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भद्दी भंगिमाओं के बहाने अराजक व्यवहार का किया महिमामंडन

फिल्म एनिमल: सेंसर बोर्ड ऐसी फिल्में पास कैसे कर देता है

Dec 19, 2023 / 10:11 pm

Gyan Chand Patni

भद्दी भंगिमाओं के बहाने अराजक व्यवहार का किया महिमामंडन

अतुल कनक
लेखक और साहित्यकार

अर्थशास्त्री ग्रेशम ने कहा था कि बुरी मुद्रा, अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। यह नियम जीवन के दूसरे क्षेत्रों में भी लागू होता है। बुराई सामान्य मनुष्य के मन को सहजता से आकर्षित कर लेती है। बाजार इस तथ्य को जानता है और मन की कुंठाओं को ग्लैमर का तरीका लगाकर मुनाफा कमाता है। यह स्थिति वर्ष 2023 की एक चर्चित फिल्म ‘एनिमल’ के संदर्भ में कही जा सकती है। यह फिल्म न केवल पर्दे पर अप्रिय दृश्य प्रस्तुत करती है, बल्कि कुछ प्रसंगों में तो शालीनता की हर मर्यादा हो अनदेखा कर देता है। फिल्म का नाम ‘एनिमल’ है, लेकिन सामान्य जानवर भी ऐसा घृणित बर्ताव नहीं करते। आश्चर्य यह है कि इस फिल्म को इतना देखा गया कि यह वर्ष की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्मों में शामिल हो गई। जब सार्वजनिक जीवन में इस तरह की प्रस्तुतियों का कड़ा विरोध हो रहा है, तो फिर इन प्रस्तुतियों की वित्तीय सफलता का कारण क्या है? हमारा सामाजिक आचरण पाखंड भरा हो गया है या फिर जिम्मेदार सिस्टम अवांछित सामग्री पर नियंत्रण में विफल है।
पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी अपने संबोधनों में कृत्रिम मेधा यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से तैयार किए गए डीपफेक वीडियो पर चिंता जाहिर की थी। फेसबुक रील से लेकर थ्रेड, इंस्टाग्राम और दूसरे सोशल मीडिया माध्यमों पर भी ऐसी आपत्तिजनक सामग्री सहजता से उपलब्ध है जहां शालीनता और मर्यादा की धज्जियां उड़ाई जाती हैं। लाइक, कमेंट और शेयर के मोहजाल से गुंथा हुआ यह मायाजाल छोटे-छोटे गांवों तक पहुंच गया है। एक तरफ कुछ लोग चिंता में हैं कि सोशल मीडिया से किसी संभ्रान्त महिला की फोटो चुराकर कोई सिरफिरा अश्लील डीपफेक वीडियो नहीं बना ले, तो दूसरी तरफ बड़ी संख्या में युवतियां और महिलाएं स्वयं भद्दी भंगिमाओं के साथ अपने वीडियो अलग-अलग सोशल मीडिया मंचों पर अपलोड कर रही हैं। सकारात्मक मूल्यों में विश्वास रखने वालों को यह स्थिति डराती है। भारतीय जीवन मूल्य धर्म, अर्थ और मोक्ष के साथ काम को भी जीवन का एक महत्त्वपूर्ण पुरुषार्थ मानते हैं। लेकिन काम के पुरुषार्थी निर्वहन और अश्लीलता के प्रदर्शन में अंतर है। ठीक इसी तरह अपने आक्रोश के प्रदर्शन में और ‘एनिमल’ जैसा व्यवहार करने में भी बहुत अंतर है।
मनोवैज्ञानियों का कहना है कि कुछ लोग परिस्थितियों के कारण इतने कुंठित हो जाते हैं कि वे इस तरह की फिल्मों या वेब सीरिज में अपने आक्रोश की छवि देखते हैं। सत्तर और अस्सी के दशक में एंग्री यंग मैन की छवि सुपरहिट होने का यही कारण था कि लोग जब विभिन्न कारणों से स्वयं को शोषित महसूस कर रहे थे, तब उन्हें उस हीरो की छवि में अपना नायक मिला जो अकेला दस-बीस गुंडों से लड़ लेता था और शोषक के वर्चस्व को खत्म कर देता था। लेकिन किसी महिला के अधोवस्त्रों को सार्वजनिक तौर पर फाडऩे, किसी स्कूल में बंदूक लेकर सब बच्चों पर फायर करने वाले वहशियाना व्यवहार या गाली गलौज की भाषा वाली अभिव्यक्ति का सपना कौन देखता है। यदि कुछ लोग यह सपना देखते हैं तो समाज के जिम्मेदार लोगों और सिस्टम की जिम्मेदार एजेंसियों को चाहिए कि वे ऐसे सपनों को पल्लवित होने से पहले ही तहस-नहस कर दें। सवाल यह है कि आखिर इस तरह की फिल्में सेंसर बोर्ड से पास कैसे हो जाती हैं? जिस देश की संस्कृति मानव मात्र में परम् ब्रह्म के साक्षात की प्रेरणा देती है, वहां भाषा और भंगिमाओं की अराजक प्रस्तुतियों का ‘ग्लैमराइजेशन’ चिंतित करता है।

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