पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव सिर पर खड़े हैं और अभी तक प्रत्याशियों के नाम तय नहीं हो रहे हैं। दोनों ही प्रमुख दलों के आलाकमान सिर खुजा चुके। देश ही नहीं विश्व के पुराने और बड़े लोकतंत्र की और दयनीय दशा क्या हो सकती है।
•Oct 30, 2023 / 10:49 am•
Gulab Kothari
गुलाब कोठारी
पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव सिर पर खड़े हैं और अभी तक प्रत्याशियों के नाम तय नहीं हो रहे हैं। दोनों ही प्रमुख दलों के आलाकमान सिर खुजा चुके। देश ही नहीं विश्व के पुराने और बड़े लोकतंत्र की और दयनीय दशा क्या हो सकती है। कहीं आनन-फानन में पुराने विधायकों को थोक के भाव टिकिट दिए, कहीं हारे हुओं की किस्मत के ताले खुले, कहीं बाहुबली-माफिया-भ्रष्ट दावेदार टिकट ले उड़े। आलाकमान पहले किसी चुनाव में ऐसे भयभीत भी नहीं होते थे। दावेदार भी कभी ऐसे नहीं गुर्राते थे। बागी लोगों के तेवर, चुनाव में उतरने की तैयारी बता रही है कि उनको अपनी जीत के आगे पार्टी का अस्तित्व बहुत छोटा लग रहा है।
इसका मुख्य कारण है राज्यस्तरीय नेतृत्व का अभाव। ऐसा पहली बार हुआ है कि विधानसभा के लिए टिकट ऊपर वाले बांटने लगे हैं। राजस्थान हो, मध्यप्रदेश हो या अन्य कोई प्रांत, स्थानीय स्तर के नेता ही नहीं हैं। कोई किसी के आदेश की परवाह ही नहीं करता। तीनों हिन्दी राज्यों में नेतृत्व (सर्वमान्य) ही नहीं है। दोनों दलों में धड़ेबाजी, अनुशासनहीनता का ही प्रकोप है। दूर बैठे को लगता होगा कि नेतृत्व तो है। मध्य प्रदेश कांग्रेस में दिग्विजय सिंह और कमलनाथ की अपनी-अपनी सेना है। पीएम-सीएम की चर्चा सार्वजनिक हो चुकी है। राजस्थान में वसुंधरा की लहर भले ही ठंडी दिखाई दे रही है, फुफकार तो सुनाई दे रही है। नीचे राज्य स्तर का नेता दिखाई ही नहीं देता। पायलट के पीछे की शक्ति अशांत है। छत्तीसगढ़ भाजपा में नेता कहां है? बघेल (मुख्यमंत्री) और सिंह देव की सेना पूरे आवेश में है। यह जो खेमाबन्दी है, वह लोगों को जीत के लिए नहीं, हारने/हराने के लिए प्रेरित कर रही है।
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