निपुण अनेजा के उपरोक्त प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि ट्रायल कोर्ट को ट्रायल प्रारंभ करने से पहले यह देख लेना चाहिए कि आरोपी की मंशा पीडि़त को आत्महत्या की ओर ले जाने की ओर थी अथवा नहीं। अर्थात पुलिस द्वारा जांच में जुटाए गई सामग्री को देखते हुए कोर्ट को ही अंदाजा लगाना होगा कि क्या प्रताडऩा इतनी थी कि पीडि़त के पास जीवन जीने का और कोई दूसरा विकल्प नहीं था। बेहतर होगा कि पुलिस के अनुसंधान अधिकारी ऐसे प्रमाण जुटाएं जिससे पुलिस के पास पर्याप्त एविडेंस हों और मंशा जानने के लिए कोर्ट के समक्ष पर्याप्त सामग्री रिकॉर्ड पर उपलब्ध हो।
आर.के. विज
सेवानिवृत्त पुलिस महानिदेशक
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही एक प्रकरण में एक बार फिर आत्महत्या के उत्प्रेरण के प्रकरणों में पुलिस और कोर्ट दोनों को सावधानी बरतने के लिए निर्देश दिए हैं। हालांकि इससे पूर्व भी कई प्रकरणों में सुप्रीम कोर्ट ने सचेत किया है, परंतु ‘निपुण अनेजा विरुद्ध उत्तर प्रदेश राज्य’ के उपरोक्त प्रकरण में कोर्ट ने इस बारे में स्पष्ट कर दिया है। उसने कहा है कि कोर्ट अभियोजन प्रारंभ करने से पहले पुलिस द्वारा जुटाई गई सामग्री अर्थात एविडेंस के आधार पर यह सुनिश्चित कर ले कि अभियुक्त की मंशा उसके द्वारा किए गए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कृत्य से पीडि़त को आत्महत्या के उत्प्रेरण की ओर ले जाने को इंगित करती है अथवा नहीं। यदि यह मंशा ट्रायल पूरा होने के बाद सुनिश्चित की जाती है तो कानून का दुरुपयोग होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने विगत कई निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि धारा 306 आइपीसी के प्रकरणों में अभियुक्त द्वारा पीडि़त को केवल परेशान करना पर्याप्त नहीं है। अभियोजन को यह सिद्ध करना होगा कि पीडि़त को अभियुक्त द्वारा इतना प्रताडि़त किया गया कि पीडि़त के पास आत्महत्या करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था। अभियुक्त का पीडि़त को प्रताडि़त करना एवं पीडि़त द्वारा आत्महत्या जैसा कदम उठाना एक दूसरे से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा हुआ और समय के नजदीक होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने आत्महत्या के प्रकरणों में दो प्रकार का वर्गीकरण करते हुए बताया कि अभियुक्त व पीडि़त में निजी रिश्ते के प्रकरण और मालिक-कर्मचारी के प्रकरणों में भेद किया जा सकता है।
यदि अभियुक्त और पीडि़त में रिश्ता निजी है, जैसे पति-पत्नी, मां-बेटा, भाई-बहिन आदि तो परस्पर मनोवैज्ञानिक असंतुलन जल्दी होने की आशंका रहती है क्योंकि ऐसे रिश्ते में एक दूसरे के ऊपर भावनात्मक निर्भरता रहती है और व्यक्ति जल्दी तनाव में आ सकता है। नौकरी जैसे पेशे में मालिक एवं कर्मचारी के बीच संबंध कानून, नियम और अनुबंध की शर्तों से चलता है। दोनों प्रकार के संबंधों में आत्महत्या के उत्प्रेरण के कारणों को एक तराजू में नहीं तोला जा सकता। दूसरा, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि कोर्ट को ट्रायल प्रारंभ करने से पहले देखना चाहिए कि क्या कोई एविडेंस ऐसा है कि अभियुक्त की मंशा पीडि़त को आत्महत्या की ओर ले जाने के लिए पर्याप्त हो। अभियुक्त की मंशा जानने के लिए पूरे ट्रायल की आवश्यकता न होते हुए कानून का सिद्धांत यह कहता है कि एविडेंस को देखकर अभियुक्त की मंशा का अंदाजा लगा लिया जाए। कुछ वर्ष पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने ‘रिपब्लिक टीवी’ के एडिटर अर्णव गोस्वामी को धारा 306 आइपीसी के प्रकरण में अंतरिम जमानत देते हुए कहा कि यदि प्रथम सूचना प्रतिवेदन को ‘फेस वैल्यू’ पर ही देखा जाए तो उसमें आत्महत्या के उत्प्रेरण अर्थात धारा 107 आइपीसी के तत्व सम्मिलित दिखाई नहीं देते। इस प्रकरण में एक व्यक्ति ने अर्णब गोस्वामी सहित तीन व्यक्तियों के नाम पर सुसाइड नोट लिखकर उनकी कंपनी को कुछ भुगतान लंबित होने से उन्हें आत्महत्या के लिए जिम्मेदार ठहराया था। सुप्रीम कोर्ट ने ‘उदय सिंह विरुद्ध हरियाणा राज्य’ (2019) के प्रकरण में निर्धारित सिद्धांत को दोहराते हुए कहा कि आरोपी पर केवल उत्पीडऩ का आरोप होना पर्याप्त नहीं है, बल्कि पीडि़त द्वारा आत्महत्या करने के संबंध में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष, घटना के नजदीकी समय में, मंशापूर्वक किया गया हुआ ऐसा कृत्य हो जिसके फलस्वरूप पीडि़त के पास जीने का कोई कारण नहीं बचा हो। आत्महत्या उत्प्रेरण प्रकरणों के संबंध में अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत का प्रकरण भी महत्त्वपूर्ण है। हालांकि आत्महत्या का घटनास्थल मुंबई था और अप्राकृतिक मृत्यु का प्रकरण दर्ज कर मुंबई पुलिस द्वारा जांच की जा रही थी, परंतु जल्दबाजी में बिहार पुलिस ने आत्महत्या के उत्प्रेरण का प्रकरण पंजीबद्ध कर लिया। बिना कोई अनुसंधान प्रारंभ किए रातों-रात उसे सीबीआइ को भी ट्रांसफर कर दिया। इस प्रकरण में महत्त्वपूर्ण यह है कि मुंबई पुलिस ने अपनी जांच में आत्महत्या के उत्प्रेरण का कोई एविडेंस नहीं पाया था और न ही अभी तक सीबीआइ द्वारा जांच में क्या पाया गया, पब्लिक डोमेन में कुछ उपलब्ध है।
निपुण अनेजा के उपरोक्त प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि ट्रायल कोर्ट को ट्रायल प्रारंभ करने से पहले यह देख लेना चाहिए कि आरोपी की मंशा पीडि़त को आत्महत्या की ओर ले जाने की ओर थी अथवा नहीं। अर्थात पुलिस द्वारा जांच में जुटाए गई सामग्री को देखते हुए कोर्ट को ही अंदाजा लगाना होगा कि क्या प्रताडऩा इतनी थी कि पीडि़त के पास जीवन जीने का और कोई दूसरा विकल्प नहीं था। बेहतर होगा कि पुलिस के अनुसंधान अधिकारी ऐसे प्रमाण जुटाएं जिससे पुलिस के पास पर्याप्त एविडेंस हों और मंशा जानने के लिए कोर्ट के समक्ष पर्याप्त सामग्री रिकॉर्ड पर उपलब्ध हो।
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