दिल्ली-एनसीआर में वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) 400 के पार पहुंच गया है और एक्यूआई एक बार फिर गंभीर श्रेणी में पहुंचते ही वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (सीएक्यूएम) द्वारा ‘ग्रेडेड रिस्पॉन्स एक्शन प्लान’ का चौथा चरण ‘ग्रैप-4’ फिर से लागू हो गया है, जिसके तहत कई प्रकार की पाबंदियां लग गई हैं। इसी महीने की शुरूआत में वायु गुणवत्ता में कुछ सुधार को देखते हुए ग्रैप-3 और ग्रैप-4 के प्रतिबंध हटा दिए गए थे। विड़ंबना है कि सर्दियों के इस मौसम में वायु प्रदूषण को लेकर पैदा होने वाली स्थिति की हर साल यही कहानी देखने को मिलती है। प्रदूषण का स्तर बढ़ते ही ग्रैप-3 या ग्रैप-4 की पाबंदियां लागू हो जाती हैं और थोड़ा सुधार होते ही हटा ली जाती हैं, लेकिन ऐसे कोई गंभीर प्रयास होते नहीं दिखते, जिससे आने वाले वर्षों में ऐसी स्थितियां निर्मित ही न हों। ‘ग्रैप’ प्रदूषण से निबटने का ऐसा सिस्टम है, जिसमें प्रदूषण का स्तर बढ़ने के साथ ही प्रतिबंध स्वतः ही लागू हो जाते हैं। वायु प्रदूषण को लेकर न केवल दिल्ली एनसीआर क्षेत्र बल्कि देश के तमाम अन्य शहरों के हालात भी अच्छे नहीं हैं। जगह-जगह टूटी सड़कों पर बेतहाशा उड़ती धूल का वायु प्रदूषण की स्थिति को विकराल बनाने में बड़ा योगदान रहता है लेकिन न ही सड़कों की मरम्मत होती है और न ही इस स्थिति से निपटने के लिए कोई अन्य ठोस उपाय किए जाते। देश की सर्वोच्च अदालत बढ़ते प्रदूषण पर कई बार गंभीर चिंता जता चुकी है।
बढ़ते प्रदूषण को लेकर पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस ए.एस. ओका की अगुवाई वाली बेंच ने कहा था कि प्रत्येक नागरिक का अधिकार है कि वह प्रदूषण रहित वातावरण में रहे। अनुच्छेद-21 के तहत नागरिकों को जीवन की स्वतंत्रता का अधिकार मिला हुआ है और इस अधिकार में प्रदूषण मुक्त जीवन भी शामिल है। सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब और हरियाणा द्वारा वायु गुणवत्ता प्रबंधन (सीएक्यूएम) अधिनियम की धारा 14 के तहत पराली जलाने संबंधी आदेशों का उल्लंघन करने वाले अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने में अनिच्छा पर भी अपनी चिंता दोहराई थी। दरअसल पराली का धुआं भी दिल्ली की हवाओं पर भारी पड़ता रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों दिल्ली-एनसीआर में खराब होती वायु गुणवत्ता पर नियंत्रण करने में विफल रहने पर नाराजगी जताते हुए कहा था कि शुद्ध हवा नहीं मिलना लोगों के प्रदूषण मुक्त वातावरण में रहने के मौलिक अधिकार का हनन है। पर्यावरण संरक्षण अधिनियम को संशोधनों के जरिये दंतहीन बनाए जाने पर केंद्र सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट की बेंच का कहना था कि केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए पर्यावरण संरक्षण अधिनियम की संशोधित धारा-15 बेकार यानी ‘दंतहीन’ हो गई है। बेंच ने यह भी कहा था कि केंद्र और राज्यों को यह याद दिलाने का समय आ गया है कि अनुच्छेद-21 के तहत लोगों को प्रदूषण मुक्त वातावरण में रहने का मौलिक अधिकार है।
सर्दियों में हर साल दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण की विकराल होती स्थिति पर कठोर टिप्पणियां करते हुए सुप्रीम कोर्ट कहता रहा है कि प्रदूषण नियंत्रण के लिए सब कुछ केवल कागजों में ही हो रहा है जबकि जमीनी हकीकत कुछ और है लेकिन उसके बावजूद सरकारों द्वारा कोई ऐसे कठोर कदम नहीं उठाए जाते, जिससे स्थिति को विकराल होने से रोका जा सके। पिछले साल भी न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने वायु प्रदूषण नियंत्रण के लिए जिम्मेदार प्राधिकरणों की नाकामी का उल्लेख करते हुए स्पष्ट तौर पर कहा था कि दिल्ली-एनसीआर में वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) बेहद खराब स्थिति में है और आने वाली पीढ़ियों पर इसका बुरा असर पड़ेगा। कोर्ट ने कहा था कि कुछ दशक पहले तक यह दिल्ली का सबसे अच्छा समय होता था लेकिन अब स्थिति बिल्कुल अलग है और प्रदूषण के कारण घर से बाहर कदम रखना भी मुश्किल हो गया है।
दरअसल चिंता की बात यही है कि हवा की गुणवत्ता में सुधार के लिए कुछ भी करने में विफल रहने पर सुप्रीम कोर्ट हर साल केन्द्र और राज्यों को फटकार लगाता रहा है लेकिन जिम्मेदार लोगों पर कोई असर नहीं पड़ता। थोड़ा पीछे जाएं तो 2019 में भी सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के आसपास के राज्यों में पराली जलाने पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का आदेश दिया था और दिल्ली में हवा की गुणवत्ता में सुधार के लिए कुछ भी करने में विफलता के लिए केन्द्र और राज्यों को फटकार लगाते हुए यह भी कहा था कि राज्य और केन्द्र एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं, यह राजनीतिक रूप से प्रबंधित प्रदूषण है तथा राजनीति और एक-दूसरे पर दोषारोपण का खेल ही रास्ते में सबसे बड़ी बाधा बन रहा है। न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा के नेतृत्व वाली सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने उस समय कहा था कि दुनिया हम पर हंस रही है, आप लोगों की आयु कम कर रहे हैं, लोगों को गैस चैंबर में रहने को क्यों मजबूर किया जा रहा है, इससे तो बेहतर है कि विस्फोटक के जरिये उन सभी को एक ही बार में मार दिया जाए। अदालत ने चिंता जताते हुए कहा था कि आप प्रदूषण पर नियंत्रण के उपायों को लागू करने में सक्षम नहीं हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि दिल्ली-एनसीआर में लोगों को मरना चाहिए और कैंसर से पीड़ित होना चाहिए। अदालत का तब भी दो टूक शब्दों में कहना था कि लोगों की जान इसलिए जा रही है क्योंकि सरकारी एजेंसियां अपना काम नहीं कर रही हैं।
बहरहाल, यह बेहद चिंता की बात है कि प्रतिवर्ष कैलेंडर पर केवल साल बदलता है लेकिन प्रदूषण की वही पुरानी कहानी हर बार दोहराई जाती है। लोग जहरीली हवा में सांस लेने को मजबूर होते हैं और सबसे बड़ी विड़म्बना यह है कि ये वे लोग हैं, जो उन शहरों में रहते हैं, जहां से सरकारी खजाने की झोली सबसे ज्यादा भरी जाती है लेकिन हर साल बड़े-बड़े दावे किए जाने के बावजूद स्थिति में किसी प्रकार का सुधार नहीं दिखता बल्कि लोगों को ही नसीहतें दी जाने लगती हैं कि सुबह की सैर पर मत निकलें या घर के खिड़की-दरवाजे बंद रखें या फिर घर से बाहर मास्क पहनकर निकलें। प्रदूषण की बदतर स्थिति को देखते हुए दिल्ली में प्राइमरी स्कूल तो बंद कर भी दिए गए हैं।
प्रदूषण नियंत्रण के नाम पर हर साल दिल्ली-एनसीआर में ग्रैप से लेकर तमाम आर्थिक गतिविधियों को या तो सीमित कर दिया जाता है या कुछ समय के लिए प्रतिबंधित लेकिन इससे कुछ भला नहीं होने वाला। यह बात सही है कि वाहनों के धुएं से लेकर तमाम आर्थिक गतिविधियों की प्रदूषण बढ़ाने में अहम भूमिका रहती है लेकिन सर्दियों में प्रदूषण का सितम बढ़ाने में पराली (धान का अवशेष) जलाने की घटनाओं का योगदान भी कम नहीं होता लेकिन इस पर कोई विराम लगाने के बजाय यह मामला राज्यों की आपसी राजनीतिक रस्साकशी और आरोप-प्रत्यारोप में उलझकर रह जाता है। दरअसल किसानों की नाराजगी मोल लेने से बचने के लिए कोई भी राजनीतिक दल उन पर सख्ती करने से हिचकता है। हालांकि प्रदूषण नियंत्रण को लेकर देश में कई कानून लागू हैं लेकिन उनके अनुपालन में शायद ही कभी गंभीरता दिखती है। तय मानकों के अनुसार हवा में पीएम की निर्धारित मात्रा अधिकतम 60-100 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर होनी चाहिए किन्तु इस सीजन में तो यह अब हर साल 400 के पार रहने लगी है। वायु प्रदूषण की गंभीर होती समस्या का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि देश में हर 10वां व्यक्ति अस्थमा का शिकार है और गर्भ में पल रहे बच्चों तक पर प्रदूषण का असर हो रहा है यानी हमारी अगली पीढ़ी तो पूरी तरह निखरने से पहले ही इस ग्रहण का दंश झेलने को अभिशप्त है। यह निश्चित रूप से खतरे की बहुत बड़ी घंटी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, पर्यावरण मामलों के जानकार तथा ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ पुस्तक के लेखक हैं)