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धर्म के सहारे जीतें जीवन संग्राम

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: धर्म की शक्ति का केन्द्र ईश्वर है। केन्द्र से शक्ति स्फुरित होकर परिधि की ओर तथा परिधि से केन्द्र की ओर लौटना ही धर्मचक्र का लक्षण है। जीव चूंकि धर्म/कर्म के लिए स्वतंत्र है अत: इसके दुरुपयोग से ही क्लेश पैदा होता है… ‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ श्रृंखला में पढ़िए पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख-

Oct 09, 2022 / 02:12 pm

Gulab Kothari

Sharir Hi Brahmand: धर्म के सहारे जीतें जीवन संग्राम

Gulab Kothari Article: जीवन स्वयं महाभारत ही है जिसमें पग-पग पर संशय, किंकर्तव्यविमूढ़ता है। निणर्य-अनिर्णय के बीच सौ वर्ष का जीवन फंसा है। कर्म और धर्म इस जीवन यात्रा के दो पहिए हैं। दोनों का सन्तुलन रखकर पार पा सकूं। इसके लिए अर्जुन बनकर गीता को जीवन में उतार सकूं। इस महाभारत के कुरुक्षेत्र में मुझे अपना गाण्डीव उठाना है। कृष्ण ने कहा-मैं ही अर्जुन, वासुदेव भी मैं हूं। इस अद्वय स्वरूप को कृष्ण बनकर कैसे जीवन में लागू करुं, यही तो गीता बता रही है।
अर्जुन तो वहां कृष्ण से अपने सखा भाव से प्रश्न पर प्रश्न किए जा रहा था। वह भक्त नहीं था। अत: महाभारत के बाद दुबारा गीता का उपदेश सुनाने का आग्रह कर बैठा। अर्जुन के पास प्रश्न थे। उधर राम के दौर में अर्जुन की भांति हनुमान थे। हनुमान के प्रश्नों का तूणीर हमेशा रिक्त रहा, केवल भक्ति का भाव था। अर्जुन शोकग्रस्त था, संशयों से घिरा था, वहां तीनों योग-कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग गायब थे। ‘तू क्षत्रिय है, युद्ध कर। इसी घोषणा के बाद अर्जुन का योग में प्रवेश प्रारम्भ हो सका। संशय हटा। धर्म की ग्लानि की स्थितियां स्पष्ट हुईं तो धर्म की स्थापना के लिए कृष्ण के कहे मार्ग को पकड़ा।
गीता है तो कर्म शास्त्र ही किन्तु यह भी समझाया है कि धर्म ही कर्म और कर्म ही धर्म तब बनेगा जब कर्म को धर्म मानकर करेंगे। जीवन के पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में कृष्ण का लक्ष्य भी धर्म के सहारे मोक्ष ही है। इसी के लिए विराट् रूप दिखाया, अपनी विभूतियां भी गिना दी। शरीर और शरीर के बाहर तो मूढ़ भी जी सकता है।

स्वयं भीतर में ब्रह्म हैं, अपने स्वरूप की पहचान करने की पहली आवश्यकता है। तभी व्यक्ति दूसरों को भी पहचान सकता है। अपनी विभूतियों से कृष्ण भी बता रहे हैं कि मैं अपने भीतर को शीघ्र समझ सकूं तब भीतर के युद्ध का सामना कर सकूंगा। ‘मैं ही तो भीतर बैठा हूं। आवाज दो-अहंकार के बगैर, तो तत्काल उपस्थित हूं।

कौरवों की सभा में द्रौपदी चीरहरण के दृश्य में दु:शासन अनवरत द्रौपदी के चीर को खींच रहा था। द्रौपदी अपने सम्मान की रक्षा हेतु द्वारकाधीश को पुकारे जा रही थी। जब उसे लगा कि अब द्वारकाधीश सुन नहीं रहे तब उसने अन्तर्मन में बैठे कृष्ण को आवाज लगाई। तत्क्षण कृष्ण उपस्थित हो गए और उसका चीर बढ़ाते चले गए।

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बाद में जब द्रौपदी ने कृष्ण से उपालंभ भरे स्वर में पूछा कि आने में इतनी देर क्यों लगा दी तब कृष्ण ने कहा कि मैं तो वहीं तुम्हारे भीतर बैठा था। तुमने जब मुझे पुकारा तो मैं तत्क्षण उपस्थित हो गया। द्वारकाधीश को आने में समय लग रहा था, भीतर बैठे कृष्ण को नहीं। इसका मन्तव्य इतना ही है कि प्रत्येक व्यक्ति को अधर्म से संघर्ष करने को तैयार रहना चाहिए। अपने कृष्ण स्वरूप का चिन्तन ही आपकी प्रेरणा है।

कृष्ण ने तो अपने अवतार रूप में आने का कारण ही धर्म की स्थापना को दिया है। तब धर्म की व्याख्या में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को समाहित देखना चाहिए। जिस कर्म से धर्म व्यवस्थित रहे, वही धर्म कहलाता है। ”यदा यदाहि धर्मस्यग्लानिर्भवति भारत।’ जब जब धर्म पर विपत्ति आएगी- क्या अर्थ है-सृष्टि में एक चौथाई देव तथा तीन चौथाई असुर हैं। तब कौनसा क्षण ऐसा होगा, जब धर्म पर संकट नहीं आ रहा होगा! तब कौन किसको पुकारेगा!

चूंकि यह संकट भी नित्य है, कृष्ण भी नित्य है-ममैवांशो जीवलोके… (गीता १५.७)। प्रत्येक जड़-चेतन उसी का अंश है। यदि मेरे सामने धर्म पर आक्रमण हो रहा है और मुझे अपने होने पर विश्वास है, मेरे भीतर का कृष्ण प्रकट हो जाएगा। यदि मैं आसुरी भाव का हूं तो आक्रामक भी हो सकता हूं। किन्तु मेरे भी हृदय में वही बैठा है (१८/६१), तो आक्रामक होने से पहले मेरा मन भी एक बार तो ठिठकेगा।

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सृष्टि का प्रत्येक अंग पूर्ण

धर्म का व्यावहारिक स्वरूप इतना व्यापक है कि इसे एक सूत्र या परिभाषा में बांधकर नहीं रखा जा सकता। मोटे रूप से देखें तो धर्म व्यक्ति और उसके भगवान् के बीच का रिश्ता है। वह भगवान् को किस रूप में देखता है और मानता है, उसी के अनुरूप उसके जीवन का दर्शन बनता है।

भगवान् को मैं पिता मानूं, मां कहूं, मित्र कहूं या प्रेमी कहूं तो मेरी सारी भक्ति और उपासना का क्रम ही बदल जाएगा। नास्तिक को भी नास्तिकता में आस्था होती है। उसके लिए यही धर्म का स्वरूप है। राज धर्म, गृहस्थ धर्म, देश धर्म आदि भी धर्म के सामाजिक स्वरूप हैं। इनको भी व्यक्तिगत धर्म की परिभाषा के साथ पिरोना पड़ेगा।

अत्याचार, अनाचार, भ्रष्टाचार आदि भी व्यक्ति धर्म समझ कर ही करता है। ये व्यक्ति के आसुरी प्राणों का धर्म है। इनके बिना शाश्वत धर्म का कोई महत्त्व ही नहीं है। वैसे भी धर्म तो आचरण की बात है। आचरण ही धर्म का प्रतिबिम्ब है। हमारे पुरुषार्थ चतुष्टय में सबसे पहले धर्म ही आता है। फिर अर्थ, काम और मोक्ष है। अर्थात ये तीनों ही धर्म पर आधारित होने चाहिए।

हर व्यक्ति अपने साथ संस्कार लेकर पैदा होता है। उसके कर्म की और धर्म की अपनी व्याख्या होती है। किन्हीं दो व्यक्तियों का धर्म एक नहीं हो सकता। सबके मन और बुद्धि पर प्रकृति के आवरण भी होते हैं; किन्तु अनुपात भेद भी रहता है। सबका जीने का वातावरण भी भिन्न होता है, आदान-प्रदान भी भिन्न होता है। अत: व्यक्तित्व-निर्माण भी भिन्न होगा। वैसे तो कर्म अपने आप में न अच्छा होता है, न ही बुरा। प्रकृति भेद से उसका स्वरूप बदलता है। प्रकृति भी व्यक्ति के साथ-साथ समाज या देश की भिन्न होती है।

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सृष्टि का प्रत्येक अंग पूर्ण

धर्म की शक्ति का केन्द्र ईश्वर है। केन्द्र से शक्ति स्फुरित होकर परिधि की ओर तथा परिधि से केन्द्र की ओर लौटना ही धर्मचक्र का लक्षण है। जीव चूंकि धर्म/कर्म के लिए स्वतंत्र है अत: इसके दुरुपयोग से ही क्लेश पैदा होता है। आहार-विहार के नियम भी तो शरीर के धर्म है। इन्द्रिय-प्राण-मन-बुद्धि को विरुद्ध धर्म सदा विकृत करते रहते है- इन्हें पुन: व्यवस्थित करना भी धर्म की स्थापना ही है।

बाहरी ओर भीतरी जगत् में धर्म का अभाव आसुरी भाव का प्रादुर्भाव करता है। ईश्वर के पास धर्म का साम्यभाव रहता है। धर्म की ग्लानि से ज्ञानज्योति की उज्ज्वलता का स्वाभाविक ह्रास होता है। जब ईश्वर चित्त से हट जाता है, तब ह्रास होता है- इस विषमता का नाश ही धर्म की स्थापना कहलाता है।


‘अधिकार’ शब्द के मोह ने ही अर्जुन को धर्मभीरु और दुर्योधन को कर्मभीरुबनाया। जहां दोनों के अधिकार केवल कर्मपर्यन्त सीमित थे, वहीं दोनों ने फलांशों को ही अपने अधिकार का क्षेत्र बना डाला। अर्जुन अपनी भावुकता से (धर्मभीरुता) जहां निषेध भाषा (न योत्स्ये) की घोषणा कर रहा था, वहीं दुर्योधन अपनी कर्मभीरुता से निषेध भाषा का (नैव दास्यामि) का उद्घोष कर रहा था।

दोनों ही निषेध भाषा बोल रहे थे, किन्तु एक धर्मप्रधान तथा दूसरा नीति प्रधान (धर्म निरपेक्ष) बन रहा था। महाभारत युग का समाज इन्हीं दो वर्गों में बंटा था। एक के शीर्ष पर युधिष्ठिर तथा दूसरे पर शकुनि था। यही धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र का भाव है। धर्म और नीति का सहचर भाव ही समस्या का वास्तविक समाधान होता है।
क्रमश:

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