ओपिनियन

हे कृषक! रक्षा करो!!

जिस प्रकार ईश्वर महद्योनि में बीज का वपन करते हैं, तुम भी पृथ्वी की योनि में, अग्नि प्रज्वलित करके (हल के द्वारा) बीज बोते हो। आगे का कार्य स्वयं धरती माता करती है। तुम रक्षा करते रहते हो।

Apr 23, 2021 / 06:38 am

Gulab Kothari

PM Kisan Samman Nidhi

– गुलाब कोठारी
हे कृषक!

तुम से बड़ा पुरुषार्थी कौन है?

तुम से बड़ा तपस्वी भी कौन है?

तुम्हें मानव का पोषण करने के लिए स्वयं ईश्वर ने भेजा है। ब्रह्म को जीव-रूप में, अन्न के साथ सृष्टि यज्ञ में आहूत करने के लिए। तुम्हीं कृषक, तुम्हीं गोपाल, तुम्हीं वैश्य हो। तुम स्वतंत्र नहीं हो बल्कि सृष्टि-विज्ञान की एक कड़ी हो। जिस प्रकार ईश्वर महद्योनि में बीज का वपन करते हैं, तुम भी पृथ्वी की योनि में, अग्नि प्रज्वलित करके (हल के द्वारा) बीज बोते हो। आगे का कार्य स्वयं धरती माता करती है। तुम रक्षा करते रहते हो।
इस देश में अन्न को ब्रह्म कहते हैं-यह तथ्य तुमसे छिपा भी नहीं है। इसी ब्रह्म को तुम हजारों-लाख मानवों के शरीर में पहुंचाते हो। इसी अन्न से शरीर में शुक्र का निर्माण होता है। शुक्र ही अगली पीढ़ी के ब्रह्म-विवर्त का बीज बनता है और तुम ब्रह्म-विवर्त के जनक हो।
कृष्ण ने गीता में कहा है-

‘अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव:।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव: ॥’ (गीता 3/14)

‘कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥’ (गीता 3/15)

सभी प्राणी अन्न से ही उत्पन्न होते हैं। अन्न, वृष्टि (वर्षा) यज्ञ से पैदा होता है। यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होता है। कर्म वेद (ब्रह्म) से और वेद परमात्मा से उत्पन्न जानो। परमात्मा ही यज्ञ है।
कृषक! तुम ब्रह्म-यज्ञ के लिए-अन्न सोम की आहुति देते हो। तुम भी ब्रह्म ही हो। तुम्हारी प्रकृति विश्व-निर्माण की दिशा तय करती है। किसी भी यज्ञ के लिए युगल तत्त्व की अनिवार्यता होती है। प्रत्येक यज्ञ के पांच अवयव कहे गए हैं। अग्नि, समिधा, अंगार, विस्फुलिंग एवं हवि द्रव्य। यही अग्नि-सोम युगल रूप कार्य करते हैं। सम्पूर्ण यज्ञ (ब्रह्म) पांच धरातलों पर आगे बढ़ता है-सूर्य (आधिदैविक), पृथ्वी (आधिभौतिक), पुरुष (आध्यात्मिक)। आधिदैविक तथा आध्यात्मिक यज्ञों के दाम्पत्य भाव से आगे दाम्पत्य यज्ञ उत्पन्न होता है। आधिभौतिक (पत्थर-लोहादि) से नया यज्ञ उत्पन्न नहीं होता है। द्यावापृथ्व्यि यज्ञ के आगे प्राण लक्षण तथा प्राणी लक्षण दो भाग हो जाते हैं। प्राण लक्षण यज्ञ में पृथ्वी, अन्तरिक्ष व द्यौ:-ये तीन अंग हैं तथा प्राणी लक्षण यज्ञ में वृषा (पुरुष) एवं योषा (स्त्री) दो भाव हैं। द्यु-लक्षण पिता एवं पृथ्वी माता से जैसे प्राणी लक्षण यज्ञ सम्पन्न होता है, वैसे ही द्यु रसानुगत पुरुष, पृथ्वी रसानुगत स्त्री से प्राणी यज्ञ सम्पन्न होता है।
यहां यह उल्लेख करना उचित होगा कि सूर्य के प्रकाश (दिन) रूप (अद्र्धाकाश के) अग्नि-प्राण से पुरुष सृष्टि पैदा होती है तथा पृथ्वी-अन्तरिक्ष के रात्रि (अद्र्धाकाश के) चन्द्र प्राण से स्त्री सृष्टि उत्पन्न होती है। स्वयं चन्द्रमा का प्रकाश भी सूर्य प्रकाश का ही परिवर्तित रूप है। मूल में भृगु एवं अंगिरा दोनों ही ‘आप:’ रूप हैं।
शरीर का वैश्वानर अग्नि ही ‘पुरुष’ कहलाता है। कृष्ण कह रहे हैं-

‘अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित:
प्राणापानसमायुक्त: पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ॥’ (गीता 15/14)

यह शरीर ही वैश्वानर अग्नि की समिधा है। इस पुरुषाग्नि में वर्षा से उत्पन्न अन्न की आहुति दी जाती है। यह अन्न कृषक ही उत्पन्न करता है। इसी से रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र बनते हैं। यही शुक्र अगले ब्रह्म का बीज है न? तुम्हें मालूम है कि अनाज को ‘दानों में जीव पडऩे के पहले’ नहीं काटा जाता।
तुम्हारी भूमिका मात्र इतनी सी नहीं है। जब तुम हल चलाते हो, तुम्हारी पत्नी ‘बीजणी’ से बीज बोती जाती है। तब तुम कुछ गीत भी गाते हो। ईश्वर से अच्छी फसल के लिए प्रार्थना करते हो। अनाज खाने वाले के स्वास्थ्य की भी मंगलकामना करते हो। ये सारे वे ही भाव हैं, जो एक मां अपनी सन्तान के लिए खाना बनाते समय भावित करती है। भाव भूमि पर तुम भी अन्नदाता हो, पिता भी हो। संस्कृति का उद्घोष भी है कि ‘जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन।’ तुम्हारे मन के ये भाव भोक्ता तक पहुंच जाते हैं। पहला भोक्ता ईश्वर होता है। वहां ‘अन्नकूट’ चढ़ता है। हम सब तो प्रसाद खाते हैं। दिव्य प्रसाद! आगे अन्न में व्यापारी के मन के भाव जुड़ जाते हैं।
तुम भी जानते तो होंगे कि ‘कलयुग’ के अन्त में प्रलय आती है। क्या तुम यह भी समझ पाए कि इस बार प्रलय के लिए बलि का बकरा कृषक को बनाया जा रहा है। विज्ञान के नाम पर लोग धन्धा कर रहे हैं। हमको-तुमको भ्रमित कर रहे हैं। जो हमारी माटी को नहीं जानते, प्रकृति को नहीं जानते, अन्न-ब्रह्म को नहीं जानते, सेवा करने का तथा मानव जीवन का महत्व नहीं जानते, जिनके जीने का एक मात्र सपना है पेट भरना-रिटायर होना-मर जाना-वे हमारी आस्थावान मानसिकता को विषैला बना रहे हैं। और, यह सब विज्ञान के नाम पर करवा रहे हैं। एक तपस्वी के सिर पर मानवता की हत्या का पाप मढऩे का कुचक्र। ताकि विज्ञान पर आंच भी नहीं आए।
पृथ्वी पर देवों से असुर तीन गुणा होते हैं। आज की शिक्षा नित नए रक्तबीज पैदा कर रही है। लक्ष्मी (जड़) के आगे चेतना सुप्त हो रही है। मानव शरीर में दानव पैदा हो रहे हैं। मां ने संस्कार देना ही विस्मृत कर दिया। अत: तुमको भी पता नहीं कि तुम प्रलय का मोहरा बनाए जा रहे हो। तुम्हारी तपस्या कलंकित हो रही है। तुम पोषक नहीं, मानवता के संहारक बन गए हो। अन्न-ब्रह्म में विष (कीटनाशक, रासायनिक खाद, नकली दूध व उन्नत बीजों का) मिलाकर ‘अन्नकूट’ मना रहे हो। तुम्हारी प्रार्थना धन की मात्रा ढूंढने लग गई है। इससे बड़ी भ्रान्ति जीवन में और हो भी क्या सकती है? अधिक उपजाओ-अधिक कमाओ। अधिक कैंसर-अधिक दवाइयां। पैसा फिर वहीं-वैज्ञानिकों के पास। बीमारी का कष्ट हमारे परिवारों का। किसी भी सलाहकार अधिकारी का तुम्हारे साथ सुख-दु:ख का रिश्ता नहीं है। वह तो खुद भी अंग्रेजों की तरह तुम्हें न केवल लूटता है, बल्कि तुम्हारे लिए तो आत्महत्या के हालात पैदा करता जाता है। बैंक-बीमा-कृषि अधिकारी की तुम प्रजा हो। इनके भ्रमजाल से बाहर निकलना तुम्हारी पहली अनिवार्यता है। नहीं तो मानव समाज पंगु और धरती भी बांझ हो जाएगी। कीटनाशकों के कारण अपनी ऊर्वरा शक्ति ही खो बैठेगी। पाप का सारा घड़ा कृषक के सिर फूटेगा। आसुरी शक्तियां अट्टहास करती रहेंगी।
इस बीच आशा की किरण यदि है तो वह है हमारी परम्परागत खेती और गो-पालन। शुद्ध मोटा स्थानीय अनाज-देशी बीज-गोबर खाद-घी/दूध की नदियां। देशी गाएं, देशी आहार एवं पुरुषार्थ। ईश्वर में आस्था-अहं ब्रह्मास्मि स्वरूप। आज भीतर बैठा ब्रह्म सुप्त है, शरीर बिक रहा है। तुम ही आत्मा के पोषक हो। रक्षा करो मानवता की। दुष्टों की सुनना बन्द करो। भीतर की आवाज सुनो। देश के विचार बदलेंगे। अंग्रेजों की नकल बन्द होगी। हमारा ज्ञान पुन: प्रतिष्ठित होगा। युवा, विचारधारा से पुन: स्वतंत्र एवं शरीर से हृष्ट-पुष्ट होगा। नई उड़ान और नया आसमान। तुम और हम एक ही धरती मां के लाड़ले हैं। पेड़ में लगा कीड़ा किसी एक पत्ते को नहीं, पूरे पेड़ को खा जाता है।
मां-शक्ति को जगाओ!

मरने से बचेंगे

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