताओं का जीवात्मा से। जीव जहां से आता है वैसा ही मानव शरीर धरकर बाहर आ जाता है।
यही कारण है कि मानव देह में पशु और दानव बढ़ रहे हैं। सबसे बड़ा दु:साहस है कर्म करने की इच्छा तथा फल प्राप्ति पर निषेधाज्ञा। यह कलियुग के प्रभाव का बड़ा ‘टर्निंग पॉइंटÓ-निर्णायक पहलू है। हम नित्य भोग चाहते हैं, किन्तु सन्तान नहीं चाहते। क्या कोई कर्म (सकाम) बिना फल के पूर्ण हो सकता है? प्रकृति में ऐसा प्रावधान नहीं है।
जैसे बहुत देर से विवाह करने पर स्त्री का प्रजनन तंत्र ढीला पड़ जाता है, और उसे पुन: जाग्रत करना पड़ता है; वैसे सन्ताननिरोध का प्रत्येक उपाय भीतर की क्षमता को ही नष्ट करने लगता है। उपाय भी स्त्री शरीर में, नरक की उत्पत्ति भी उसी शरीर में। प्रकृति से जूझने में तो हारे ही हैं। न शिक्षा काम आती है, न ही विज्ञान। गर्भाशय और स्तन कैंसर, छोटे परिणाम हैं।
पुत्री के लिए अलग से शिक्षा के द्वार बन्द हो गए। जो पुत्र के लिए, वही सुविधाएं पुत्री के लिए। यानी पूरी छूट! तब पुत्री भी यदि पुत्र की तरह ही बड़ी हो, तो गलत क्या? पुत्री के शरीर में बीज नहीं आता। उसके प्राण पिता के शरीर में ही निवास करते हैं। उसे अपनी भूमिका पति के घर में निभानी होगी। पुत्र की तरह बड़ी होने से ‘अशिक्षित पत्नी’ की तरह ही पति के घर जाती है।
न तो स्त्री के प्राकृतिक स्वरूप की जानकारी, न प्रसव तथा गर्भकाल का ज्ञान, न ही नवजात की देखभाल का अनुभव। केवल देह मात्र होती है। वहां न वर्ण, न संस्कार, न विद्या। शिक्षा में भी यह विषय कन्याओं को कहीं नहीं पढ़ाए जाते। तब नारी देह में पुरुष ही बड़ा होता है। बुद्धि का आश्रय, उष्णता, टकराव, विच्छेद। वर्ण संकरता एक और कारण है जो आग में घी का काम करता है। घी से आग तो भड़केगी।
स्त्री ही लक्ष्मी है। विष्णु के प्रभाव या मर्यादा में ही जीना हितकर होगा। आज हम किसी की भी लक्ष्मी (धन) को अपने घर में लाकर रखना चाहते हैं। कैसे रहेगी? हमें विष्णु को लाना चाहिए, लक्ष्मी साथ आ जाएगी। विष्णु को छोड़कर कहां जाएगी। लक्ष्मी, मिट्टी है, पृथ्वी है। देह भी मिट्टी है। मिट्टी से बनाई देह भी मिट्टी ही होगी। इसी पार्थिव देह में अमृत आत्मा रहता है। तब देह का मूल्य और उसकी दिव्यता दिखाई पड़ती है।
एक ही देह में भिन्न वर्ण का आत्मा भिन्न स्वरूप में कार्य करता है। भिन्न प्रकार का अन्न ग्रहण करता है। इसी देह में अभ्यास के द्वारा व्यक्ति त्रिगुण से बाहर भी निकलता है। योगी-भोगी-रोगी ही शरीर के तीन गुणों के प्रतिबिम्ब हैं। शरीर लक्ष्मी है। विष्णु से परिचित है। विष्णु प्राण इसके भीतर हृदय में प्रतिष्ठित है। प्राणों के तपन से आत्मा पुन: विष्णुमय हो जाता है।
क्रमश:
‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ श्रृंखला में प्रकाशित अन्य लेख पढ़ने के लिए क्लिक करें नीचे दिए लिंक्स पर –