सदस्य सीडब्ल्यूसी, आइएमए, जयपुर ब्रांच
बढ़ते प्रदूषण की चर्चाओं के बीच सबका ध्यान सिर्फ हवा में घुलते जहर की ओर जा रहा है। सब जानते हैं कि सिर्फ हवा ही नहीं, पग-पग पर प्रदूषण फैल रहा है, लेकिन इसकी परवाह भला किसे है। कहीं पानी प्रदूषित है तो कहीं कानफोडू ध्वनि प्रदूषण की समस्या। वैसे भी जो कुछ नजर आ रहा है उसमें प्रदूषण कम करने के तमाम सरकारी दावे हवा होते दिखते हैं। आज तो हालत यह है कि हवा में जहर घुल रहा है और इसकी वजह से शरीर में बीमारियां घर कर रही हैं। सरकारी पाबंदियों का तो जैसे खुल कर मखौल उड़ाया जा रहा है। दरअसल, हवा-पानी प्रदूषित होने पर मचने वाले शोर ने अलग-अलग सिरों पर हो रहे प्रदूषण से सबको बेपरवाह कर दिया है। समस्या दूषित हवा-पानी की ही नहीं है, पग-पग पर बदइंतजामी का आलम यह है कि आमजन हर जगह पीडि़त नजर आता है। अभी हम सिर्फ जहरीली हवा से बेचैन हुए हैं, लेकिन दूसरी समस्याओं को भी देखें तो लगता है कि आग लगने पर ही पानी का इंतजाम किया जाएगा। सरकारी दफ्तरों में कछुए की चाल होने वाले काम को भी एक तरह का प्रदूषण ही मानना होगा।
काम में तेजी इसलिए भी नहीं आती क्योंकि भ्रष्टाचार का आवरण ऐसा बन गया है कि फाइलें आगे बढ़ती ही नहीं। नशे ने इस कदर पैर पसारने शुरू कर दिए हैं कि इसकी दवा भी तलाशने की जरूरत है। बीमार को स्वस्थ करने का जिम्मा निभाने वाले चिकित्सकों की अनदेखी कर जब नीम हकीमों से उपचार हो रहा हो तो जीवन को बीमारियों से आखिर कौन बचाएगा? प्रदूषण यहां भी है, भले ही पानी-हवा का जिक्र न करें। असल में विकृत व्यवस्था प्रदूषण से कम खतरनाक नहीं है। सड़कों पर वाहनों की रेलमपेल और पीछे छूटता धुआं सबको परेशान करता है, लेकिन पॉल्यूशन सर्टिफिकेट के नाम पर खानापूर्ति जारी है। ध्वनि प्रदूषण की रोकथाम के लिए बरसों से निश्चित समय बाद ध्वनि प्रसारकों -डीजे पर रोक के आदेश न जाने कहां चले जाते हैं। कहीं सड़कों पर दौड़ते जुगाड़, कहीं स्पॉर्किंग करते तो कहीं झूलते बिजली के तार, कहीं डगमगाता ट्रांसफार्मर या फिर विद्युत पोल, उन्हें सुधारते करंट से मरते ठेका कर्मी। क्या ये सब प्रदूषित व्यवस्था के उदाहरण नहीं हंै? सड़क से लेकर सरकारी इमारत अथवा दूसरे निर्माण में घटिया सामग्री का इस्तेमाल भी किसी प्रदूषण से कम नहीं है। संबंधित विभाग के जिम्मेदार अधिकारियों को जवाबदेह क्यों नहीं बनाया जाता। कुछ लोग इस बात से बहुत खुश हैं कि पेट्रोल-डीजल के बजाय इलेक्ट्रिक वाहन दौडऩे लगे हैं। उनको लगता है कि इससे प्रदूषण कम होगा। हकीकत में ऐसा नहीं है। कुछ समय बाद बैटरी की खपत बढ़ी तो दुनिया में इसका प्रदूषण एक नई चुनौती बनने वाला है।
हालत यह है कि पानी तक शुद्ध नहीं मिल रहा। पेयजल पाइप लाइन लीकेज या फिर सीवरेज से उसका जुड़ जाना यहां आम बात है। टैंकरों से घरों तक पहुंचता पानी दूषित नहीं है, इसकी गारंटी कौन देगा? और तो और पॉलिथीन पर रोक लगाकर प्रदूषण को थामने के अभियान का क्या हश्र हुुआ यह सबको पता है। असल में प्रदूषण केवल पानी-हवा में ही नहीं, हमारी संस्कृति और आचरण में भी पैदा हो रहा है, जिससे भरोसा घट रहा है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों के जरिए फैल रहा प्रदूषण समाज के सद्भाव को बिगाड़ रहा है।
प्रदूषण रोकने की जिम्मेदारी पूरी तरह सरकार पर डालना भी उचित नहीं है। इसे हर व्यक्ति को अपने स्तर पर शुरू करना होगा। रोजाना सुबह उठकर प्रण लेकर भी ऐसा हो सकता है। जैसे – बोतलबंद पानी नहीं पीऊंगा, यातायात नियम नहीं तोडूंगा वगैरह-वगैरह। जब घर में एक गाड़ी से काम चल सकता है तो बिना पार्किंग सुविधा के चार-चार वाहन क्यों? हवा ही नहीं बल्कि कदम-कदम पर नजर आ रहे प्रदूषण से मुक्ति पाकर ही खुशहाली की कल्पना की जा सकती है।
बढ़ते प्रदूषण की चर्चाओं के बीच सबका ध्यान सिर्फ हवा में घुलते जहर की ओर जा रहा है। सब जानते हैं कि सिर्फ हवा ही नहीं, पग-पग पर प्रदूषण फैल रहा है, लेकिन इसकी परवाह भला किसे है। कहीं पानी प्रदूषित है तो कहीं कानफोडू ध्वनि प्रदूषण की समस्या। वैसे भी जो कुछ नजर आ रहा है उसमें प्रदूषण कम करने के तमाम सरकारी दावे हवा होते दिखते हैं। आज तो हालत यह है कि हवा में जहर घुल रहा है और इसकी वजह से शरीर में बीमारियां घर कर रही हैं। सरकारी पाबंदियों का तो जैसे खुल कर मखौल उड़ाया जा रहा है। दरअसल, हवा-पानी प्रदूषित होने पर मचने वाले शोर ने अलग-अलग सिरों पर हो रहे प्रदूषण से सबको बेपरवाह कर दिया है। समस्या दूषित हवा-पानी की ही नहीं है, पग-पग पर बदइंतजामी का आलम यह है कि आमजन हर जगह पीडि़त नजर आता है। अभी हम सिर्फ जहरीली हवा से बेचैन हुए हैं, लेकिन दूसरी समस्याओं को भी देखें तो लगता है कि आग लगने पर ही पानी का इंतजाम किया जाएगा। सरकारी दफ्तरों में कछुए की चाल होने वाले काम को भी एक तरह का प्रदूषण ही मानना होगा।
काम में तेजी इसलिए भी नहीं आती क्योंकि भ्रष्टाचार का आवरण ऐसा बन गया है कि फाइलें आगे बढ़ती ही नहीं। नशे ने इस कदर पैर पसारने शुरू कर दिए हैं कि इसकी दवा भी तलाशने की जरूरत है। बीमार को स्वस्थ करने का जिम्मा निभाने वाले चिकित्सकों की अनदेखी कर जब नीम हकीमों से उपचार हो रहा हो तो जीवन को बीमारियों से आखिर कौन बचाएगा? प्रदूषण यहां भी है, भले ही पानी-हवा का जिक्र न करें। असल में विकृत व्यवस्था प्रदूषण से कम खतरनाक नहीं है। सड़कों पर वाहनों की रेलमपेल और पीछे छूटता धुआं सबको परेशान करता है, लेकिन पॉल्यूशन सर्टिफिकेट के नाम पर खानापूर्ति जारी है। ध्वनि प्रदूषण की रोकथाम के लिए बरसों से निश्चित समय बाद ध्वनि प्रसारकों -डीजे पर रोक के आदेश न जाने कहां चले जाते हैं। कहीं सड़कों पर दौड़ते जुगाड़, कहीं स्पॉर्किंग करते तो कहीं झूलते बिजली के तार, कहीं डगमगाता ट्रांसफार्मर या फिर विद्युत पोल, उन्हें सुधारते करंट से मरते ठेका कर्मी। क्या ये सब प्रदूषित व्यवस्था के उदाहरण नहीं हंै? सड़क से लेकर सरकारी इमारत अथवा दूसरे निर्माण में घटिया सामग्री का इस्तेमाल भी किसी प्रदूषण से कम नहीं है। संबंधित विभाग के जिम्मेदार अधिकारियों को जवाबदेह क्यों नहीं बनाया जाता। कुछ लोग इस बात से बहुत खुश हैं कि पेट्रोल-डीजल के बजाय इलेक्ट्रिक वाहन दौडऩे लगे हैं। उनको लगता है कि इससे प्रदूषण कम होगा। हकीकत में ऐसा नहीं है। कुछ समय बाद बैटरी की खपत बढ़ी तो दुनिया में इसका प्रदूषण एक नई चुनौती बनने वाला है।
हालत यह है कि पानी तक शुद्ध नहीं मिल रहा। पेयजल पाइप लाइन लीकेज या फिर सीवरेज से उसका जुड़ जाना यहां आम बात है। टैंकरों से घरों तक पहुंचता पानी दूषित नहीं है, इसकी गारंटी कौन देगा? और तो और पॉलिथीन पर रोक लगाकर प्रदूषण को थामने के अभियान का क्या हश्र हुुआ यह सबको पता है। असल में प्रदूषण केवल पानी-हवा में ही नहीं, हमारी संस्कृति और आचरण में भी पैदा हो रहा है, जिससे भरोसा घट रहा है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों के जरिए फैल रहा प्रदूषण समाज के सद्भाव को बिगाड़ रहा है।
प्रदूषण रोकने की जिम्मेदारी पूरी तरह सरकार पर डालना भी उचित नहीं है। इसे हर व्यक्ति को अपने स्तर पर शुरू करना होगा। रोजाना सुबह उठकर प्रण लेकर भी ऐसा हो सकता है। जैसे – बोतलबंद पानी नहीं पीऊंगा, यातायात नियम नहीं तोडूंगा वगैरह-वगैरह। जब घर में एक गाड़ी से काम चल सकता है तो बिना पार्किंग सुविधा के चार-चार वाहन क्यों? हवा ही नहीं बल्कि कदम-कदम पर नजर आ रहे प्रदूषण से मुक्ति पाकर ही खुशहाली की कल्पना की जा सकती है।