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ऋतुकाल भी ग्रहण काल

केरल की रजिता रामाचन्द्रन के माध्यम से भारतीय संस्कृति में विद्यमान एक निषेध परम्परा की वैज्ञानिकता से व्याख्या करता ‘पत्रिका’ समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विचारोत्तेजक अग्रलेख –

Jan 11, 2022 / 07:31 am

Gulab Kothari

Gulab Kothari article

Gulab Kothari article : हम भी अन्य प्राणियों-वनस्पतियों के जैसे प्रकृति द्वारा ही पैदा किए जाते हैं-यह एक बड़ा तथ्य है। हम से अर्थ हमारे शरीर से है। आत्मा न मरता है, न पैदा होता है। सम्पूर्ण सृष्टि के नियम-बनावट के सिद्धान्त-घटक एक ही हैं। हमारे ऋषियों ने इन तथ्यों का अन्वेषण किया और जो कुछ निष्कर्ष निकाला उनको शास्त्रों के रूप में हमारे लिए छोड़ गए। ग्रन्थ उनके काल की भाषा में थे। हमको आज के सन्दर्भ में उन तथ्यों का अर्थ ढूंढना है। विडम्बना यह है कि आज शिक्षा, ऋषित्व से बहुत दूर ले जा रही है। अर्थात् हम भी विकास के साथ-साथ प्रकृति से दूर जा रहे हैं। तब ‘यथाण्डे तथा ब्रह्माण्डे’ की भाषा कौन समझाएगा?

सृष्टि को अग्नि-सोमात्मक कहा गया है। किन्तु केवल अग्नि सोम के योग से सृष्टि नहीं होती। सृष्टि में मूर्त रूप चाहिए। जीव, ईश्वर का प्रतिबिम्ब है। प्रतिबिम्ब के लिए दर्पण चाहिए। दर्पण के लिए कोई ऐसा तत्त्व चाहिए जो पारदर्शिता को रोक सके। वही तत्व घनता भी दे सके। ईश्वर महद्लोक में गर्भाधान करता है, जो सूर्य से ऊपर का लोक है। वहां अग्नि और सोम, अंगिरा और भृगु, ऊपर परमेष्ठी लोक से आते हैं। इनके साथ तीसरा तत्त्व रहता है-अत्रि (प्राण) अत्रि पारदर्शिता को रोकता है, निर्माण को पिण्ड रूप देता है।

सूर्य जगत् का पिता है। उसमें सृष्टि के 84 लाख योनियों के शुक्र रहते हैं। वही पिता के शुक्र में पहुंचते हैं। इसी सूर्य से शुक्र में तीन वीर्य (कर्म क्षमता) ब्रह्म-क्षत्र-विड्-का प्रवेश होता है। इनका निर्माण भी सूर्य के गायत्र, सावित्र और सारस्वत प्राणों से होता है। यह समाज व्यवस्था नहीं है। अत्रि प्राण इन तीनों वीर्यों का विरोधी तत्त्व भी है। इसका प्रभाव इसीलिए जन्म, मृत्यु एवं अन्य क्रियाओं पर पड़ता है। यहां तक कि परमेष्ठी का सोम अत्रि के कारण ही चन्द्रमा बनता है। जो अत्रि पुत्र कहलाता है।

स्नेह गुण के कारण अत्रि प्राणरूप होते हुए भी स्थान घेरने वाला तत्त्व है। भौतिक परमाणुओं को एकत्र करना, मूर्त रूप देना इसी का काम है। अग्नि-सोम के चिति-लक्षण अन्तर्याम सम्बन्ध का संयोजन करता है। प्रत्येक पदार्थ में मात्रा भेद से अत्रि प्राण प्रतिष्ठित रहता है। मिट्टी के पात्र से प्रकाश पार नहीं जाता। यदि मिट्टी से अत्रि प्राण का अधिकांश भाग निकाल दिया जाए, तब वह कांच बन जाती है। अत्रि प्राण तम प्रधान मल भाग को वस्तुओं में प्रतिष्ठित करके (अन्तर्याम सम्बन्ध से) पारदर्शिता को रोकता है।

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पृथ्वी और चन्द्रमा की छाया अत्रि प्रधान है। पार्थिव छाया से चन्द्र ग्रहण तथा चन्द्रमा की छाया से सूर्य ग्रहण होता है। इसका प्रभाव पार्थिव प्रजा पर पड़ता है। ग्रहण काल में बाहर निकलना, खाना खाना जैसे कार्यों का निषेध है। इसको सूतक (आशौच) कहते हैं। अत्रि प्राण ही मैथुनी सृष्टि का अग्नि-सोम समन्वय से अधिष्ठाता बनता है।

रज, अग्निप्रधान तथा शुक्र, सोमप्रधान है। रज में ही अत्रि प्राण की प्रतिष्ठा है। इसके सहयोग से ही गर्भाधान होता है। जैसा मह:लोक में होता है। यथाण्डे तथा ब्रह्माण्डे। प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण मल भाग छोड़ता रहता है। रजाग्नि से भी दग्ध होकर मल भाग निरन्तर निकलता है। संचित होकर यही मल निश्चित तिथियों में मासिक धर्म के रूप में बाहर निकलता है।

इसी काल में, इसी रज में, पारदर्शिता निरोधक तथा मूर्ति (घनता) प्रवर्तक अत्रि प्राण विकसित रहता है। एक ओर यह पिण्ड रूप को प्रवत्र्त करता है, वहीं दूसरी ओर सौर प्राणों से प्राप्त शुक्र में वीर्य (ब्रह्म-क्षत्र-विड्) का विरोध करता है। ग्रहण काल की तरह का यह काल भी अनेक वर्जनाओं का काल है। यह सघन संक्रमण काल होता है।
‘तद्धैद्देवा:-रेतश्चम्मन् वा, यस्मिन्वा बभ्रु, तद्धस्म पृच्छन्ति-अत्रेवत्या दिति। ततोऽत्रि: सम्बभूव। तस्मादप्यात्रेय्या योषितैनस्वी। एतस्यै हि योषायै वाचे देवताया एते सम्भूता:।’ (शत.1 /4 /5 /13 )

अर्थात्-देवताओं ने उस रेतोभाग को गर्भाशय अथवा अनुकूल पात्र में रख दिया। तब देवता आपस में पूछते हैं कि वह वाग्रेत किस अवस्था में परिणत हो गया? इस विचार से उस वाग्रेत से अत्रि उत्पन्न हो गया। इसी कारण सृतगर्भा रजस्वला स्त्री आत्रेयी कहलाती है। स्त्रीरूपात्मिका उस वाग् देवता से ही सम्पूर्ण गर्भों की स्वरूप निष्पत्ति हुई है।
अस्वच्छता स्थूल कारण है।

प्राण सूक्ष्म होते हैं। इनका प्रभाव भी सूक्ष्म शरीर पर ही पड़ता है। वहीं ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र प्राण रूप हृदय होता है, जिसके केन्द्र में अव्यय मन (आत्मा) की प्रतिष्ठा है। प्राण असंग होते हैं, भूत ससंग होते हैं। ससंग गर्भित असंग प्राणों से ही प्राण या अक्षर सृष्टि होती है। संक्रमण का सीधा प्रभाव यहां पड़ता है। प्राण सृष्टि का सम्बन्ध स्वयंभू से होता है, जो विश्व सृष्टा है।

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इसी संक्रमण के प्रभाव से बचने के लिए प्रत्येक ग्रहण काल में कई निषेध हैं। वे सभी निषेध रजस्वला स्त्री पर भी लागू रहते आए हैं। सूर्य-चन्द्रमा पर लागू नहीं हो सकते। पार्थिव प्राणियों पर लागू हो सकते हैं। इसी प्रकार परिवार के अन्य सदस्यों को मुक्त रखने के लिए स्त्री भाग पर निषेध हुआ लगता है।

मन्दिरों में प्रवेश तो अकल्पनीय ही था। ऐसी धारणा थी कि वहां प्रसाद के अतिरिक्त अत्रि प्राण का प्रभाव मूर्ति के आभामण्डल पर पड़ता है। जिसका संक्रमण स्वीकार्य नहीं होता।

इस निषेध परम्परा को तोड़कर बाहर मुक्त वातारण में प्रवेश का मार्ग केरल की रजिता रामाचन्द्रन ने ही स्वयं के संकल्प से निकाला। इसने महिलाओं को सशक्तिकरण का बड़ा संदेश दिया है। मुक्त वातावरण के साथ अपनी-अपनी कलाओं को देश-विदेश में पहुंचाने के नए अवसर होंगे।

कलाओं का नए युग की दृष्टि से विकास भी हो सकेगा। भक्ति संगीत/नृत्य की दिशा में तो यह सूरज ही कहा जाएगा। रजिता का साहस और संकल्प स्तुत्य है। उसने परम्परा की वैज्ञानिकता का भी सम्मान किया और स्त्री मन पर पड़े भारी बोध को भी उतार फेंका।

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