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बाढ़ में बहते रिश्ते

देशभर में बाढ़ की तबाही से हाहाकार मचा हुआ है। लोग मर रहे हैं। हजारों बेघर हो रहे हैं। हर प्रान्त में सरकारें सैकड़ों करोड़ रुपए के बजट जारी कर रही हैं, मानों बहुत बड़ा अहसान करने जा रही हों।

Aug 15, 2019 / 08:23 am

Gulab Kothari

flood and govt policy

देशभर में बाढ़ की तबाही से हाहाकार मचा हुआ है। लोग मर रहे हैं। हजारों बेघर हो रहे हैं। हर प्रान्त में सरकारें सैकड़ों करोड़ रुपए के बजट जारी कर रही हैं, मानों बहुत बड़ा अहसान करने जा रही हों। किसको नहीं मालूम कि यह धन भी जनता का ही है। जितना धन लोगों को राहत पहुंचाने में खर्च होता है, उसका बड़ा हिस्सा तो नेताओं के हवाई सर्वे और अफसरों के प्रीतिभोज आयोजनों पर खर्च हो जाता है। बाड़मेर जिले का कवास गांव इसका जीता-जागता नमूना है, जहां 13 वर्ष बीत जाने पर भी न बाढ़ का पानी बाहर निकला और न ही लोग पुराने घरों में लौट पाए। बजट हर तरह से पूरा काम आ गया। कोई लेखा-जोखा मांगकर तो देखे! पाठकों को याद होगा कि इस क्षेत्र के लोगों को राहत पहुंचाने के लिए पत्रिका की पहल पर पूर्व उपराष्ट्रपति स्व. भैरोंसिंह शेखावत के हाथों सहायता राशि भी बांटी गई थी।

असल में तो बाढ़ कोई पहली बार नहीं आई। सालों-साल आ रही है। लोग हर वर्ष मरते भी हैं। इस कारण ही तो बजट बनता है। मरेंगे नहीं तो बजट जारी करने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। हां, बजट की एक किश्त बाढ़ राहत के नाम पर अग्रिम खर्च हो जाती है। तब प्रश्न यह उठता है कि क्या हमारे अधिकारी इतने नकारा हैं कि सत्तर वर्षों में नियमित बाढ़ पर और मौत के कारणों पर नियंत्रण नहीं कर पाए अथवा उनके दिलों में इन लोगों के प्रति कोई दर्द ही नहीं है। कैसे जनसेवक हैं ये?

बाढ़ का कारण हर शहर में एक ही है। पूरा देश भ्रमण करके देख लीजिए। अधिकारियों का निजी स्वार्थ और रिश्वतखोरी का नंगा नाच। इसका उदाहरण राजस्थान के रामगढ़ जैसे सैकड़ों बांध और जलाशय हैं, देशभर में। अधिकारियों के मगरमच्छी आंसुओं से ये भरने वाले नहीं हैं। क्या कोई भी बड़ा अतिक्रमण बिना अधिकारियों की मौन स्वीकृति के हो सकता है? क्यों अधिकारी जल के निकास के मार्ग पर अतिक्रमण होने पर आंख मूंद लेता है?

बाढ़ रोकने के लिए जल के प्रवाह एवं संग्रह की व्यवस्था करनी पड़ती है। पिछले बीस बरसों में क्या किसी बांध की मिट्टी खोदी गई? क्या सबका जल भराव कम नहीं हुआ? आज रामगढ़ में पानी नहीं आ रहा, किन्तु कहीं तो जा रहा है। क्या नदियों के बहाव को एनीकट से रोकना अतिक्रमण नहीं है? एक बार जब तेज वर्षा हुई थी तब कितने एनीकट टूटे थे? कितने गांव डूब में आए थे, किसको नहीं मालूम? एनीकट बनाने में भी कमीशन मिलता है। राजनीति भी होती है। तालाब खोदकर जल संग्रहण कठिन कार्य है।

प्रत्येक वर्षा के बाद अगली वर्षा के बीच 8-10 माह का समय मिलता है। क्या किसी सरकार में बाढ़ को सदा के लिए रोक देने का कार्य कहीं होता है? रामगढ़ को सूखा देखकर कितने लोग दावतें कर रहे होंगे। बाढ़ का बजट रुक जाए तो? यही हाल अकाल राहत का है। कैसे रिपोर्ट्स तैयार होती हैं, पास होती हैं, किसको पता? कई बार तो किसान जब सूचना देता है कि उसके यहां अकाल पड़ गया, तो पता चलता है कि रिपोर्ट भेजे ही एक माह हो गया।

अकाल हो या बाढ़ जो जाल बीमा कम्पनी बिछाकर चलती है, वैसा किसी विकसित देश में हो जाए तो व्यवसाय बंद करना पड़े। यह हाल भी कमोबेश सभी प्रदेशों में एक समान है। किसानों को मुआवजा कितना मिल पाता है इसकी जानकारी सभी सरकारों और मुख्यमंत्रियों तक को होती है। वे इस तथ्य को यदा-कदा स्वीकार भी करते हैं। किन्तु किसान के भाग्य में आत्म-हत्या ही लिखी है। दावतें कहीं और होती हैं।

राजस्थान सरकार ने इस बार घोषणा की है कि अगली बारिश (2020) के ऋतुचक्र के पहले राज्य के सभी बांधों के जल मार्गों को बाधा मुक्त कर देगी। बानगी तो दी भी है। हम सरकार के साथ हैं। जनता सरकार का साथ देगी। निरीक्षण-कमेटियां तथा न्यायालय भी अपने फैसलों को लागू करवाने को संकल्पित हों, तो प्रदेश को जीवन-यापन के मुख्य स्रोत ‘अमृतं जलम्’ का सुख प्राप्त होगा।

सरकार को उन अधिकारियों के नाम सार्वजनिक करने चाहिए, नेताओं तथा परिजनों को भी बेनकाब करना चाहिए, जो इस कार्य में बाधा बनते हैं। युवा शक्ति को इस अभियान को योजना बनाकर प्रदेश स्तर पर हाथ में लेना चाहिए। वर्षा का पूरा जल जनता के काम आए। जहां भराव होता है, वहां बोरिंग किए जाएं ताकि भूमिगत स्तर भी बढ़े, मार्ग भी खुले रहें।

केन्द्र सरकार को भी नदियों को जोडऩे का कार्य यथाशीघ्र हाथ में लेना चाहिए। विशेषकर ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों को, जो काल बनकर हर वर्ष सैंकड़ों जीवन लील जाती हैं। जिन क्षेत्रों में बाढ़ राहत की उचित तैयारियां वर्षभर में भी नहीं हो सकें, वहां केन्द्रीय मंत्री एवं सरकार को अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई भी करनी चाहिए। राज्य सरकारों का इन्हीं सांठ-गांठ तोडऩे में बस चलता ही नहीं। पिछली सरकार ने हिम्मत करके 19 अधिकारियों के विरुद्ध केस दर्ज कराए। अन्त में डरकर वापिस ले लिए। यह तथ्य सही है कि भय बिन होत न प्रीत। हमें तो उस दिन की प्रतीक्षा है जब बाढ़ को हम चुनौती दे सकेंगे। वरना यह निष्कर्ष ही रहेगा कि अफसर जनता के प्रतिनिधि नहीं हैं।

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