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पत्रिका इंटरव्यू: मुकाबला वैश्विक है, आर्थिक उदारीकरण को अगले चरण में ले जाना होगा – डी के जोशी

चीफ इकोनॉमिस्ट (क्रिसिल), डी के जोशी ने राजस्थान पत्रिका से खास बातचीत में साफ तौर पर कहा है कि उदारीकरण से नहीं मिटा भ्रष्टाचार, जरूरी है पारदर्शिता और व्यवस्थागत बदलाव। इसके लिए ढांचागत सुविधाएं सुधारना और नौकरशाही का दखल घटना जरूरी है।

Jul 29, 2021 / 09:13 am

Patrika Desk

Chief Economist DK Joshi, Crisil

अर्थव्यवस्था के दरवाजे खुले तीन दशक बीत चुके हैं। इस दौरान कैसी चली उदारीकरण की प्रक्रिया, कितना बदला इसने देश के आर्थिक हालात और कारोबार के तौर-तरीकों को? आम हिंदुस्तानी के जीवन में उदारीकरण के चलते क्या बदलाव आए? भ्रष्टाचार और इंस्पेक्टर राज कितना दूर हुआ? मुकेश केजरीवाल के इन सवालों पर देश के जाने-माने अर्थशास्त्री डीके जोशी के बेहद सरल और सुलझे जवाब…

इस दौरान क्या लाइसेंस राज से वाकई आम जन को मुक्ति मिल सकी?
तब व्यवस्था सरकारी मंजूरियों और नियमों के मकडज़ाल में फंसी थी। उद्योग-कारोबार नहीं बढ़ पा रहे थे, उपभोक्ता को विकल्प नहीं मिल रहे थे, लंबा इंतजार भी करना पड़ता था। एक स्तर पर लाइसेंस राज खत्म हुआ, पर औद्योगिक क्षेत्र में यह प्रक्रिया अब भी पीछे है। अब उदारीकरण की प्रक्रिया को अगले स्तर पर ले जाने की जरूरत है। दुनिया से मुकाबला करने के लिए ढांचागत सुविधाओं को सुधारना और नौकरशाही की दखलंदाजी का घटना जरूरी है।

रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स से हमारे देश की छवि को बहुत नुकसान पहुंचता है?
इससे तो जरूर बचना चाहिए। कोई भी निवेश करने से पहले चाहेगा कि खेल के नियम बार-बार न बदले जाएं। यह तो बिल्कुल न हो कि पहले के समय से ही उसे लागू कर दिया जाए। ऐसा नहीं कि भारत रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स व्यवस्था की ओर बढ़ रहा हो, पर और स्पष्टता की दरकार है।

इन तीन दशक में कृषि क्षेत्र को क्या मिला? सुधार की जरूरतें क्या हैं?
उदारीकरण का बहुत ज्यादा फायदा कृषि क्षेत्र को नहीं हुआ। हमारी 40 प्रतिशत आबादी कृषि क्षेत्र से जुड़ी है, पर कृषि क्षेत्र का जीडीपी में हिस्सा अब घटकर 15% रह गया है। कृषि पर इतने ज्यादा लोगों की निर्भरता की एक वजह मैन्युफैक्चरिंग में ज्यादा अवसर पैदा नहीं न कर पाना है। आबादी बढ़ेगी तो यह मुद्दा और गंभीर होगा। कृषि क्षेत्र में हमें उत्पाद की बर्बादी को रोकने पर ध्यान देना होगा। फॉरवर्ड मार्केट विकसित करना होगा। किसान को फसल लगाते समय कीमत का अंदाजा होना चाहिए। कृषि के आधुनिकीकरण की भी जरूरत है। कृषि क्षेत्र में जो सुधार घोषित किए गए हैं, वे कुछ हद तक बाजार उन्मुख थे। इनको ले कर और ज्यादा सहमति बनाने की जरूरत है। किसानों के लिए कीमत संबंधी सेफ्टी मैकेनिज्म तैयार हो। ढांचागत सुविधाओं की जरूरत है, इन्हें निजी क्षेत्र लाता है, तो उसे बढ़ावा देना चाहिए। यह भी देखना होगा कि नियम और सुधार का लाभ किसानों तक पहुंचे। नजर भी रखनी होगी।

मौजूदा व्यवस्था रोजगार व कौशल विकास के लिहाज से कितनी कारगर रही है?
हमारे यहां उदारीकरण से श्रम-केंद्रित नहीं, बल्कि पूंजी केंद्रित उद्योग विकसित हुआ। जरूरत ऐसे क्षेत्रों को बढ़ावा देने की है जो ज्यादा से ज्यादा श्रम के अवसर पैदा कर सकें। जैसे कपड़ा, स्वास्थ्य, विनिर्माण। हमें मानव-पूंजी पर निवेश करना होगा। उनके कौशल को बढ़ाना होगा। हर आदमी डॉक्टर या इंजीनियर तो नहीं बनेगा, कुशल व प्रशिक्षित बढ़ई या इलेक्ट्रीशियन भी तैयार करने होंगे। आगे इनकी मांग बढ़ेगी।

कोरोना ने अर्थव्यवस्था के सामने नई चुनौतियां ला दी हैं…
स्वास्थ्य क्षेत्र को लेकर हमारी आंखें खुलनी चाहिए। हमने फिजिकल इंफ्रास्टक्चर तो मजबूत किया, पर सोशल इंफ्रास्ट्रक्चर कमजोर बना रहा। महामारी ने अमीर और गरीब के बीच की खाई बढ़ाई है। इस खाई को पाटना होगा।

भ्रष्टाचार कितना दूर हो सका?
आधार, जन-धन बैंक खाते और मोबाइल की त्रिमूर्ति ने लोगों तक पहुंचने वाली सरकारी योजनाओं में रिसाव को बहुत कम किया है। लेकिन समग्र रूप से देखें तो ट्रांसपेरंसी इंटरनेशनल के मुताबिक 1995 में जो रैंकिंग 35 थी, वह 2011-13 में 95 हो गई। यानी उदारीकरण के दौरान भ्रष्टाचार बढ़ा ही। हमें बहुत पारदर्शिता और व्यवस्थागत बदलाव की जरूरत है।

अच्छे आर्थिक फैसले क्या राजनीतिक फायदा भी पहुंचाते हैं?
कुछ ऐसे कदम होते हैं जिन्हें गुड इकोनॉमिक्स और गुड पॉलिटिक्स दोनों श्रेणी में रखा जा सकता है। सड़क बनाएंगे तो ढांचागत सुविधा बढ़ेगी, व्यवस्था की कार्यकुशलता बढ़ेगी और लोगों को रोजगार भी मिलेगा। जिन इलाकों से गुजरेगी वहां विकास आएगा। बहुत से सुधारों के परिणाम मिलने में चार-पांच साल या ज्यादा भी लग जाते हैं, राजनीतिज्ञों के पास इतना धैर्य नहीं होता। ऐसे सुधार मुश्किल होते हैं, पर साहस किया जाए तो मध्य अवधि में लाभ दिखने लगता है।

इतने दशकों में कारोबारी सुगमता में हम कितना आगे बढ़ सके हैं?
आज हमारा जोर मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर पर है। इसके लिए फिजिकल इंफ्रास्ट्रक्चर बहुत जरूरी हो जाता है। हम अभी भी पीछे हैं। वियतनाम व बांग्लादेश भी तेजी से आगे निकल रहे हैं। ईज ऑफ डूइंग बिजनेस में हम 190 देशों में 63वें नंबर पर हैं। कांट्रेक्ट्स लागू करने के लिहाज से हमारी रैंक 163 है। वल्र्ड इकनोमिक फोरम जो वल्र्ड कॉम्पीटिटिव इंडेक्स जारी करता है, उसमें हमारी रैंकिंग करीब 68 है। हमें इस तरफ ध्यान देना होगा।

क्या सरकार के लिए टीके का खर्च उठाना जरूरी नहीं?
यह पब्लिक गुड है, खर्च के मुकाबले कई गुना फायदा होता है। आप लोगों को ही नहीं, उसके साथ अर्थव्यवस्था को भी टीका लगा देंगे।

तीन दशक के सफर को कैसे आंकते हैं?
प्रक्रिया तो 80 के दशक के मध्य में शुरू हो गई थी, पर इसे ज्यादा बल मिला 1991 में। बीते तीन दशक के दौरान जीडीपी वृद्धि औसतन 6.2 % रही जो उससे पिछले चार दशकों में करीब 4 % प्रतिवर्ष थी। तीन दशकों में निवेश जीडीपी का 30 % हो गया जो पहले 17-18 % रहता था। बचत को भी बढ़ावा मिला। आयात-निर्यात का योगदान 13% से बढ़कर 42% हो गया। आम तौर पर तरक्की के साथ अर्थव्यवस्था कृषि से पहले उद्योग की ओर और फिर सर्विस सेक्टर की ओर कदम बढ़ाती है, पर भारत में औद्योगिक प्रगति ज्यादा नहीं हुई और सर्विस सेक्टर फायदे में रहा, जैसे- टेलीकॉम, आईटी-बीपीओ सेक्टर।

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