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भोजन की बर्बादी को रोकने में मददगार हैं ‘फूड बैंक’

विश्व खाद्य दिवस (16 अक्टूबर) पर विशेष: दुनिया के किसान आज भले ही वैश्विक आबादी के लिए पर्याप्त भोजन पैदा कर रहे हों, पर चरम मौसमी घटनाएं, युद्ध-संघर्ष, आर्थिक मंदी, असमानता व महामारी के कारण इस आबादी का बड़ा हिस्सा भूख का सामना कर रहा है। इसीलिए इस बार विश्व खाद्य दिवस का विषय है – ‘बेहतर जीवन और बेहतर भविष्य के लिए भोजन का अधिकार’

जयपुरOct 16, 2024 / 10:47 pm

Nitin Kumar

डॉ. विवेक एस. अग्रवाल
संचार और शहरी स्वास्थ्य विशेषज्ञ
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फल-सब्जी की कीमतों को लेकर सदैव अच्छी-खासी चिंता बनी रहती है, कभी उपभोक्ताओं तो कभी किसानों के स्तर पर। फसल की बहुतायत और कमी, दोनों ही चिंता का कारण बन जाते हैं। कमी है तो किसान और उपभोक्ता दोनों, और बहुतायत है तो किसान बेहाल हो जाता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से फल और सब्जी के उपयोग की सलाह सभी के द्वारा दी भी जाती है लेकिन आमतौर पर उपभोग सीमित रूप में ही होता है। हर वर्ष अनेक फसलें जैसे टमाटर मांग से अधिक उत्पादन या लागत भी वसूल न होने के कारण किसान सडक़ों पर फेंकने के लिए मजबूर होते हैं। यदि फल-सब्जी के उपयोग का मानचित्रीकरण किया जाए तो पाएंगे कि अधिकांशत: आर्थिक रूप से सक्षम के अतिरिक्त पैदावार करने वाला ही इनका उपयोग करता है। सीमांत, मजदूर, वंचित और यहां तक कि आर्थिक विषमताओं वाले निम्न मध्यम वर्ग भी सीमित मात्रा में ही फल-सब्जी का उपयोग कर पाते हैं, क्योंकि संसाधनों की कमी बीच में आ जाती है। एक वर्ग ऐसा भी है जो औसतन 10 प्रतिशत फल-सब्जी को अनुपयोगी मानते हुए उन्हें कचरे के डिब्बे के हवाले कर देता है।
देश में फल-सब्जी की पैदावार कम होती हो ऐसा भी नहीं है। अनुमानों के अनुसार, यह आमजन की आवश्यकता के अनुरूप या उससे अधिक ही होती है। फिर भी यह एक बड़े वर्ग की पहुंच से बाहर ही है। साथ ही कृषक भी पैदावार के अनुपात में आय न होने से असंतुष्ट है। कुछ दशक पूर्व राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड के डॉ. राम अनेजा ने अपने अध्ययन के माध्यम से आम कृषि उत्पादों की तुलना में सब्जी-फल की पैदावार को श्रेयस्कर साबित किया था। उनके अनुसार, प्रति हेक्टेयर भूमि में इनकी पैदावार से किसान को बेहतर आय होगी, पर इसके लिए आवश्यक है कि कोल्ड चेन की पुख्ता व्यवस्था की जाए। बिना उपयुक्त भंडारण व्यवस्था के इसका हश्र बुरा ही होगा। कोल्ड चेन के अभाव में फल-सब्जी की उपज शीघ्र नष्ट होने वाली होती है और उपज का बड़ा हिस्सा नष्ट होने से कीमतों में वृद्धि अवश्यंभावी हो जाती है। इसके विपरीत अनेक बार उपज की मात्रा इतनी अधिक हो जाती है कि उसके भंडारण और परिवहन की लागत बाजार भाव से कहीं अधिक हो जाती है। मूलत: असंतुलन एवं आधारभूत संरचना के अभाव का ही परिणाम हैं ऐसी स्थितियां।
बीते वर्षों में भंडारण क्षमता में बढ़ोतरी के लिए सार्थक प्रयास हुए हैं पर उपयुक्त परिवहन अब भी बहुत महंगा है। इन सबसे ऊपर आवश्यकता है खेत के स्तर पर आयोजना एवं सटीक अनुमान की। वर्तमान में किसान सही आंकलन नहीं कर पाता है और परिणामस्वरूप एक बड़ी मात्रा में उपज का विक्रय नहीं हो पाता है। पाया गया है कि उपज का चयन भी अधिकांशत: होड़ में या देखा-देखी ही होता है। बीजारोपण के वक्त बाजार एवं उपयोग का आकलन नहीं करने से बड़ी मात्रा में खाद्य सामग्री की बर्बादी होती है जिसे काफी हद तक टाला जा सकता है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खाद्य बर्बादी के दृष्टिगत ‘फूड बैंक’ स्थापित किए गए हैं ताकि उपज से लेकर उपभोग के स्तर तक कहीं भी बर्बादी न हो। दुर्भाग्यवश भारत में जहां सनातनी परंपरा के तहत दान को संस्कृति मानते हुए जीवन का आधार माना गया है, अभी तक वास्तविक स्तर पर फूड बैंक स्थापित नहीं हो पाए हैं। हमारे यहां खाद्य सामग्री या भोजन के दान की परंपरा तो अवश्य है किन्तु पूर्णतया असंगठित एवं गुणवत्ता मानकों से दूर। आमतौर पर भोजन दान की परंपरा का निर्वहन अस्पतालों, मंदिरों, अनाथालयों या विभिन्न आश्रमों तक सीमित है। खाद्य सामग्री या भोजन दान से पूर्व किसी भी रूप में आवश्यकता का आकलन नहीं किया जाता, ताकि ज्ञात हो सके कि किस प्रकार की सामग्री आवश्यक है। इस कारण वास्तविक लाभार्थी और दानदाता के मध्य खाई बनी रहती है। खाद्य सामग्री या भोजन के दान में महत्त्वपूर्ण है कि वह वर्ग जो कुपोषित हो, आर्थिक रूप से वंचित हो, मेहनतकश हो, इसका लाभ प्राप्त करे किंतु जमीनी हकीकत बहुत भिन्न है। अभी भी दिखावा अधिक है और वास्तविकता बहुत कम। ‘अन्नक्षेत्र’ (खाद्य बर्बादी को समाप्त करने के लिए कार्यरत संस्था) के प्रारंभिक अनुभव में आश्रम आधारित लाभार्थी वर्ग में पारदर्शिता का अभाव, अत्यधिक अपेक्षा का भाव पाया गया और बेहतर बनाने के उद्देश्य से फिर मेहनतकश व्यक्तियों के मध्य वितरण को सीमित किया गया।
दुनियाभर में फूड बैंक के माध्यम से कृषि, फल-सब्जी, डेयरी उत्पाद आदि सामग्री के वितरण की रणनीति पूरे जतन से बनाई जाती है ताकि इससे पहले कि खराब हो किसी के मुख का ग्रास बन जाए। विकसित देशों में किसानों के साथ संवाद कर विक्रय से अधिक उपज को दानदाताओं या सरकारी सहायता से क्रय कर फूड बैंक तक पहुंचाया जाता है। तत्पश्चात उक्त फूड बैंक स्वयंसेवकों के माध्यम से निर्धारित वर्ग जैसे महिला, बच्चे, वृद्धजन, विशेष योग्यजन, आर्थिक रूप से वंचित वर्ग तक उस सामग्री को वैज्ञानिक रूप से पहुंचाने का कार्य करते हैं। अनेक स्थलों पर फूड बैंक के साथ रसोई भी जुड़ी होती है ताकि कोई भूखा ना रहे। इन फूड बैंक में सामग्री अनुरूप संरक्षण हेतु बड़े आकार के रेफ्रिजिरेटर होते हैं ताकि लंबी अवधि तक अच्छी अवस्था में बने रहें। देश में भी अन्य राष्ट्रों की तरह फूड बैंक स्थापित करने को प्रोत्साहित करने का कार्यक्रम लागू करना चाहिए ताकि किसी भी प्रकार की खाद्य सामग्री बर्बाद न जाए। कोई भी खाद्य सामग्री बर्बाद होने से यथासंभव बचाई जानी चाहिए, क्योंकि किसान उनका उत्पादन, पहले मनुष्यों और फिर पशु-पक्षियों के उपभोग के लिए करते हैं, न कि बर्बाद होने और फिर खाद-गैस बनाने के लिए।
उल्लेखनीय है कि उपज का एक तिहाई हिस्सा बर्बाद हो जाता है और यह एक तिहाई हिस्सा कार्बन उत्सर्जन की वजह भी बनता है। प्रारंभिक तौर पर जिलों की कृषि उपज मंडी के साथ फूड बैंक स्थापना कर बर्बादी से पूर्व संरक्षण किया जा सकता है। इस बाबत स्वैच्छिक संस्थाओं को भी पहल करते हुए खाद्य सामग्री की बर्बादी रोकने के प्रयास करने चाहिए। यदि मंडी स्तर पर भी फल-सब्जी के खराब होने से तनिक पूर्व संग्रहण की व्यवस्था हो जाए तो अनेक व्यक्तियों को स्वस्थ भोजन प्रदान करने में सहायता मिलेगी। खाद्य की बर्बादी सीधे तौर पर किसी के मुख से निवाला छीनने का कार्य कर रही है। भोजन एवं खाद्य सामग्री वितरण से कहीं ज्यादा जरूरी है बर्बादी को रोकना, ठीक उसी तरह जैसे पैसे की बचत ही आय है। बच्चों को भी आरंभ से ही भोजन बर्बादी के विरुद्ध जागरूक कर हम ‘जीरो फूड वेस्टेज इकोनॉमी’ तैयार कर सकते हैं।

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