हमारा शरीर स्वयं में कुछ नहीं है। हम सब एक दूसरे का अन्न हैं, भोग्य हैं, पशु हैं। एक-दूजे को शरीर-मन-बुद्धि से भोगते हैं। पशु का अर्थ है जो स्वधर्म से च्युत ही रहता है। ”लोब्धंनयन्ति पशु मन्यमाना’ (ऋ. 3.53.23) कहने को पशु-देव-मनुष्य तीनों के भोगों का रूप एकत्व है।
तीनों स्थान (पृथ्वी) पर रहते हैं, वायु-आदित्य का समान भोग करते हैं, तीनों लोकों का समान भोग करते हैं। अन्न के भीतर भी अग्नि रहता है। अत: अग्नि को भी पशु कहा जाता है। ”यत् तत् जात: पशून: अविन्दत्’ अग्नि-जातवेद* कहलाता है क्योंकि पैदा होते ही पशुओं (अन्न) को प्राप्त करता है।
पंच पशु : मानव सबसे विकसित
पृथ्वी-पशु वाचक है। पृथ्वी के प्राण-पशु प्राण कहलाते हैं। सभी पार्थिव प्राणी पंच पाशों अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश से बंधे रहते हैं। अत: पशु कहलाते हैं। आदिकाल में पशु-बलि के उपयोग में, भोजन रूप में, मुद्रा रूप में काम आते थे। दूर तक जाने वाली गति के कारण भी पृथ्वी गौ या पशु कही जाती है।
प्राणी भी इस पर गति करते हैं। पशुओं के आत्मा को सुप्त कहा गया है, अत: वे केवल देखते हैं, बुद्धि शून्य माने जाते हैं। सृष्टि विज्ञान की दृष्टि से पशु का अन्न रूप, सोम तत्त्व ही प्रधान लक्ष्य है। यहां पशु सूक्ष्म भाव में आगे बढ़ता है। सृष्टि का आदि क्रम भी अग्नि में सोम (अन्न) की आहुति से ही आगे बढ़ता हुआ पृथ्वी पर पहुंचकर स्थूल रूप लेता है। यही सृष्टि यज्ञ कहलाता है।
सृष्टि में पांच पर्व (स्वयंभू, परमेष्ठी, सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी) होने से पांच ही यज्ञ प्रक्रियाओं से अथवा पंचाग्नि सिद्धान्त से ब्रह्म स्थूल आकार लेता है। हमने पंचाग्नि के विषय में कई बार पढ़ा है, किन्तु प्रक्रिया के रूप में। सोम अथवा अन्न (पशु) रूप को लेकर नहीं।
वर्णसंकरता का प्रवाह
जीव सृष्टि का उपादान कर्मफल ही है। फल भोगने के लिए ही जीव शरीर धारण करता है। किसी का भोक्ता बनता है, किसी का भोग्य। इन सबका कारण अविद्या ही है। विद्या से तो जीव मुक्ति की ओर मुड़ जाता है। अज्ञान ही बन्धन और योनियों का स्वरूप निर्धारित करता है।आसक्ति को सबसे बड़ा कारण कहा गया है। अविद्या ही पुनर्जन्म एवं विभिन्न योनियों में ले जाने की हेतु बनती है। इसके साथ तीनों गुण-सत्व, रज, तम भी सहायक रूप में कार्य करते हैं। न चाहते हुए भी हठपूर्वक कर्म करवाना अहंकार का ही धर्म है।
सातों लोकों में स्थूल शरीर तीन ही श्रेणी के मुख्य होते हैं-जलचर, थलचर, नभचर। तीनों श्रेणियों में ही प्रकृति-वर्ण-अविद्या हेतु बनते हैं। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि प्राणी एक दूसरे से अलग हो जाते हैं। आत्मरूप में सब एक ही सूत्र में बंधे रहते हैं। सभी भीतर आत्मरूप हैं। एक-दूसरे को पहचान सकते हैं।
शरीर ही ब्रह्माण्ड : हर प्राणी का आत्मा ईश्वर समान
तभी तो एक-दूसरे के साथ पूर्व कर्मानुसार व्यवहार करते हैं। एक-दूसरे के साथ हो जाते हैं, रहने लगते हैं। सृष्टि में ज्ञानेन्द्रियां एक से पांच तक होती हैं। यही पशु के सामथ्र्य का आधार है। चेतना की कमी नहीं है। प्रत्येक पशु में विशिष्ट गुण रहते हैं। इन गुणों के कारण, शक्ति विशेष के कारण तथा ऋणानुबन्ध के कारण ही मनुष्य और पशु का सम्बन्ध बनता है।चूंकि आत्मा का स्तर समान है, अत: देव-असुर-मनुष्य-पशु सभी वर्णों में भी समान रूप से श्रेणीबद्ध रहते हैं। देव-असुर के साथ स्थूल रूप में कार्य करते हैं। हम जिन पशुओं को वाहन के रूप में जानते हैं, उनमें उन्हीं दिव्य प्राणों की बहुलता रहती है।
गणपति पृथ्वी के प्राण हैं, मूषक वाहन है। इसमें गणपति प्राण की बहुलता है। इसका कार्य है पृथ्वी में बिल खोदकर भीतर की मिट्टी को बाहर लाना, ताकि उसकी ऊर्वरा बनी रहे। बिल्ली, सर्प, आदि इसके लिए तो असुर रूप होते हैं। बिल्ली, श्वान का शिकार है। सांप को मयूर-नेवला नहीं छोड़ते। वहां भी देवासुर संग्राम बना रहता है। जैसे हमारे भीतर बाहर भी बना रहता है।
शरीर ही ब्रह्माण्ड : आसक्त मन बाहर भागता है
”जीवो जीवस्य भक्षितम्’ कहते हैं और इसी के मध्य में ”अहिंसा परमो धर्म:’ को भी साथ रखना है। सभी प्राणी स्थूलता के साथ-साथ सूक्ष्म स्तर पर जीव रूप होते हैं। यही जीवन के आदान-प्रदान का मूल आधार है। हमें लगता है कि हम शरीर के माध्यम से जुड़े रहते हैं। शरीर तो पशु है। यहां तक कि स्थानीय मेघ तो वर्षण तत्त्व को भी नहीं जानता।
मध्य स्थानीय इन्द्र इसका यथार्थ जानता है। इसने सूर्य में निहित वृष्टि को देखा है। अन्तरिक्ष माता है, जिसमें प्राणी जन्म लेते हैं। योनि प्रदेश है। उत्पन्न हुए प्राणियों को यहां अवकाश प्राप्त होता है। इसी प्रकार मेघ गरजता नहीं है, विद्युत गर्जन करती है। विद्युत का ही सूक्ष्म भाग प्रकाश पैदा करता है।
पशु : मानव से अधिक मर्यादित
ईश्वर प्रजापति रूप है, यज्ञ रूप है। इसकी सम्पूर्ण सृष्टि यज्ञ रूप ही है। अग्नि में सोम ही आहुति एक यज्ञ है। अग्नि में भीतर सोम है, सोम में भीतर अग्नि भी है। अर्थात् यज्ञ के भीतर एक यज्ञ और भी है। अत्यन्त सूक्ष्म में पुन: तीसरा यज्ञ अग्नि-सोमात्मक होगा, पहले वाले यज्ञ की दिशा में। वहीं पर ईश्वर की स्थिति है।इसीलिए सभी प्राणी समान होते हैं। गीता में कहा है-
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:।। (5.18)
-ज्ञानी जन विद्या-विनय युक्त पुरुष ब्राह्मण, गौ, हाथी, श्वान और चाण्डाल को समान रूप से देखते हैं। जीव ही कर्मानुसार योनियां बदलता रहता है। शरीर नश्वर है। स्थित बुद्धि व्यक्ति आत्मा को ही देखता है। शरीर पशु है।
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*जातवेद – सबसे पहले पैदा हुआ। सबको जानने वाला।
क्रमश: