केरल में एक केस चला था ‘महिलाओं के शबरीमला मंदिर में प्रवेश’ को लेकर। महिलाओं को ऋतुकाल में मंदिर ही नहीं, घर में भी अस्पृश्य माना जाता रहा है। कथकली, भरतनाट्यम, यक्षगान जैसे नृत्य मंदिरों से जुड़े थे। महिलाएं इनमें कभी पात्र नहीं बन पाती थीं। ऐसे हालात देश भर में आज भी हैं।
शबरीमला मामले में कोर्ट ने मनुस्मृति का उदाहरण दिया। ‘पुरातन धार्मिक ग्रंथों और रिवाजों में ऋतुधर्मा (आत्रेयी) स्त्री को आसपास का वातावरण दूषित करने वाला माना जाता था।’ इस कारण ऋतुकाल में स्त्री की स्वतंत्रता बाधित होती है। ऐसी रूढि़वादी परम्पराएं महिलाओं की शिक्षा, धार्मिक स्थलों में प्रवेश, सामाजिक गतिविधियों को सीमित कर देती है। ऐसी व्यवस्थाओं पर रोक लग जानी चाहिए।
यह प्रश्न बड़ा है कि जब देश के किसी मंदिर/धाम में महिलाओं (10 से 50 वर्ष की) का प्रवेश वर्जित नहीं है तब केवल शबरीमला ही क्यों अपवाद है। इस दृष्टि से सुप्रीम कोर्ट का फैसला सही है। पूरे समाज को एक जुट होकर इसे लागू करने में साथ देना चाहिए। समय की मांग भी यही है और महिलाओं के सम्मान की बात भी यही है। कोई भी महिला ऋतुकाल में मंदिर में प्रवेश नहीं करती। इसी कारण इनको कथकली जैसी नृत्यनाटिकाओं से बाहर रखा जाता था, जो केवल मंदिरों में ही मंचित होती थी। इसका अर्थ यह नहीं है कि महिलाओं का प्रवेश निषेध था। प्रत्येक महिला के कारण कलाकार बदलना संभव नहीं था।
यह भी देखें – हिन्दू कौन?
शबरीमला मामले में कोर्ट ने मनुस्मृति का उदाहरण दिया। ‘पुरातन धार्मिक ग्रंथों और रिवाजों में ऋतुधर्मा (आत्रेयी) स्त्री को आसपास का वातावरण दूषित करने वाला माना जाता था।’ इस कारण ऋतुकाल में स्त्री की स्वतंत्रता बाधित होती है। ऐसी रूढि़वादी परम्पराएं महिलाओं की शिक्षा, धार्मिक स्थलों में प्रवेश, सामाजिक गतिविधियों को सीमित कर देती है। ऐसी व्यवस्थाओं पर रोक लग जानी चाहिए।
यह प्रश्न बड़ा है कि जब देश के किसी मंदिर/धाम में महिलाओं (10 से 50 वर्ष की) का प्रवेश वर्जित नहीं है तब केवल शबरीमला ही क्यों अपवाद है। इस दृष्टि से सुप्रीम कोर्ट का फैसला सही है। पूरे समाज को एक जुट होकर इसे लागू करने में साथ देना चाहिए। समय की मांग भी यही है और महिलाओं के सम्मान की बात भी यही है। कोई भी महिला ऋतुकाल में मंदिर में प्रवेश नहीं करती। इसी कारण इनको कथकली जैसी नृत्यनाटिकाओं से बाहर रखा जाता था, जो केवल मंदिरों में ही मंचित होती थी। इसका अर्थ यह नहीं है कि महिलाओं का प्रवेश निषेध था। प्रत्येक महिला के कारण कलाकार बदलना संभव नहीं था।
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केरल सरकार ने महिला सुरक्षा को लेकर एक अभियान शुरू किया है। उसका एक जीवंत एवं सकारात्मक उदाहरण पिछले साल 25 दिसम्बर को देखने को मिला। जब रजिता रामचन्द्र नामक लड़की ने पालघाट के प्रसिद्ध नृत्यनाटक ‘तोलपवाक्कूतु’ का सार्वजनिक मंचन किया। यह नाटक कथकली जैसे परम्परागत नृत्य नाटकों की तरह केवल मंदिरों में ही प्रदर्शित होता था।
ऋतुकाल की वर्जना के चलते इनमें महिला पात्रों का निषेध रहता था। देश भर में व्याप्त इस परिपाटी को तोड़ते हुए रजिता ने महिलाओं का समूह बनाया और मंदिर के बाहर इसे कला के रूप में प्रदर्शन कर दिखाया। न परम्परा से कोई टकराव, न आगे बढऩे में बाधा। न असुरक्षा का भाव, न सामाजिक दबाव। आज सभी मंचन कला के रूप में सार्वजनिक हो गए।
महिलाएं भी कलाकार बन सकती हैं। रजिता रामचन्द्र ने यही तो मार्ग दिखाया। प्रकृति में स्त्री-पुरुष दोनों मूल में पुरुष हैं। इस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय का फैसला ठीक ही है। किन्तु ऋतुकाल में प्रवेश निषेध क्यों है, इसकी वैज्ञानिकता को भी समझना और समझाना आवश्यक है। जो न मां ही सिखा रही है और न कोई अध्यापिका। यही कारण है कि यह विषय विकास की अवधारणाओं के साथ रूढि़ बन गया।
इस तरह के मामलों में याचिकाकर्ता, वकील न्यायाधीश आदि सभी नवशिक्षित वर्ग के व समान विचारधारा के व्यावसायिक चिंतन के लोग होते हैं। यही हाल कार्यपालिका का है। हमारी शिक्षा ने यही वरदान दिया है देश को। हम धर्म परिवर्तन के मुद्दे पर तो आक्रामक हो जाते हैं, राजनीति करने लगते हैं, किन्तु राष्ट्र परिवर्तन को अनदेखा कर बैठे हैं।
ऋतुकाल की वर्जना के चलते इनमें महिला पात्रों का निषेध रहता था। देश भर में व्याप्त इस परिपाटी को तोड़ते हुए रजिता ने महिलाओं का समूह बनाया और मंदिर के बाहर इसे कला के रूप में प्रदर्शन कर दिखाया। न परम्परा से कोई टकराव, न आगे बढऩे में बाधा। न असुरक्षा का भाव, न सामाजिक दबाव। आज सभी मंचन कला के रूप में सार्वजनिक हो गए।
महिलाएं भी कलाकार बन सकती हैं। रजिता रामचन्द्र ने यही तो मार्ग दिखाया। प्रकृति में स्त्री-पुरुष दोनों मूल में पुरुष हैं। इस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय का फैसला ठीक ही है। किन्तु ऋतुकाल में प्रवेश निषेध क्यों है, इसकी वैज्ञानिकता को भी समझना और समझाना आवश्यक है। जो न मां ही सिखा रही है और न कोई अध्यापिका। यही कारण है कि यह विषय विकास की अवधारणाओं के साथ रूढि़ बन गया।
इस तरह के मामलों में याचिकाकर्ता, वकील न्यायाधीश आदि सभी नवशिक्षित वर्ग के व समान विचारधारा के व्यावसायिक चिंतन के लोग होते हैं। यही हाल कार्यपालिका का है। हमारी शिक्षा ने यही वरदान दिया है देश को। हम धर्म परिवर्तन के मुद्दे पर तो आक्रामक हो जाते हैं, राजनीति करने लगते हैं, किन्तु राष्ट्र परिवर्तन को अनदेखा कर बैठे हैं।
हमने अंग्रेजों को इंगलैंड लौटा दिया, उनसे आयात बंद कर दिया। लेकिन साथ ही तेजी से उनका निर्माण शुरू कर दिया। मुगल आए तो उन्होंने भरत के भारत को हिन्दुस्तान बना दिया। अंग्रेज आए तो यह इंडिया बन गया। अंग्रेज चले गए तो ‘इंडिया दैट इज भारत’ बन गया। जो अंग्रेजियत आज भी बची हुई है उसको देखकर लगता है कि यह ‘इंडिया दैट वाज भारत’ न हो जाए।
आज पुन: इस देश में अंग्रेजों का राज (अंगे्रजी मानसिकता और संस्कृति का) स्थापित होने लगा है। भारतीय और उनकी संस्कृति आज भी इन अंग्रेजीदां के हाथों में बंधी है। ये ही कानून बनाते हैं और डण्डे के जोर पर पालना भी करवाते हैं। इनको इस बात से लेना-देना भी नहीं है कि किसकी आस्था को ठेस पहुंचती है। सिर्फ चिंता यह है कि शेष भारत के लोग इनकी तरह क्यों नहीं सोचते? उन्हें स्वयं की जिंदगी की चिंता नहीं है लेकिन दूसरे कैसे जिएं इस बात को उनकी मर्जी पर छोडऩा भी मंजूर नहीं है। हम स्वतंत्रता चाहते हैं पर उनको किस बात की?
यही हाल सारे उन कानूनों का है, जो हमारी संस्कृति को रूढि़ बताकर झट से इनकार कर देते हैं। इन नए अंगे्रजी दां लोगों का आम जनजीवन से कोई संंपर्क भी नहीं है। शास्त्रों की समझ फौरी (ऊपरी) सी है। किस सामाजिक परिवेश में परम्परा बनी होगी, उस पर विचार नहीं, आम आदमी को शिक्षित करने की क्षमता भी इनमें नहीं है। बस कानून बना दो। बाल विवाह निषेध का कानून आज भी जगह-जगह टूट रहा है। ये डंडा चलाने की सोचते हैं, लोगों के बीच जाकर उन्हें विश्वास में लेने की नहीं।
यह भी देखें – भ्रष्टाचार व छुआछूत सबसे बड़ा दंश
आज पुन: इस देश में अंग्रेजों का राज (अंगे्रजी मानसिकता और संस्कृति का) स्थापित होने लगा है। भारतीय और उनकी संस्कृति आज भी इन अंग्रेजीदां के हाथों में बंधी है। ये ही कानून बनाते हैं और डण्डे के जोर पर पालना भी करवाते हैं। इनको इस बात से लेना-देना भी नहीं है कि किसकी आस्था को ठेस पहुंचती है। सिर्फ चिंता यह है कि शेष भारत के लोग इनकी तरह क्यों नहीं सोचते? उन्हें स्वयं की जिंदगी की चिंता नहीं है लेकिन दूसरे कैसे जिएं इस बात को उनकी मर्जी पर छोडऩा भी मंजूर नहीं है। हम स्वतंत्रता चाहते हैं पर उनको किस बात की?
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केन्द्र में कांग्रेसनीत सरकार के दौरान भी हमने देखा-लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र भले ही अठारह वर्ष है पर 15 वर्ष की उम्र में सहमति से यौन संबंध को मान्यता देने के सवाल पर भी खूब चर्चा हुई। भले ही सुप्रीम कोर्ट तक इसे गलत ठहरा चुका है। लिव इन रिलेशनशिप को अमलीजामा पहनाने के प्रयास भी जोर-शोर से हुए। लेकिन सवाल यही है कि ऐसा कानून लाकर क्या बदलाव लाना चाहते थे? ऐसे कानून तो अंग्रेजों के वक्त भी नहीं बनते थे। ये सब अंग्रेजी मानसिकता वालों के लिए ही है।
हाल ही में लड़कियों की शादी की उम्र इक्कीस वर्ष करने का कानून प्रस्तावित किया गया है। इस कानून के अभाव में किसकी स्वतंत्रता भंग हो रही थी? इस देश में विवाह की उम्र समय के साथ स्वयं बढ़ती जा रही है। सरकार को निजी जीवन में इस स्तर तक दखल की कहां आवश्यकता है? आज तो वातावरण अपने आप में इतना असुरक्षित हो गया है कि सरकार सुरक्षा के नाम पर सिर्फ आश्वासन दे सकती है। मानव की प्रकृति नहीं बदल सकती। फिर आज तो शिक्षित लड़कियां तीस वर्ष बाद भी शादी करने लगी हैं। प्रश्न इतना सा नहीं है। क्या इस प्रश्न पर कभी सार्वजनिक चर्चा हुई कि पहले शादी जल्दी क्यों होती थी और आज क्यों देर से होनी चाहिए?
कानून बना देना सरकार के हाथ में है। इस अधिकार का एकतरफा उपयोग ही अंग्रेजियत का प्रमाण है। ‘हमने जो कह दिया वही सही है। हम सरकार हैं।’ आजादी से लेकर आज तक यही होता आ रहा है। अंग्रेज पैदा होते जा रहे हैं। अंग्रेजियत हावी होती जा रही है। भारतीयता को कुल्हाड़ी से काटा जा रहा है। क्या इसी का नाम अमृत महोत्सव है!
देश के हित में भारतीय दृष्टिकोण ही सार्थक होगा। जो, जैसे जीना चाहे वह स्वतंत्र रहे। जो बदलना चाहे, बदल जाएं। टकराव न हो। कुछ भी दबाव हमें अपनी मानसिकता से नहीं बनाना चाहिए। यही भारतीयता का सम्मान होगा।
हाल ही में लड़कियों की शादी की उम्र इक्कीस वर्ष करने का कानून प्रस्तावित किया गया है। इस कानून के अभाव में किसकी स्वतंत्रता भंग हो रही थी? इस देश में विवाह की उम्र समय के साथ स्वयं बढ़ती जा रही है। सरकार को निजी जीवन में इस स्तर तक दखल की कहां आवश्यकता है? आज तो वातावरण अपने आप में इतना असुरक्षित हो गया है कि सरकार सुरक्षा के नाम पर सिर्फ आश्वासन दे सकती है। मानव की प्रकृति नहीं बदल सकती। फिर आज तो शिक्षित लड़कियां तीस वर्ष बाद भी शादी करने लगी हैं। प्रश्न इतना सा नहीं है। क्या इस प्रश्न पर कभी सार्वजनिक चर्चा हुई कि पहले शादी जल्दी क्यों होती थी और आज क्यों देर से होनी चाहिए?
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